Gyan Ganga: कपास के फूल को चुन कर गोस्वामी जी क्या संदेश देना चाह रहे थे?

By सुखी भारती | Nov 02, 2023

गोस्वामी जी ने एक बार, एक माँ को अपने लल्ला को दुलारते देखा। वह अपने लल्ला को चूमते हुए कहती है, ‘हाय रे मेरा लल्ला! कितना सुंदर है। मुखड़ा तो बिल्कुल ऐसा है, मानों गुलाब का फूल हो।’


बस फिर क्या था। उसी समय गोस्वामी जी जब संतों की महिमा लिखने वाले थे। उन्होंने भी सोचा, कि मैं भी तो संतों से इतना प्रेम करता हूँ। उनके दिव्य चरित्र की सुंदरता में मुझे भी अगर कुछ लिखना हो, तो क्यों न मैं भी उनके पावन चरित्र का मिलान, किसी फूल से करूँ। इस विषय पर उन्होंने बहुत सोचा, लेकिन हर बार वे कहते, ‘कमल का पुष्प कैसा रहेगा---?---नहीं-नहीं! कमल के फूल पर तो भगवान विष्णु बैठते हैं। उनसे संतों के चरित्र की तुलना मर्यादित सा नहीं लगेगा। तो गेंदे का फूल कैसा रहेगा? लेकिन शायद वह भी ठीक नहीं होगा। क्योंकि उसमें तो अनेकों ही रंग होते हैं। क्या मेरे संत ऐसे ही रंग बदलते रहते हैं? बिल्कुल नहीं। उनका तो सुख-दुख जैसे हर मौसम में एक ही रंग रहता है, और वह है ‘आनंद ही आनंद’। अगर गेंदा का पुष्प भी ठीक नहीं, तो फिर कौन से फूल से मैं, मेरे प्रिय संतों की तुलना करूँ---?’


काफी समय इस विषय पर चिंतन करने के पश्चात, गोस्वामी जी ने एक फूल को चुना। जिससे संतों के पावन चरित्र का मिलान किया जा सकता था। क्या आप जानते हैं, कि वह पुष्प कौन-सा था? निश्चित है, कि आप भी उस पुष्प का नाम सुनकर हँस पड़ेंगे। जी हाँ! वह फूल था ‘कपास का फूल’। क्या---कपास का फूल?--- जी हाँ! आपने बिल्कुल ठीक सुना। गोस्वामी जी ने कपास के पुष्प को ही चुना।

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लेकिन आश्चर्य की बात है, कि कपास के पुष्प में ऐसी क्या सुंदरता थी, जो उन्होंने संतों की महिमा के लिए उसे चुना? यह पुष्प तो मंदिर या किसी अन्य देवालय में भी नहीं चढ़ते देखा। पूजा की थाली ने तो ऐसे किसी पुष्प की कभी कल्पना भी नहीं की होगी। अधिक क्या कहें, कपास का पुष्प तो कभी, किसी सुंदर स्त्री के बालों का श्रृंगार भी नहीं बना होगा।


समस्त व विभिन्न दृष्टिकौणों से देखने पर भी यही निष्कर्ष निकलता है, कि कपास का पुष्प हर प्रकार से गुणहीन है। फिर क्यों गोस्वामी जी ने संतों की तुलना कपास के पुष्प से ही की? यह जानने के लिए, आप स्वयं ही उनकी रचना पढ़ कर देख लीजिए-


‘साधु चरित सुभ चरित कपासू।

निरस बिसद गुनमय फल जासू।।

जो सहि दुख परछिद्र दुरावा।

बंदनीय जेहिं जग जस पावा।’


गोस्वामी जी कहते हैं, ‘क्या आपने कभी कपास के पुष्प में रस देखा है? नहीं न? तो हमारे संतों में भी तो संसार के किसी विषय का कोई रस नहीं है। वे ‘निरस’ हैं। हालाँकि एक रस तो उनमें भी पाया जाता है। जिसे ही वास्तव में रस कहा जाना चाहिए। जी हाँ, वह रस है, परमात्मा की भक्ति का रस। बाकी जिन्हें संसार रस मानता है, वे तो विष्यों के कड़वे प्रवाह हैं। और ऐसे विषैले विषयों के विष का कार्य आनंद देना नहीं, अपितु कष्ट देना होता है। इसीलिए संसार के रसिकों की झोली में बिना कष्ट के कुछ और होता ही नहीं है।’


किसी ने गोस्वामी जी से पूछा, कि चलो वो तो ठीक है, हमने माना। लेकिन आपने संतों को विशद भी तो कहा। वह क्यों कहा?


गोस्वामी जी मुस्कराकर बोले, ‘अरे भाई! आप तो जाानते ही हैं, कि कपास का पुष्प उजला होता है। और उजली वस्तु किसका प्रतीक है? यह प्रतीक है, कि संतों में रत्ती भर भी कोई दाग नहीं होता। वे विशुद्ध व पावन पवित्र होते हैं। इसीलिए उन्हें विशद कहा है। नहीं तो संसार में कौन है, जो विकारों के मलिन दागों से बचा हो?


संत तो हँस जैसे पूर्णतः उजले होते हैं, और उज्ज्वलता तो है ही त्याग का प्रतीक। मेरे संतों से बढ़कर भला कौन त्यागी होगा? कोई वस्तु भी तो तभी उजली दिखाई देती है, जब वह सूर्य के दिये सातों रंगों को, अपने भीतर न समेट करके, वापिस सूर्य को ही लौटा देती है। संतों की भी यही वृति होती है। उन्हें मान-सम्मान, पद प्रतिष्ठा अथवा अपमान जो कुछ भी प्राप्त होता है, उसे वे प्रभु के ही श्रीचरणों में अर्पित कर देते हैं। अपने पास तो वे कभी कुछ रखते ही नहीं हैं। क्यों आप सहमत हुए या नहीं?’


प्रश्नकर्ता ने संतुष्टि में सिर हिलाया, और फिर पूछा, ‘गोस्वामी जी! आपने कहा, कि संत गुणमय हैं। मैं भी ऐसा मानता हूँ। लेकिन कपास में ऐसे कौन से गुण आपको दिखे, कि आपने उन गुणों को संतों से मिला दिया?’


गोस्वामी जी ने प्रश्नकर्ता का क्या उत्तर दिया? जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।


-सुखी भारती

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