सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! भागवत-कथा, स्वर्ग के अमृत से भी अधिक श्रेयस्कर है।
भागवत-कथा श्रवण करने वाले जन-मानस में भगवान श्री कृष्ण की छवि अंकित हो जाती है। यह कथा “पुनाति भुवन त्रयम” तीनों लोकों को पवित्र कर देती है। तो आइए! इस कथामृत सरोवर में अवगाहन करें और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति पाकर अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।
मित्रों !
पूर्व प्रसंग में हम सबने देखा कि भगवान श्री कृष्ण बलराम भैया के साथ श्री अक्रूर जी के मार्गदर्शन में मथुरा पधारने के लिए तैयार हैं। प्रभु के वियोग में गोपियाँ अत्यंत दुखी हैं उनकी आँखों के आँसू सूख नहीं रहे हैं। भगवान श्यामसुंदर के विविध गुणों का गान करती हुईं गोपांगनाएँ पूरी रात जागती रहीं।
आइए ! अब आगे के प्रसंग में चलते हैं----
प्रातःकाल हुआ नंदबाबा तो अपने वृद्ध ग्वालों के साथ बैलगाड़ी में बैठकर मथुरा के लिए रवाना हो गए पर जैसे ही तैयार होकर कृष्ण बलराम के साथ रथ में बैठे गोपियों के सब्र का बांध टूट गया। दौड़ पड़ी रथ को चारो ओर से घेर लिया। गोपियों की विकलता देखकर अक्रूर जी घबड़ा गए रथ में बैठे कृष्ण को संकेत किया प्रभों ! हम रथ कैसे चलावें? ऐसी हालत में रथ हाँकना असंभव है। भगवान खड़े हुए और गोपियों को समझाने लगे। देवियों ! दिन-रात के समान संयोग-वियोग होता रहता है मात्र दो दिन की बात है। आज जाऊंगा कल मथुरा का मेला घूम लूँगा परसो वापस आ जाऊंगा। तुम लोगों को तो प्रेम से विदा करना चाहिए। गोपियों ने आपस में विचार किया, ठीक है। प्रभु मेला घूमेंगे उनको सुख मिलेगा। मथुरवासी भी भगवान को देखकर आनंदित होंगे। इनके सुख में ही तो हमारा सुख है। जैसे-तैसे हम दो दिन काट लेंगे। गोपियों ने रथ का मार्ग छोड़ दिया। अक्रूर जी ने हवा के वेग से रथ दौड़ाया। इतनी तेज कि भयंकर धूल उड़ने लगी। जब तक रथ का ध्वज दिखता रहा तब तक गोपियाँ गोविंद को निहारती रहीं।
शुकदेव जी कहते हैं----
तावत आलक्षते केतु; यावद रेणु; रथस्य च
समस्त गोपांगनाएं निरंतर निर्निमेष नेत्रों से रथ को देखती मानो माधव के साथ गोपियों का मन भी मथुरा चला गया। अब अक्रूर जी सोचने लगे। धन्य हैं ये व्रज की गोपियाँ, कितना अद्भुत प्रेम है। ऐसे गोपियों के प्रेमास्पद प्रभु को मैं क्रूर कंस के पास ले जा रहा हूँ। कंस तो बड़ा ही दुष्ट और निर्दयी है। कदाचित कृष्ण का कुछ अहित हो जाए तो मैं गोपियों को क्या जवाब दूंगा कैसे मुँह दिखाऊँगा। गोपियाँ कभी मुझे क्षमा नही करेंगी। अक्रूर जी सोचते हुए जा रहे थे कि निर्मल यमुना का जल दिखाई पड़ा। रथ रोक लिया। प्रभु यदि आज्ञा हो तो एक डुबकी लगा लूँ। भगवान ने कहा- अवश्य। दोनों भैया को रथ में बैठा छोड़ जैसे ही अक्रूर जी ने डुबकी मारी तो यमुना के भीतर दोनों भैया बैठे नजर आए। अक्रूर जी उछल पड़े अरे लगता है मेरे साथ इन्होने भी डुबकी लगा दी क्या? बाहर देखा तो दोनों भैया रथ में भी बैठे हैं। अब तो बड़े चक्कर में पड़ गए। ये दो कैसे? पुन; डुबकी मारी तो भगवान चतुर्भुज रूप में प्रकट हो गए। प्रह्लाद आदि भक्त भी प्रकट हो गए देव गण प्रभु की स्तुति कर रहे हैं। यह दृश्य देखकर अक्रूर जी ने कहा— ओहो ! जिन्हें मैं नन्हा सा नंदलाल समझ रहा था वो तो साक्षात परं ब्रह्म परमेश्वर हैं।
नतोSस्म्यहं त्वाखिलहेतु हेतुम् नारायणं पुरुषमाद्यमव्ययम।
यन्नाभिजाता दरविन्द कोशाद् ब्रह्माविरासित् यत् एष लोक:।।
हे प्रभो ! मैं समझ गया आप समस्त जगत के कारणों के भी कारण हैं। साक्षात नारायण हैं। आपको बारंबार नमस्कार।
नमस्ते रघुवर्याय रावणान्तकराय च। बड़ी प्यारी स्तुति अक्रूर जी ने की। यमुना से बाहर आकर रथ में बैठे और प्रभु को आंखें फाड़कर देखने लगे। ये वही हैं चार हाथ वाले जो अभी यमुना में दिख रहे थे। भगवान मुस्कुराए बोले- चाचाजी क्या हुआ कोई अद्भुत दृश्य देख लिया क्या? अक्रूर जी चरणों में गिरा गए और बोले- हे प्रभो ! अब ज्यादे लीला मत करना नहीं तो मैं पागल हो जाऊंगा। आप ही दिखाते हो और आप ही भोले बनकर पूछते भी हो क्या देख लिया? कुछ भी हो आपको मेरे घर पहले चलना होगा। भगवान मुस्कुराए, बोले- चाचाजी आपका घर तो मेरा ही घर है। अवश्य आऊँगा पर पहले मामाजी से तो मिल लूँ। प्रभु ने आने का वचन दिया- बात करते-करते रथ मथुरा पहुँच गया। नंदबाबा ने कहा- कन्हैया आने में बड़ी देर कर दी। प्रभु ने कहा, चाचाजी नहाने लगे इसलिए देर हो गई। ठीक है आराम करो कल मेला चलेंगे। कन्हैया बोले- बाबा अभी एक पहर दिन बाकी है कुछ आज घूम लूँ और बाकी कल आपके साथ घूम लेंगे। खबरदार, ये वृन्दावन नहीं है कि जब चाहे तब मुंह उठाकर चल दो। ये कंस की नगरी है। पता नहीं कब किसके साथ लड़-भीड़ जाए। तेरो के भरोसों ? मैं तोको अकेलो नहीं भेजूँ। दाऊ जी बोले- बाबा ! आप मुझे आज्ञा दे, मैं तनिक समझदार हूँ लाला को घुमाकर रात होने से पहले आ जाऊँगा, किसी से झगड़ा नहीं होगा। नन्द बाबा समझ गए कि दोनों का मन मेला घूमने का है। बलराम तुम पर भरोसा है तू समझदार है पर ये नट-खट कान्हा पर भरोसों कोनी करूँ। जा संभाल के पर रात होने से पहले ही आ जायों। और हाँ काहू से झगड़ा न करियों। चल कन्हैया हाथ पकड़कर दाऊ जी चल दिये। ग्वाल-बालों के साथ कन्हैया मथुरा में प्रविष्ट हुए। देखिए मिथिलापुरी और मथुरापुरी की लीलाएं बहुत मिलती जुलती हैं। मिथिला में रामजी अपने छोटे भाई को लक्ष्मण जी को ले गए। गुरुदेव से आज्ञा माँगी। यहाँ भी दाऊ जी अपने छोटे भाई कान्हा को नन्द बाबा से आज्ञा लेकर मथुरा दर्शन के लिए ले जा रहे हैं। इनके प्रवेश करते ही मथुरा पूरी में तहलका मच गया। मथुरवासी आपस में कहने लगे, ए भैया ! पूतना को मारने वाला छोरा आ गया।
कोई कहे गोवर्धन पर्वत उठाने वाला नंदलाल आ गया। जो जहाँ से सुनता वहीं से भागता है।
धाये धाम काम सब त्यागी मनहुं रंक निधि लूटन लागी।
शेष अगले प्रसंग में ----
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
-आरएन तिवारी