कई बरसों से कहा जा रहा है कि पूरा विश्व हमारी तरफ देख रहा है। हम विश्वगुरु हो गए हैं। दुनिया भर में हमारी योजनाओं के करोड़ों विद्यार्थी हैं। इंसानों को छोडिए, जानवरों से हमारा प्यार बढ़ता जा रहा है। यह गर्व की बात है कि पूरी दुनिया में सिर्फ हमारा ही देश है जहां गाय को, गाय माता कहा जाता है। उनकी खूब सेवा करने की बात होती है। वह बात दीगर है कि वे शहर गांवों, कस्बों की राहों, गलियों में रंभाती घूमती रहती हैं। उनके मालिक दूध निकाल कर, उन्हें सड़क के हवाले कर देते हैं। उन्हें कचरा, पालीथिन चरने और घूटने के लिए छोड़ देते हैं। उनके कानों में लगे टैग बताते हैं कि उन्हें क़र्ज़ लेकर खरीदा गया है और उनका बीमा भी हुआ है।..... माफ़ करें बात कहीं से कहीं जा रही है।
कई क्षेत्रों में गायों की खूब सेवा भी की जाती है उन्हें सुगम संगीत सुनवाया जाता है। वह बात अलग है कि संगीत सिर्फ इसलिए सुनवाया जाता है ताकि वह दोगुना दूध दें। लेकिन जिनकी वजह से गाय के बछड़े या बछड़ी होती हैं उन्हें पिता तो क्या कहना, सम्मान से भी नहीं देखा और रखा जाता। बताते हैं कि प्राकृतिक जन्म संस्कृति को धत्ता बताते हुए अब ऐसी तकनीक विकसित कर ली गई है कि बढ़िया दुधारू गाय से सिर्फ बछड़ीयां ही पैदा हों। यह बात ज़्यादा अलग नहीं कि समझदार इंसान, इंसानी बच्ची के भ्रूण को आज भी गर्भ में खत्म करने को तैयार हैं। वहां भी इंसान ‘सामाजिक पशु’ चाहता है। हालांकि भैंसे भी हमारे देश में ही बहुत दूध देती हैं लेकिन उन्हें मासी भी नहीं कहा जाता। गाय माता का हाल भी सब जानते हैं। कितने झगड़े तकरार हुए, लोग मारे और मरवाए, सुरक्षा परेशान रही और राजनीति मनपसंद नृत्य करती रही। फिर भी गाय परेशान है और बातों के क़ानून बराबर बनाए जा रहे हैं।
अब बात को सीधे उड़ाकर कई समंदर पार ले चलते हैं, आस्ट्रेलिया। वहां गायों के माध्यम से मानसिक तौर पर बीमार लोगों का इलाज किया जा रहा है। हमारे यहाँ उन्हें मानसिक रूप से सताया जाता रहा है। वहां, ‘काऊ कडलिंग सेंटर’ बनाए जा रहे हैं। हम तो उनकी ठीक से सेवा नहीं कर पाते, उनका बीमा तो क्या अपना भी नहीं करवाते। वहां गाय को एक चिकित्सक के रूप में लिया जा रहा है। कुछ बीमारियां अवसाद ऐसे होते हैं जिनमें एक इंसान का सानिध्य और व्यवहार दूसरे इंसान को ठीक नहीं कर पाता, वहां जानवर का निस्वार्थ साथ और नैसर्गिक प्रतिबद्धता स्वस्थ कर देती है। संभवत गाय वहां ऐसा कर पा रही है क्यूंकि वहां यह कार्य पेशेवर तरीके से किया जा रहा है धार्मिक शैली में नहीं।
ऐसी गाय चिकित्सा पद्धति, यहां भी लाने की ज़रूरत है क्यूंकि यहां विकसित इंसानी पद्धति के अंतर्गत इंसान की सोहबत में इंसान बिगड़ रहे हैं। सदभाव और प्रेम बढ़ाऊ आयोजनों में तलवारें भेंट की जा रही हैं। राजनीति ने प्रकृति का विवाह ज़बरदस्ती कुबुद्धिजीवी विकास के साथ कर दिया है। घर में प्लास्टिक के फूल पौधे सजाए जा रहे हैं। शायद जानवर के संग रहकर सद्व्यवहार, स्नेह, निश्छल प्यार का आलिंगन पाकर, इंसान, इंसान को इंसान समझने लगे। एक बार कोशिश करने में क्या हर्ज़ है।
- संतोष उत्सुक