निठ्ठलों की बड़ी फौज खड़ा कर देगी राहुल गांधी की आय गारंटी योजना

By योगेन्द्र योगी | Mar 26, 2019

राजनीतिक दल सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। बेशक इसके दूरगामी परिणाम कुछ भी निकलें। दलों का एकमात्र मकसद किसी भी तरह सत्ता प्राप्त करना है। उनकी बला से देश इसकी कीमत चुकाए तो चुकाता रहे। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव के मद्दनजर गरीबी हटाने की ऐसी ही घोषणा की है। इसके तहत यदि कांग्रेस केंद्र में सत्ता में आती है तो गरीबों के खाते में 12 हजार रूपए जमा कराए जाएंगे। मसलन यदि किसी की आय 6 हजार रूपए मासिक है तो सरकार की ओर से 6 हजार रूपए जमा कराए जाएंगे। इससे देश में हर गरीब की मासिक आय न्यूनतम 12 हजार रूपए होगी। यह पहला मौका नहीं है, जब सत्ता में आने के लिए किसी दल ने ऐसी घोषणा की है। इससे पहले भी किसानों की कर्ज माफी, बेराजगार युवाओं को मासिक भत्ता और अन्य चुनावी घोषणाएं की जाती रही हैं। इसके अलावा भी दलों द्वारा मोबाईल, लैपटॉप, स्वर्णाभूषण और अन्य महंगे सामानों को बांटने की घोषणाएं भी की जाती रहीं हैं। इन घोषणाओं का दूरगामी असर देश और राज्यों पर क्या पड़ेगा, इसकी चिंता किसी दल को नहीं रहती।

 

सवाल यह है कि ऐसे उपायों से क्या वाकई गरीबी खत्म हो जाएगी। यदि महंगाई पर काबू नहीं पाया गया या रूपए की कीमत कम हो गई तो ऐसी योजनाएं स्वतः ही अप्रसांगिक नहीं हो जाएंगी ? मुद्रा स्फीती कम नहीं की गई तो ऐसी योजनाओं से जहां से चले थे, फिर वहीं पर पहुंच जाने वाले हालात नहीं बन जाएंगे। देश की अर्थव्यवस्था काफी हद तक कृषि प्रधान है। मानसून ने यदि दगा दे दिया तो फसलों और फल−सब्जियों के भाव बढ़ जाएंगे। डीजल−पेट्रोल की कीमतों पर हस्तक्षेप करने से पहले ही केंद्र और राज्यों की सरकारें इंकार कर चुकी हैं। इनकी कीमत का सीधा असर उत्पादन और उससे फिर महंगाई पर पड़ता है। इन्हें नियंत्रण में रखने और मानसून के दगा देने पर कृषि के लिए सिंचाई के वैकल्पिक इंतजाम की राजनीतिक दलों को चिंता नहीं है। ऐसी स्थिति में महंगाई का बढ़ना स्वभाविक है। ऐसे में क्रय शक्ति का ह्रास होगा।

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इससे जब रूपए की ताकत ही कमजोर हो जाएगी तब गरीब परिवार इतनी आय में कैसे गुजारा करेगा। वे 12 हजार पाने के बाद भी गरीब के गरीब ही बने रहेंगे। इन रूपयों से उनके परिवार का गुजर−बसर नहीं हो सकेगा। वोट बैंक की खातिर इस तरह की आर्थिक फायदा पहुंचाने वाली योजनाओं का दूसरा पक्ष यह है कि योजनाओं के लिए अतिरिक्त धन का इंतजाम कहां से होगा। निश्चित तौर पर ऐसी योजनाओं के लिए संसाधन जुटाने के लिए करों में वृद्धि ही एकमात्र जरिया होगा। उत्पादन क्षेत्रों पर यदि करों में वृद्धि की जाएगी तो उसका सीधा असर उत्पादन पर पड़ेगा। नोटबंदी और जीएसटी जैसे उपायों के कारण इसके कई सैक्टर मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। इससे ज्यादा बेरोजगारी बढ़ेगी। इसकी मार भी आर्थिक दृष्टि से विकास के आखिरी पायदान पर खड़े गरीबों पर पड़ेगी।

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ऐसी चुनावी योजनाओं के पोषण के लिए टैक्स का दायरा उत्पादन क्षेत्रों पर न बढ़ाकर यदि सर्विस सैक्टर तक बढ़ाया जाएगा तो पहले से भारी दबाव झेल रहा यह क्षेत्र और दबाव में आएगा। बेहतर होता कि राजनीतिक दल ऐसी चुनावी योजनाओं की घोषणा के साथ इसका रोडमैप भी सार्वजनिक करते कि आखिर इनके लिए धन का इंतजाम कैसे किया जाएगा। देश के लोगों से यह वायदा किया जाना चाहिए कि इनके क्रियान्वयन से प्रत्यक्ष या परोक्ष आर्थिक बोझ उन पर नहीं पड़ेगा। इस सच्चाई से सभी राजनीतिक दल मुंह मोड़ते रहे हैं। कोई दल ऐसा खुलासा या वायदा कभी नहीं करता।

 

सत्ता के स्वार्थ में डूबे दलों के लिए देश पर पड़ने वाले ऐसे प्रभाव चिंता का विषय नहीं रहे हैं। होना तो यह चाहिए कि कांग्रेस के पदाधिकारी अपनी आय और जनप्रतिनिधि व मंत्री अपने वेतन से ऐसी योजनाओं में अंशदान करें, तब उनकी नीयत पर उगंलियां नहीं उठेंगी। कांग्रेस में करोड़पति और अरबपति नेताओं की कमी नहीं हैं। इनमें राहुल गांधी और हाल ही में राष्ट्रीय महासचिव बनाई गईं उनकी बहिन प्रियंका वाड्रा का अरबपति परिवार भी शामिल है। देश सेवा का दंभ भरने वाले ऐसे नेताओं को उद्योगपति अजीम प्रेमजी से सबक लेना चाहिए। जिन्होंने देश की खातिर अपनी आधी से ज्यादा सम्पत्ति दान कर दी, जबकि राजनीतिक दलों को सत्ता तो चाहिए बहाना देश सेवा का है।

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देश सेवा का नाटक करने के बजाए प्रत्यक्ष रूप से देश की मदद की जानी चाहिए। राजनीतिक दलों का आचरण अब तक इस बात का गवाह रहा है कि आखिरकार ऐसी योजनाओं की मार आम लोगों पर ही पड़ती है। राजनीतिक दल और उनके नेता अपनी जेब से फूटी कौड़ी तक खर्च नहीं करते। इसके विपरीत ऐसी योजनाओं की आड़ में अपना घर भरने का प्रयास जरूर करते हैं। नेताओं−नौकरशाहों पर चल रहे भ्रष्टाचार के मामले इस बात के प्रमाण हैं कि कैसे इस तरह की योजनाओं की आड़ में अपना उल्लू सीधा किया गया है।

 

इसके अलावा सवाल यह भी है कि सत्ता में आने पर राजनीतिक दल बगैर किसी काम के घर बैठे−बिठाए रूपए देकर देष में अकर्मण्यता को बढ़ावा नहीं देंगे। बेहतर होता कि गरीबों के खाते में सीधे रूपए जमा कराने के बजाए उन्हें रोजगार के अवसर मुहैया कराए जाएं। आखिर राजनीतिक दल कब तक फिजूल में खातों में धन जमा कराते रहेंगे। रोजगार के संसाधन मुहैया न कराकर गरीबों को मुफ्त में धन बांटने का असर यह भी होगा कि जो आय के लिए थोड़ा−बहुत प्रयास कर रहे हैं, वे भी नहीं करेंगे। सिर्फ सरकार पर आश्रित रहेंगे। इससे देश में बेकारी की नई फौज तैयार होगी। होना तो यह चाहिए कि ऐसे गंभीर मुद्दों पर राजनीतिक दलों को एकराय कायम करनी चाहिए ताकि दूरगामी तौर पर देश को इसका खामियाजा नहीं भुगतना पड़े।

 

-योगेन्द्र योगी

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