By सुखी भारती | May 06, 2021
बालि को अपने जीवन में आज पहली बार सुनना पड़ रहा था। भला संसार में कौन था जो उसे कुछ कह पाता। बालि के बनाये अहंकार के शीश महल पर मानो धड़ाधड़ पत्थर पड़ रहे थे। सब चकनाचूर हो रहा था। केवल एक अवगुण 'अहंकार' ने बालि को कहीं का नहीं छोड़ा था। अहंकार छोड़ता भी किसे है? रावण के दस सिर थे अैर बीस भुजायें थीं। रावण की दस सिर व बीस भुजायें नहीं बचीं तो बाली का एक सिर व दो भुजायें क्या बचेंगी? कबीर साहिब जी क्या खूब लिखते हैं−
एक शीश का मानवा करता बहुतक हीस।
लंकापति रावण गया बीस भुजा दस सीस।।
काश बालि का समस्त सामर्थ्य, बल देश और मानव के उत्थान हेतु उपयोग हुआ होता तो बालि का स्थान भी आज वंदनीय होता। बालि को यह तो पता चल ही गया कि मेरी चालाकी कितनी भी क्यों ना हो? लेकिन प्रभु के आगे सब व्यर्थ है। सामने साक्षात गरूड़राज विद्यामान हों और तितली कहे कि मेरी उड़ान का कहीं कोई सानी नहीं, तो यह हास्यास्पद नहीं होगा तो और क्या होगा। निश्चित ही अब बालि के समक्ष दो रास्ते थे। पहला यह कि या तो वह अपना अहंकार त्याग दे, अन्यथा प्रभु के श्री चरणों में समर्पित हो जाये। बालि के प्राण तो अटक−अटककर अभी रेंग ही रहे थे। जिनका देह त्याग कर जाना निश्चित ही था, लेकिन बालि प्रभु की भक्ति स्वीकार करे या फिर अहंकार ही पल्लु दबा कर रहे, यह निर्णय तो उसे ही करना था। और जिंदगी में निश्चित ही यह प्रथम बार था कि बालि को अपना बीता कल पूर्णत रंगविहीन प्रतीत हो रहा था। भले देर से ही सही, चिंतन का एक अंकुर अवश्य फूटता नज़र आ रहा था। होता भी क्यों ना? प्रभु का दर्शन है ही ऐसा कि जीव ने भले ही माया की जितनी मर्जी ही परतें क्यों ना ओढ़ रखी हों? लेकिन प्रभु हमारे समक्ष आये नहीं कि माया का असर यूं उड़ने लगता है जैसे ताप के प्रभाव से मोम पिघलने लगती है। जन्मों−जन्मों के पाप गलने लगते हैं− 'सन्मुख होई जीव मोहि जबहीं, जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं'
बालि पर श्रीराम का असर भी बाखूबी नज़र आ रहा था। तभी तो बालि जो अभी तक अकड़े बांस की तरह तना था, अब नरम पड़ा प्रतीत हो रहा था। बाण भले ही उसकी छाती पर लगा था, लेकिन भेदन तो सीधा हृदय में हुआ था। श्रीराम जी के बाण ने मांस के लोथड़े के साथ−साथ, बालि के अहंकार को भी भेद दिया था। बालि के अंतःकरण में श्रीराम जी का ऐसा अक्स खिंचा कि दुनिया को ठगने वाला बालि आज स्वयं ठगा-सा रह गया था। उसे लगा कि अरे मैं आज तक क्या कंकर ही एकत्र करता रहा? जिन्हें मोती समझा वे तो निरे कांच के टुकड़े निकले। मैं मूर्ख नाहक ही घास पर पड़ी बूंदों को हीरे मोतियों की संज्ञा देता रहा। लेकिन अब क्या हो सकता है? अब तो प्रायश्चित का भी समय नहीं बचा! निकलते प्राणों ने तो अपने इरादे जता ही दिये हैं। ओह! मैंने तो अपनी समस्त आयु विषयों की सेवा में ही लगा डाली। सिवाय अंधकार के मेरे पास अब बचा ही क्या है?
बालि अपनी उधेड़बुन में गोते लगा रहा था कि तभी उसके मस्तिष्क में से एक ऐसा समाधान निकला कि मानो उसके हाथ राम बाण ही लग गया हो। बालि ने सोचा कि यह कैसे हो सकता है कि कहीं सूर्य उद्य भी हो और वहाँ तिमिर भी विद्यमान रहे। भला गंगा जी भी क्या किसी को अपावन रहने देती हैं? श्रीराम मेरे समक्ष हों और मैं अभी तक भी पापी रहा, भला यह कैसे हो सकता है? अवश्य ही मैं उचित नहीं सोच पा रहा हूँ। श्रीराम जी से भला क्या छुपा रह सकता था? प्रभु ने देखा कि बालि की आत्मा पर चढ़ी जन्मों−जन्मों की मैल धुल रही है। बालि का वास्तविक आत्मिक स्वरूप आकार ले रहा है। गंदा नाला धीरे−धीरे गंगामय हो रहा है। अब क्या था, प्रभु तो कृपा करने के लिए सदैव ही तत्पर रहते हैं। बालि के अधरों पर विनतियों की लड़ियां सजी थीं, नयन सजल थे। मन तो था कि श्रीराम को आलिंग्न कर लूँ। परन्तु रूधिर में सना तन अब इस काबिल कहाँ बचा था? अंततः बालि मन से श्रीराम को साष्टाँग समर्पित हो गया। जिह्वा शब्दों पर कहाँ सवार हो पा रही थी? पाँव से लँगड़ाता व्यक्ति तो फिर भी देह का भार उठा ले। परन्तु बालि में शब्दों का बोझ जिह्वा से उठाने में किसी भी प्रकार से समर्थ नहीं थी। लेकिन बालि ने किसी ना किसी तरह अपना संपूर्ण बल एकत्र किया और विनयर्पूवक बोला कि प्रभु लोहा कितना भी जंगा लगा क्यों ना हो? किंतु पारस का संग करने पर भी क्या वह लोहा, लोहा ही रहता है? मेरे कहने का तात्पर्य आपकी पकड़ से बाहर कैसे हो सकता है? प्रभु! माना मैंने पाप व अधर्म की समस्त सीमाओं की अवहेलना की है। कोई अनाचार व दुराचार मुझसे अछूता नहीं था। इतना होने पर भी, जब आपके दिव्य दर्शन मुझे प्राप्त हो ही गये हैं तो अब मैं पापी कहाँ से रहा−
'सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि।।
प्रभु ने बालि की जब यह कोमल वाणी सुनी तो हृदय ममता व् स्नेह से भर गया। अभी तक पाषाण से भी कठोर दिखने वाले श्रीराम माखन की तरह पिघल गये। कहाँ पहले बालि के हृदय में प्रभु का बाण धँसा था, कहाँ अब प्रभु स्वयं ही हृदय में बाण की तरह धँस गये, मानो पूरे आर−पार हो गये हों। लग ही नहीं रहा कि वे वही प्रभु हैं जिन्होंने कुछ ही क्षण पूर्व बालि को मृत्यु देनी चाही और कहाँ अब बालि को जीने पर विवश कर रहे हैं। श्रीराम बालि के प्रति अथाह प्रेम से भरे हुए हैं और अपने दिव्य हस्त कमल से बालि का सिर सहलाते हुए बोले, कि हे बालि! निश्चित है कि हमारा बाण लगने पर मृत्यु अवश्यमभावी है। परन्तु हम चाह रहे हैं कि तुम अपनी जीवन यात्रा अनवरत जारी रखो। अपने प्राणों को संचित करो। मृत्यु को पास फटकने भी मत दो। इसमें तुम्हारी इच्छा है अथवा नहीं, मैं यह पूछ ही नहीं रहा। अपितु मैं तो मात्र अपनी चाहना से तुम्हें अवगत करा रहा हूँ−
सुनत राम अति कोमल बानी।
बालि सीस परसेउ निज पानी।।
अचल करौं तनु राखहु प्राना।
बालि कहा सुनु कृपानिधाना।।
बालि प्रतिउत्तर में बड़ी गूढ़ बात कहता है। क्या कहता है बालि! जानने के लिए अगला अंक अवश्य पढ़िएगा−−−(क्रमशः)−−−जय श्रीराम
-सुखी भारती