17 वीं लोकसभा का पहला शीतकालीन सत्र सोमवार को शुरू हो गया। यह सत्र 13 दिसंबर तक चलेगा। इस सत्र में भी कई विधेयकों के आने और पास हो जाने की संभावना है। लेकिन सबसे ज्यादा चर्चा नागरिकता विधेयक को लेकर है। सरकार विवादास्पद नागरिकता (संशोधन) विधेयक को पारित कराने की तैयारी में है जो भाजपा का अहम मुद्दा है। सरकार इस विधेयक को लोकसभा और राज्यसभा में मंजूरी के लिए पेश करेगी। हालांकि मोदी सरकार ने इस विधेयक को अपने पहले कार्यकाल में भी संसद में पेश किया था पर विपक्ष के भारी विरोध के चलते इसे पास नहीं कराया जा सका। विपक्ष इसे धार्मिक आधार पर भेदभावपूर्ण बता रहा है। इस विधेयक का विरोध पूर्वोत्तर में भी खूब हुआ था। पर यह विरोध क्यों? आखिर इस विधेयक में ऐसा क्या है कि इसे विवादास्पद माना जा रहा है?
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क्या है नागरिकता विधेयक?
नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन करने के लिए संसद में नागरिकता विधेयक लाया गया था। ये विधेयक जुलाई, 2016 में केंद्र सरकार द्वारा संसद में पेश किया गया था। इस विधेयक में भारत के पड़ोसी देश अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यक समुदायों यानि की हिंदु, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइ धर्म के मानने वाले लोग भारत में हैं उन्हें बिना समुचित दस्तावेज के नागरिकता देने का प्रस्ताव है। कहने का मतलब यह है कि इस विधेयक में पड़ोसी देश से आए गैर-मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता दी जाएगी। इस विधेयक में उनके निवास के समय को 11 वर्ष के बजाय छह वर्ष करने का प्रावधान है। कहने का तात्पर्य यह है कि अब ये शरणार्थी 6 साल बाद ही भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं। माना जा रहा है कि इस विधेयक के बाद अवैध प्रवासियों की परिभाषा बदल सकती है।
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आखिर क्यों हो रहा है विरोध?
विपक्ष का आरोप है कि सरकार इस विदेयक का उपयोग राजनीतिक फायदे के लिए कर रही है। दरअसल पड़ोसी देशों के मुस्लिम समुदाय से जुड़े लोगों को इसके दायरे से बाहर रखा गया है और यही विवाद का जड़ है। कांग्रेस ने इसे 1985 के ‘ऐतिहासिक असम करार’ के प्रावधानों का उल्लंघन बताया है और कहा कि 1971 के बाद बांग्लादेश से आए सभी अवैध विदेशी नागरिकों को वहां से निर्वासित किया जाएगा भले ही उनका धर्म कुछ भी हो। TMC नेता ममता बनर्जी भी इसे लेकर सरकार पर हमलावर रहती हैं। संसद में इसे एक बार फिर से पेश करने की तैयारी के बीच इसके खिलाफ विरोध की आवाज़ें उठने लगीं हैं। पूर्वोत्तर में लोग इस खूब विरोध कर रहे है।
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NDA में विरोध
भले ही भाजपा लगातार यह दावा कर रही हो कि वह इस बिल को पास कराकर ही दम लेगी लेकिन उसकी सहयोगी पार्टियां इस बिल के खिलाफ हैं। जनता दल यू और असम गण परिषद जैसे भाजपा के साथी इस मुद्दे पर अलग राय रखते हैं। वहीं एनडीए में रहने के बावजूद भी शिवसेना ने भाजपा से अलग रुख अख्तियार किया था। खुद को हिंदुत्ववादी एजेंडा वाली पार्टी बताने वाली शिवसेना ने असम गण परिषद के रुख का समर्थन किया था।
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भाजपा का रूख
भाजपा इस विधेयक को लेकर काफी आक्रामक है। भाजपा बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों में इस मुद्दे को बार-बार उठाती है। अमित शाह अपनी कई चुनावी रैलियों में इस बात का जिक्र कर चुके हैं कि वह हर हाल में अवैध घुसपैठियों को देश से बाहर निकाल कर रहेंगे। उन्होंने अपनी एक रैली में सभी धर्मों का नाम तो लिया पर एक एक धर्म को छोड़ दिया। वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बार-बार इसे असम के लोगों की जिंदगी और भावनाओं से जोड़कर देखते हैं और यह कहते हैं कि वह किसी के साथ अन्याय नहीं होने देंगे। असम सरकार के वरिष्ठ मंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा कहते हैं कि अगर यह विधेयक पारित नहीं हुआ तो अगले 5 वर्षों में राज्य में हिंदू अल्पसंख्यक बन जाएंगे।