By अभिनय आकाश | Dec 19, 2024
13 फरवरी 2023 अंग्रेजी अखबार द हिंदू की एक खबर जिसका शीर्षक "इंडियाज फर्स्ट लॉ मिनिस्टर डॉ. आंबेडकर रेजिगनेशन लेटर लॉस्ट फ्राम द रिकार्ड" यानी भारत के पहले कानून मंत्री डॉ. अम्बेडकर का इस्तीफा दस्तावेजों से गायब। वो इस्तीफा जो डॉ. आंबेडकर के विचारों की दृढ़ता का सबूत था। कहानी 14 और 15 अगस्त के दरमियानी रात को शुरू होती है। जब आधी दुनिया सो रही थी तो हिंदुस्तान अपनी नियती से मिलन कर रहा था। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का ट्रिस्ट विद डेस्टनी वाला भाषण भारत की स्वतंत्रता का पर्याय बना। देश आजाद हो चुका था और अब बारी थी कि देश की तकदीर देश के ही लोगों के हाथों तय करने की और जिसके लिए आम चुनाव जरूरी थे। इसी क्रम में संविधान बना। जिसका अंतिम पाठ होने के बाद संविधान सभा में डा. अंबेडकर ने अपने अंतिम भाषण में कहा था कि 26 जनवरी 1950 को भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र होगा। लेकिन उसकी स्वतंत्रता का भविष्य क्या है? क्या वह अपनी स्वतंत्रता बनाए रखेगा या उसे फिर से खो देगा? मेरे मन में आने वाला यह पहला विचार है… 26 जनवरी 1950 को भारत एक प्रजातांत्रिक देश बन जाएगा। उस दिन से भारत की जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिए बनी एक सरकार होगी। क्या भारत अपने प्रजातांत्रिक संविधान को बनाए रखेगा या फिर खो देगा? मेरे मन में आने वाला यह दूसरा विचार है और यह भी पहले विचार जितना चिंताजनक है। 26 जनवरी 1950 से हम विरोधाभास से भरे जीवन में शामिल होने वाले हैं। राजनीतिक जीवन में तो समानता हमारे पास होगी। लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में नहीं। कहने का मतलब हाशिए पर रखे गए लोगों के लिए बराबरी की बात तो तय कर दिए गए थे। लेकिन समाज और पैसे के मामले में ये अभी भी दूर की बात थी।
आंबेडकर ने नेहरू कैबिनेट से क्यों दिया था इस्तीफा
ऐसे ही हाशिए पर रहे एक वर्ग के लिए उन्होंने कुछ सुधार करनी की सोची। जब आजादी के बाद अंतरिम सरकार में वो कानून मंत्री बनाए गए। ये भारत की आजादी से कुछ हफ्ते पहले की बात है, पंडित जवाहरलाल नेहरू बीआर अम्बेडकर को कानून मंत्री के रूप में अपने नए मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए आमंत्रित करते हैं। कैबिनेट के अधिकांश अन्य सदस्यों के विपरीत, अम्बेडकर कांग्रेस पार्टी का हिस्सा नहीं थे और न ही वे उन मूल्यों को साझा करते थे जिनमें नेहरू और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अन्य वरिष्ठ नेता विश्वास करते थे। पहले कैबिनेट का हिस्सा होने के बावजूद, कांग्रेस के अधिकांश नेताओं के साथ अम्बेडकर के संबंध अपेक्षाकृत मजबूत आधार पर टिके थे। । इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने यहां तक आरोप लगाया था कि नेहरू-आंबेडकर के रिश्ते को अस्पष्ट बना दिया गया है। इसके बारे में कोई किताब नहीं है, न ही मेरी जानकारी में एक अच्छा विद्वत्तापूर्ण लेख भी है। रामचंद्र गुहा की किताब मेकर्स ऑफ मार्डन इंडिया के अनुसार 1940 के दशक में भारत के तब के कानून मंत्री आंबेडकर ने हिंदू पर्सनल लॉ में बदलाव की सोची, ताकी महिलाएं मर्जी से पति चुन सकें। तलाक ले सकें और पिता की संपत्ति में हक पा सकें। प्रधानमंत्री के तौर पर नेहरू ने भी इसका समर्थन किया। लेकिन इसमें आगे का काम रूढिवादी नेताओं के चलते रुकने लगा।
हिंदू कोड बिल पर नेहरू और आंबेडकर
अम्बेडकर संविधान का मसौदा तैयार करने में अपनी भूमिका के लिए जाने जाते हैं, लेकिन मसौदा तैयार करने से पहले ही उन्होंने हिंदू कोड बिल पर काम करना शुरू कर दिया था, जिसने पारंपरिक हिंदू कानून के कई वर्गों को आधुनिक बनाने का प्रयास किया था। संपत्ति, विवाह, तलाक, गोद लेने और उत्तराधिकार के आदेश से संबंधित कानूनों को संबोधित करते हुए अप्रैल 1947 में संसद में विधेयक पेश किया गया था। इसमें गौर करने वाली बात ये है कि अम्बेडकर ने कानून को "अब तक किए गए सबसे महान सामाजिक सुधार उपाय" के रूप में वर्णित किया। लेकिन जबकि नेहरू का मानना था कि धर्म केवल निजी क्षेत्र में ही मौजूद होना चाहिए, संसद के कई सदस्य इससे असहमत थे। जवाहरलाल नेहरू एंड द हिंदू कोड नामक एक जर्नल लेख में, इतिहासकार रेबा सोम लिखती हैं कि नेहरू की सरकार के सदस्यों ने हिंदू कोड बिल का पुरजोर विरोध किया। नेहरू ने उनके पारित होने की सुविधा के लिए संहिता को चार अलग-अलग भागों में तोड़ने का फैसला किया। हालाँकि, 1951 तक, बिल पारित नहीं हुए थे और अम्बेडकर ने निराश होकर कानून मंत्री के रूप में इस्तीफा दे दिया।
आंबेडकर के खिलाफ पंडित नेहरू ने उतार दिया था उनका ही पीए
डॉ. आंबेडकर का राजनीतिक करियर उनके सामाजिक जीवन का ही हिस्सा था। जो कि हाशिए पर रखे लोगों के अधिकारों का जरिया था। देश को आजादी तो मिल गई थी लेकिन समाज में तमाम वर्गों के लिए काम अभी बाकी था। इस इस्तीफे के बाद उन्होंने पहले चुनाव में हाथ आजमाया। आजाद भारत के आम चुनाव दस्तक देते हैं। पांच महीनों तक चले इस चुनाव में डॉ. आंबेडकर भी मैदान में थे। साल 1952 में आंबेडकर उत्तर मुंबई लोकसभा सीट से लड़े। लेकिन कांग्रेस ने आंबेडकर के ही पूर्व सहयोगी एनएस काजोलकर को टिकट दिया और अंबेडकर 15 हजार के करीब वोट से चुनाव हार गए। कांग्रेस ने कहा कि अंबेडकर सोशल पार्टी के साथ थे इसलिए उसके पास, उनका विरोध करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। नेहरू ने दो बार निर्वाचन क्षेत्र का दौरा किया और आख़िर में अंबेडकर 15 हज़ार वोटों से चुनाव हार गए। कांग्रेस के नेतृत्व और नेहरू के प्रभाव का इस चुनाव पर सीधा असर रहा था। हालांकि हार के बाद आंडेबडकर ने चुनाव के नतीजों पर सवाल भी उठाए।
क्या उस चुनाव में हुई थी धांधली
मूक नायक के मुताबिक ये हार उनके लिए कष्टदायक भी थी क्योंकि महाराष्ट्र उनकी कर्म भूमि थी। समाचार एजेंसी पीटीआई की एक रिपोर्ट के अनुसार उन्होंने कहा कि बंबई के लोगों के भारी समर्थन को किस प्रकार इतनी बुरी तरह से नकार दिया गया। ये वास्तव में चुनाव आयुक्त द्वारा जांच का विषय है। आगे आंबेडकर और अशोक मेहता ने एक साझा याचिका भी दायर की और मुख्य चुनाव आयुक्त से चुनाव रद्द करने की मांग भी की। उन्होंने ये दावा किया कि 70 हजार से अधिक बैलेट पेपर रिजेक्ट कर दिए गए और गिने नहीं गए। हालांकि चुनाव आयोग ने इस याचिका पर क्या कार्रवाई की ये कभी सामने नहीं आया। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई, अंबेडकर को 1954 में कांग्रेस ने बंडारा लोकसभा उपचुनाव में एक बार फिर हराया। वहीं अगले आम चुनाव होने तक उनका निधन हो गया।
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