By सुखी भारती | Nov 06, 2021
श्रीहनुमान जी अपने लक्ष्य की ओर तीव्र गति से बढ़ते जा रहे हैं। उन्हें तो आगे बढ़ना ही था, कारण कि श्रीहनुमान जी कोई कर्मों के दैहिक बँधन में बँधे साधारण जीव थोड़ी न थे। अपितु वे तो श्रीराम जी के एक तीक्षण व अकाटय बाण थे। जो एक बार श्रीराम जी के पावन कर कमलों से छुटते हैं, तो सीधा लक्ष्य साधने के पश्चात ही श्रीराम जी के श्रीचरणों में पुनः लौटते हैं। सुरसा से शुभाशीष लेने के पश्चात श्रीहनुमान जी श्रीराम बाण की भाँति ही गतिमान थे। लग रहा था, कि श्रीहनुमान जी का, अब सीधे लंका पर ही जाकर विश्राम होगा। कहीं कोई भी, स्वागत अथवा प्ररीक्षा हेतु मार्ग में नहीं आयेगा। लेकिन श्रीहनुमान जी रत्ती भर भी अवगत नहीं थे, कि आगे कौन-सी बाधा आने वाली है। हो सकता है कि श्रीहनुमान जी ने किसी बाधा या कष्ट की तो कोई कल्पना तक न की हो। कारण कि अब से पहले श्रीहनुमान जी के समक्ष या तो सुमेर पर्वत के रूप में स्वागतकर्ता प्रस्तुत हुए, या फिर सुरसा माई जैसी आशीर्वाद देने वाली सर्पों की माता। लेकिन श्रीहनुमान जी की कोई गति भी रोक लेगा, यह अहसास तो उन्हें स्वप्न में भी नहीं था। जी हां! श्रीहनुमान जी मार्ग में उस स्थान पर आ पहुँचे थे, जहाँ उनकी यात्रा की गति बढ़नी नहीं थी, अपितु बाधित होनी थी। कारण कि यही वह स्थान था, जहाँ सिंहिका नामक एक राक्षसी का अपावन निवास था। तमोगुण में आकंठ डूबी, सिंहिका आकाश में उड़ने वाले जीवों की परछाई को वश में कर, उनकी गति रोक देती थी। और उन्हें नीचे गिरा देती थी-
‘निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई।
करि माया नभु के खग गहई।।
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।।’
सिंहिका ने अपना यही कपट श्रीहनुमान जी के साथ भी करना चाहा। लेकिन वीर हनुमान जी भला कहाँ उसके छल के जंजाल में फँसने वाले थे। वैसे भी क्या एक साधारण कच्चे धागे से गजराज को बांधा जा सकता है? या फिर भाखड़ा बाँध जैसे बाँध को रोकने के लिए, कागज की परत के दरवाजे काम आया करते हैं। श्रीहनुमान जी सिंहिका का यह कपट पहचान गए-
‘गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई।।
सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।।’
पर सिंहिका के भ्रम का क्या कह सकते थे। वह तो अपनी आदत से मजबूर जो थी। श्रीहनुमान जी ने जैसे ही देखा कि सिंहिका अपने पाप कृत्य से च्युत नहीं हो सकती है। क्योंकि सिंहिका उड़ने वाले सभी जीवों की परछाई पकड़ कर उन्हें खा लेती थी, तो उसने जैसे ही श्रीहनुमान जी पर अपना षड़यंत्र चलाना चाहा, श्रीहनुमान जी ने सिंहिका के साथ कोई बातचीत नहीं की। सीधे उसे मार ही डाला-
‘ताहि मारि मारुतसुत बीरा।
बारिधि मार गयउ मतिधीरा।।’
अब हमें यहाँ श्रीहनुमान जी इस पावन लीला पर कुछ चिंतन करने की आवश्यकता है। कथा का रसपान करते हुए, यह प्रसंग हमें सोचने पर मजबूर कर देता है, कि श्रीहनुमान जी जहाँ सुरसा के साथ तनिक भी ठोस व्यवहार नहीं करते, वहीं सिंहिका के साथ एक शब्द तक नहीं बोलते, और सीधा उसे मृत्यु दण्ड दे देते हैं। सिंहिका के साथ श्रीहनुमान जी का ऐसा दोगला व्यवहार क्यों? कारण स्पष्ट था कि श्रीहनुमान जी ऐसे जीवों अथवा मनुष्यों को तनिक भी स्वीकार नहीं करते, जो लोग किसी को ऊँचा उड़ता देख ईर्ष्या से सदैव जला भुना करते हैं। और ईर्ष्या भी इस स्तर तक कि वे उन्हें नीचे गिरा कर सीधा मार ही डालने में विश्वास करते हैं। निःसंदेह ऐसे लोगों का समाज के उत्थान के लिए तो कोई योगदान ही नहीं है। उल्टा ऐसे लोग तो औरों के लिए पतन का ही कारण बनते हैं। सोच कर देखिए, क्या ऐसे जीवों को इस धरा पर रहने का अधिकार है? नहीं! बस यही सोच कर श्रीहनुमान जी ने सिंहिका को मृत्यु दण्ड देना उचित समझा। महापुरुषों का आगमन इसलिए थोड़ी न होता है, कि उन्हें कोई अपने नाम अथवा सम्मान के लिए कोई परंपरा खड़ी करनी होती है। अपितु समाज में एक संतुलित व सवस्थ विवस्था और अवस्था हो, इसीलिए उनका आगमन होता है। दुर्योधन भी सिंहिका की भाँति ही ऐसी ही दरिद्र मानसिकता से पीड़ित था। उसे भले ही राज सिंहासन की प्रबल वासना थी। लेकिन उससे भी अधिक उसकी यह चाह थी, कि वह पाँचों पाँड़वों को नीचे गिराये। तभी तो वह लाक्ष्यगृह में पाँड़वों को राख करने की नीच योजना तैयार करता है। और भगवान श्रीकृष्ण भी अंततः उसके वध के ही पक्ष में रहते हैं। कारण कि प्रभु को वो लोग स्वीकार ही नहीं हो पाते, जो दूसरे जीवों को सदैव गिराने के ही प्रयास में रत्त रहते हैं। श्रीगुरु अर्जुन देव जी के दरबार में भी एक ऐसी ही सुंदर घटना घटित होती है। उनके दरबार में एक प्रसिद्ध पहलवान को प्रस्तुत किया जाता है। उसकी प्रसंशा में बड़े-बड़े कसीदे पढ़े जाते हैं। श्री गुरुदेव पूछते हैं, कि इसकी सबसे बड़ी विशेषता क्या है? तो सभी एक स्वर में गवाही देते हैं, कि महाराज इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसका अथाह बल है। इसके सामने कोई भी आ जाये। यह उसको आँख झपकते ही गिरा सकता है, चारों खाने चित्त कर सकता है। सबने सोचा कि गुरु जी यह सुन प्रसन्न होंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। श्रीगुरुदेव बोले कि ऐसा बल किस काम का, कि उस बल के प्रयोग से किसी को गिराया ही जाये। हमारी दृष्टि में ऐसे बल की कोई महिमा नहीं है। बल तो वह है, जो किसी गिरते हुए को उठाये। ऐसा बल अगर किसी के पास नहीं है, तो गिराने वाले बल से, तो बल का न होना ही अच्छा है। श्रीहनुमान जी भी ठीक यही करते हैं। महान वही है, जो आपके बल को दोगुना करे। न कि आपका सब कुछ ही छीन ले। रावण और जटाऊ के महासंग्राम में निःसंदेह रावण ही जीता। कारण कि उसमें छल और बल, दोनों ही अधिक थे। लेकिन तब भी रावण के बल की कहीं महिमा नहीं। और जटाऊ जी की तो पराजय भी सम्मान की पात्र बन गई। कारण कि रावण का बल दूसरों को नीचे गिराने के लिए था, और जटाऊ का बल दूसरों को ऊँचा उठाने के लिए। इसलिए श्रीहनुमान जी सिंहिका का वध कर आगे बढ़ जाते हैं। क्या इसके पश्चात श्रीहनुमान जी लंकापुरी पहुँच पाते हैं, अथवा नहीं। जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती