Gyan Ganga: जब बालि के प्राणघातक प्रहारों की बरसात ने सुग्रीव के होश उड़ाए

By सुखी भारती | Mar 16, 2021

सुग्रीव बालि के द्वार पर जाकर गर्जना पे गर्जना किए जा रहा है। क्योंकि उसे पता है कि बालि का वध तो श्रीराम जी ने ही करना है। हमें तो बस थोड़ा बहुत गर्जना, बरसना ही है। प्रभु ने तो बस बालि वध की लीला भर रची है। फिर हम होंगे, प्रभु होंगे और होगी सिर्फ प्रभु की भक्ति।

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सुग्रीव को कहीं से भी कोई शंका नहीं थी कि श्रीराम इससे हटके भी कोई लीला कर सकते हैं, लेकिन प्रभु जहाँ हों तो भ्रम की स्थिति भला यथावत कैसे बनी रह सकती है। क्योंकि 'ब्रह्म' और 'भ्रम' तो प्रकाश और अंधकार के मानिंद हैं। जहाँ प्रकाश है वहाँ अंधकार का अस्तित्व कैसे हो सकता है? ठीक ऐसे ही सुग्रीव का वह क्षणिक वैराग्य का भ्रम अगर बने रहना देते तो सुग्रीव की भक्ति यात्रा निश्चित ही अधूरी व कच्ची रह जाती। जी हाँ, हम उसी भ्रम की बात कह रहे हैं, जिसमें सुग्रीव को बालि के साथ अपना वैर क्षणिक वैराग्य के चलते स्वप्न में उपजे विवाद का प्रतिबिंब प्रतीत हो रहा था। सुग्रीव कह ही तो रहा था कि बालि तो मेरा परम हितकारी है। जिसकी कृपा से मेरे शोक का नाश करने वाले प्रभु श्रीराम जी मिलें−


बालि परम हित जासु प्रसादा। 

मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा।।

सपनें जेहिं सन होई लराई। 

जागै समुझत मन सकुचाई।।


प्रभु श्रीराम जी मानो सुग्रीव के इस अज्ञान को कहीं जड़ देना चाहते थे। क्योंकि श्रीराम जी सुग्रीव का पक्ष और उसे शरणागति इसलिए नहीं देते कि बालि के पाप व क्रूरता इसका आधार थे। अपितु श्रीराम जी तो सुग्रीव के सहज मन व सेवा भक्ति के चलते उसका पक्ष लेते हैं। प्रभु का स्नेह, उनका दुलार करने की वृत्ति व करुणा से भरे हृदय के कारण ही प्रभु की शरणागति मिलती है। न कि बालि जैसे अधर्मी के अधर्म के कारण उनका पावन सानिध्य प्राप्त होता है। अगर हम सुग्रीव की बात मानें तो यह तो यूं हुआ कि जैसे किसी कैंसर के मरीज को उसका असाध्य रोग समाप्त करने वाले बड़े उत्तम कोटि के वैद्य मिल गए हों, और वो कहे कि नहीं जी, इस कैंसर की कृपा से ही तो मुझे आप जैसे काबिल वैद्य मिले हैं। तो भला अब मैं कैंसर को कैसे अपने ही हाथों समाप्त कर दूँ। सचमुच कैसी मूर्खता है न कि कोई बीमारी के प्रति ही कृतज्ञता जताने लगे। 


बालि समाज में व्याप्त बुराइयों का कैंसर ही था। तभी तो सुग्रीव के अनेकों ऐसे तर्कों के बावजूद भी प्रभु अपने सिद्धांत पर डटे रहे और फिर से याद दिलाया कि सुग्रीव तुम अपने भाई के प्रति भले कितने ही नरम क्यों न पड़ जाओ लेकिन सुन लो कि मेरा प्रण कभी खाली नहीं जाता। अर्थात् हम बालि वध करेंगे ही करेंगे−


जो कछु कहेहु सत्य सब सोई। 

सखा बचन मम मृषा न होई।।


श्रीराम जी तो जानते ही थे कि बालि अधर्मी है, लेकिन सुग्रीव का तात्विक ज्ञान तो तभी माना जाता जब वह निष्पक्ष होकर धर्म को धर्म की संज्ञा देते। और अधर्म को अधर्म की तुला में तौलते। सुग्रीव को बालि कभी तो दुष्ट प्रतीत होता है और कभी परम हितकारी। मानों सुग्रीव को दृष्टि भ्रम की बीमारी ने बुरी तरह जकड़ लिया था। वह बालि को लेकर किसी निर्णायक बिंदु पर पहुँच ही नहीं रहा था। और श्रीराम जी को किष्किंधा के भावी राजा की यह द्वंद्वात्मक दृष्टि कतई स्वीकार्य नहीं थी। क्योंकि राजा का भावनात्मक होना अच्छा पहलू है। लेकिन भावना में शूल को शूल स्वीकार ही न करना, उसकी मुख्य दुर्बलताओं में से एक है। बालि दुष्ट है तो बस दुष्ट है। यह निष्कर्ष अंतिम था और सुग्रीव को बस यही दिखना चाहिए था। यही नीतिगत भी था और धर्मप्रिय भी।

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इसलिए जब बालि आकर सुग्रीव को बहुत धमकाता है व उस पर गर्जना करते हुए अपनी फौलादी मुष्टिका का प्रहार करता है तो सुग्रीव को प्राणों पर आ बनती है। बालि है कि सुग्रीव पर मानों लात−घूंसों की बरसात ही कर देता है। इससे पहले कि सुग्रीव मुक्के की मार व पीड़ा से संभलता। तब तक उस पर बीसियों लात−मुक्कों की और बौछार हो जाती है। मुक्के इतने घातक व पीड़ादायक थे कि सुग्रीव के तो तोते उड़ गए और खोपड़ी झनझना गई। गनीमत तो यह थी कि बालि के मुक्कों की बरसात रूकने का नाम नहीं ले रही और सुग्रीव बार−बार पीछे झांक रहे हैं कि अरे प्रभु श्रीराम जी कहाँ हैं? वे बाण क्यों नहीं चला रहे? उन्होंने ही तो कहा था मुझे तो बालि से भिड़ने का सिर्फ कर्म करना है। बालि वध की कृपा तो प्रभु ही करेंगे। 


अब बिना सोचे समझे, जैसे−तैसे हम बालि से भिड़ तो गए हैं, लेकिन प्रभु का बाण तो कमान पर बस सुस्ताने पर ही लगा है। बताओ यह भी कोई मजाक हुआ? यहाँ साक्षात् मृत्यु के जबड़े नीचे दबे बैठे हैं और प्रभु पेड़ की आड़ में लुक्का−छुपी खेलने में लगे हैं। दईया रे दईया बालि भाई है या काल? ये तो मुझे मारकर ही बस करेगा।

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सुग्रीव बार−बार पीछे प्रभु के बाण को ढूंढ़ रहा है, लेकिन बाण है कि कमान से छूट ही नहीं रहा? उधर बालि ने भी सुग्रीव को कलाई से ऐसा जकड़कर पकड़ा कि कलाई कटवा कर ही उससे जान छुड़वाई जा सकती थी। समय रेत की भांति मुट्ठी से फिसल रहा था। और केवल रेत ही समाप्त नहीं हो रही थी, अपितु सुग्रीव के प्राण भी समाप्त हो रहे थे। बालि की मार से सुग्रीव के होश पासता होने लगे। अब तो पीछे मुड़कर रामबाण के आने की उम्मीद भी टूटती-सी प्रतीत हो रही थी। बहुत देखा परंतु श्रीराम जी ने बाण न चलाया। और सुग्रीव को मृत्यु साक्षात् दृष्टिगोचर हो रही थी। जिससे बच पाना लगभग असंभव था। लेकिन तभी उसे वही मंत्र याद आता है जिस मंत्र ने सदैव उसकी रक्षा की थी। और यह मंत्र 'राम नाम' तो कतई नहीं था। तो फिर सुग्रीव जी ने ऐसा कौन-सा मंत्र पढ़ा? जी हाँ! सुग्रीव का वह मंत्र था अविलम्ब, बिना कुछ विचार किए उस स्थान से भाग खड़े होना। और सच मानिए सुग्रीव ने जैसे ही अवसर पाया कि बालि उसे अधमरा देख उसकी कलाई पर अपनी पकड़ ढीली कर रहा है तो वह झटके से कलाई छुड़वा कर भाग खड़ा हुआ। और सीधे आकर श्रीराम जी के पास रोने−धोने लग जाता है−


तब सुग्रीव बिकल होई भागा।

मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा।।

मैं जो कहा रघुबीर कृपाला। 

बंधु न होइ मोर यह काला।।


सुग्रीव बालि की मार खाने के पश्चात पीड़ा से कराह रहा है और श्रीराम जी को बहुत उलाहने देना चाहता है। सुग्रीव श्रीराम जी से क्या−क्या कहता है। जानने के लिए ज्ञान गंगा से जुड़े रहें...क्रमशः...जय श्रीराम जी!


-सुखी भारती

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