Prajatantra: भाई जेल गया तो YS Sharmila ने संभाली थी पार्टी, अब बनेंगी जगन के लिए मुसीबत?

By अंकित सिंह | Jan 04, 2024

दिवंगत वाईएसआर की बेटी और आंध्र प्रदेश के सीएम जगन मोहन रेड्डी की छोटी बहन वाईएस शर्मिला ने कांग्रेस पार्टी से हाथ मिलाया और आंध्र प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले गुरुवार को अपनी वाईएसआर तेलंगाना पार्टी का सबसे पुरानी पार्टी में विलय कर दिया। उन्हें दिल्ली में पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और नेता राहुल गांधी ने शामिल किया। वाईएसआर तेलंगाना पार्टी के कांग्रेस में विलय के बाद वाईएस शर्मिला ने कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की। उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी अभी भी हमारे देश की सबसे बड़ी धर्मनिरपेक्ष पार्टी है और इसने हमेशा भारत की सच्ची संस्कृति को बरकरार रखा है और हमारे राष्ट्र की नींव तैयार की है। 

 

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पिता के रास्ते पर

अपने पिता वाईएस की सद्भावना को भुनाने और अपने लिए राजनीतिक जगह बनाने के लिए वाईएसआरटीपी लॉन्च करने के बाद शर्मिला ने पिछले ढाई वर्षों में तेलंगाना में उतार-चढ़ाव वाली राजनीतिक यात्रा देखी है। राजशेखर रेड्डी, जो सबसे दुखद परिस्थितियों में हेलीकॉप्टर दुर्घटना में मृत्यु के 14 साल बाद भी तेलंगाना में लोकप्रिय बने हुए हैं, जब वह संयुक्त आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। राज्य विभाजन के कड़े विरोध के बावजूद तेलंगाना में उनकी लोकप्रियता में कोई खास कमी नहीं आई है। तेलंगाना की राजनीति में अपनी पहचान बनाने की शर्मिला की तमाम कोशिशें बेकार साबित हुईं लेकिन उन्हें अपने पिता की तरह ही एक लड़ाकू के रूप में पहचान मिली। लॉन्च के तुरंत बाद वह 3,800 किलोमीटर की पदयात्रा (वॉकथॉन) पर गईं, जो संयुक्त तेलुगु राज्यों में किसी भी राजनेता द्वारा अब तक की सबसे लंबी पदयात्रा थी। 'मारो प्रजा प्रस्थानम' 20 अक्टूबर, 2021 को रंगारेड्डी जिले के चेवेल्ला में शुरू हुआ और 19 फरवरी तक 3,800 किमी से अधिक की दूरी तय की गई। 


भाई का नहीं मिला साथ!

शर्मिला ने अपनी सियासी पारी का आगाज कठिन परिस्थितियों में हुआ था जब मई 2012 में उनके बड़े भाई जगन को गबन के आरोप में सीबीआई ने गिरफ्तार कर लिया। भाई के जेल जाने के बाद उन्होंने मां वाईएस विजयम्मा के साथ पार्टी की ओर से प्रचार का जिम्मा संभाला। उनके भाई और एपी के मुख्यमंत्री वाईएस जगनमोहन रेड्डी द्वारा वर्तमान आंध्र प्रदेश में उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं को नजरअंदाज करने के बाद लोगों ने उन्हें एक हताश राजनीतिज्ञ के रूप में देखा। जाहिर तौर पर, उन्हें वहां सरकार या पार्टी में किसी भी भूमिका से वंचित कर दिया गया था क्योंकि उन्हें डर था कि वह पार्टी और सरकार के भीतर एक और शक्ति केंद्र के रूप में उभरेंगी। इसी वहज से उन्होंने तेलंगाना का रूख किया था। 


तेलंगाना में क्या हुआ

जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आए, शर्मिला के पार्टी को तेलंगाना कांग्रेस के साथ विलय करने के प्रयास को तत्कालीन टीपीसीसी अध्यक्ष रेवंत रेड्डी के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा, जिन्होंने हमेशा तर्क दिया कि उनके प्रवेश से बीआरएस प्रमुख के.चंद्रशेखर राव को कांग्रेस के खिलाफ तेलंगाना की भावना को फिर से जगाने की गुंजाइश मिलेगी। वह 2018 के चुनाव अनुभव का हवाला देते हुए पार्टी आलाकमान को समझाने में सक्षम थे, जब टीडीपी प्रमुख एन. चंद्रबाबू नायडू ने तेलंगाना में कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन किया था, जिससे केसीआर को तेलंगाना की भावना पर खेलने के लिए सही मंच मिला। नायडू को तेलंगाना समाज हमेशा एक अलग राज्य के विरोधी के रूप में देखता था। कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार ने उनके दिवंगत पिता के साथ अपने संबंधों का उपयोग करते हुए और उन्हें तेलंगाना चुनावों से दूर रहने के लिए मनाने में एक आदर्श मेजबान की भूमिका निभाई। उन्होंने उनसे आंध्र प्रदेश में एक अच्छे राजनीतिक भविष्य का भी वादा किया। यही कारण रहा कि शर्मिला ने 2023 में तेलंगाना चुनाव नहीं लड़ने का फैसला किया और कांग्रेस को अपना समर्थन दिया। 


आंध्र प्रदेश की राजनीति 

शर्मिला के कांग्रेस में शामिल हो जाने के बाद आंध्र प्रदेश की राजनीति में बदलाव क्या आएगा, इसको लेकर फिलहाल बहुत कुछ कह पाना मुश्किल है। हालांकि इतना जरूर है कि जब वह कांग्रेस में शामिल हो गई हैं तो अपने भाई और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी को चुनाव में चुनौती देती हुई नजर आएंगी। इसके अलावा उनके पिता की सहानुभूति वोट भी शर्मिला को मिल सकते हैं जिससे इस बात की आशंका जताई जा सकती है कि जगन मोहन रेड्डी के वोट में एक सेंध लग सकता है। हालांकि जगन मोहन रेड्डी पिछले 5 वर्षों से मुख्यमंत्री हैं। ऐसे में यह देखना भी दिलचस्प होगा कि इसे वह कैसे रोक सकते हैं। दावा किया जा रहा है कि शर्मिला को आने वाले दिनों में कांग्रेस की ओर से कोई बड़ा पद दिया जा सकता है। 

 

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राजनीति में अक्सर हमने देखा है कि रिश्ते मायने नहीं रखते। मायने रखता है तो सिर्फ और सिर्फ सियासत और महात्माकांक्षा। जनता सब कुछ समझती है, जानती है और उसी के आधार पर अपना फैसला लेती है। यही तो प्रजातंत्र है। 

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