By आरएन तिवारी | Oct 14, 2022
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥
प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर सांसारिक आवा-गमन के चक्कर से मुक्ति पाएँ और अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ।
पिछले अंक में हम सबने पढ़ा कि— जब पूतना के मृत शरीर यानी शव को जलाया गया तब उसमें से परम पवित्र खुशबू निकली जिससे गोकुल का सम्पूर्ण वातावरण सुगंधित हो गया। गोकुलवासियों की आश्चर्य की सीमा न रही। सभी एक दूसरे से कहने लगे—पूतना जैसी कलंकिनी राक्षसी के दग्ध शरीर से इतनी सुंदर सुगंध ?
आइए ! आगे के प्रसंग में चलते हैं---
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित ! बताओ, पूतना में एक भी अच्छाई नहीं। न नाम अच्छा न काम अच्छा न आहार अच्छा न व्यवहार अच्छा। तो भगवान ने क्या अच्छाई देखी ?
भगवान कहते हैं— भली बुरी चाहे जैसी थी किन्तु इसने काम यशोदा मैया का किया है, माँ की तरह गोद में लेकर स्तन पान कराया है, इसलिए मैं उसको भी सद्गति ही प्रदान करूंगा। वाह! भगवान की कितनी श्रेष्ठता है। पूतना की समानता माँ यशोदा से कर रहे हैं।
न जाने कौन-से गुण पर दयानिधि रीझ जाते हैं।
अब ऐसा अभागा कौन होगा? जो प्रभु की शरण में नहीं जाना चाहेगा? जो पूतना में दोष नहीं देख सका भला वह अपने भक्तों में दोष कैसे देखेगा?
जन अवगुण प्रभु मान न काऊ, दीनबंधु अति मृदुल सुभाऊ ।
भगवान का ऐसा मीठा स्वभाव न हो तो जीव का कल्याण कैसे होगा? भगवान तो बस बहाना ढूँढ़ते रहते हैं और मौका देखकर कृपा बरसा देते हैं। भगवान का स्वभाव दयालु नहीं होता तो उन्हें कौन पूछता। एक संत के पद में कितना सुंदर भाव है।
कृपा की न होती जो आदत तुम्हारी।
तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी।
जो दीनों के दिल में जगह तुम न पाते।
तो किस दिल में होती हिफाजत तुम्हारी।
ग़रीबों की दुनिया है आबाद तुमसे।
ग़रीबों से है बादशाहत तुम्हारी।
पूतना के पूर्व जन्म का परिचय----
पूतना पूर्व जन्म में दैत्य शिरोमणि राजा बलि और विंध्यावली की पुत्री थी, जिसका नाम रत्नमाला था। अपने पिता की यज्ञ शाला में वामन भगवान को देखकर उसके हृदय में पुत्र स्नेह उमड़ पड़ा था। उसने अभिलाषा प्रकट की थी कि मुझे भी ऐसा ही पुत्र होता तो मैं भी उसे अपना स्तन पिलाकर धन्य हो जाती। वामन भगवान अपने भक्त बलि की पुत्री का मनोरथ समझ गए। द्वापर युग में वही रत्नमाला पूतना हुई, उसने बाल कृष्ण को स्तन पिलाया और इस प्रकार उसकी पूर्व जन्म की अभिलाषा पूर्ण हुई। भगवान, अनन्य भाव से भजने वाले अपने भक्त का मनोरथ अवश्य पूर्ण करते हैं।
भगवान कृष्ण की माखन चोरी लीला:-
तेरैं लाल मेरौ माखन खायौ ।
दुपहर दिवस जानि घर सूनौं, ढूँढ़ि-ढँढ़ोरि आपही आयौ ॥
खोलि किवार, पैठि मंदिर में, दूध-दही सब सखनि खवायौ ।
ऊखल चढ़ि सींके कौ लीन्हौ, अनभावत भुइँ में ढरकायौ ॥
दिन प्रति हानि होति गोरस की, यह ढोटा कौनैं ढँग लायौ ।
सूरस्याम कौं हटकि न राखै, तै ही पूत अनोखौ जायौ ॥
बालक कृष्ण की शरारतें तथा नित्य प्रति माखन चुराने की आदत से तंग होकर गोपियाँ यशोदा के पास शिकायत करने आती हैं। गोपियाँ कहती हैं, कि कृष्ण दोपहर के समय सुनसान देखकर अपने साथियों के साथ घर में घुस जाते हैं। दरवाजा खोलकर दही-माखन स्वयं तो खाते ही हैं अपने साथियों को भी खिलाते हैं और जो बच जाता है उसे जमीन पर गिरा देते हैं।
कृष्ण को रंगे हाथों पकड़ने के लिए गोपियों ने मटके में घंटी बाँध रखी थी। कृष्ण के साथी दोस्त जब माखन खाते तो घंटी नहीं बजती, जब कन्हैया मटकी छूते तो घंटी बज उठती और कृष्ण रंगे हाथ पकड़े जाते। कन्हैया जब घंटी से पूछते, तुम क्यों बजती हो ? तो घंटी हँसकर जवाब देती, भगवान भोग लगाए और घंटी न बजे ऐसा हो नहीं सकता। ब्रह्म भोग लगाएगा तो घंटी बजेगी ही।
मैया कन्हैया से पूछती हैं--- तूने ऐसा क्यों किया ?
सूरदास जी के शब्दों में भगवान कहते हैं :-
मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो |
भोर भयो गैयन के पाछे, मधुवन मोहिं पठायो ।
चार पहर बंसीबट भटक्यो, साँझ परे घर आयो ॥
मैं बालक बहिंयन को छोटो, छींको केहि बिधि पायो ।
ग्वाल बाल सब बैर परे हैं, बरबस मुख लपटायो ॥
तू जननी मन की अति भोरी, इनके कहे पतिआयो ।
जिय तेरे कछु भेद उपजि हैं, जानि परायो जायो ॥
यह लै अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहिं नाच नचायो ।
'सूरदास' तब बिहँसि जसोदा, लै उर कंठ लगायो ॥
माँ यशोदा जब कृष्ण को डांटने लगती हैं तो, कृष्ण अपनी सफाई पेश करते हुए कहते हैं।
माँ, मैंने माखन नहीं खाया है। सुबह होते ही गायों के पीछे जंगल में चला जाता हूँ, चारों पहर मैं बांसुरी लेकर भटकता रहता हूँ और शाम होने पर ही घर आता हूँ। अभी तो मेरे छोटे छोटे हाथ हैं मैं छींके (मक्खन की हाँडी जो ऊपर टांगी जाती है) तक कैसे पहुँच सकता हूँ। ये सब गाय चराने वाले ग्वाल-बाल मुझसे जलन रखते हैं, इन्होंने मेरे मुँह पर जबरदस्ती मक्खन लगा दिया है। तुम मन की बहुत भोली भाली हो, जो इनकी बातों में आ जाती हो। अवश्य ही तुम्हारे दिल में मेरे प्रति कुछ शक पैदा हो गया है, तुम मुझे अपना नहीं बल्कि पराया समझने लगी हो। अब मैं गाय चराने भी नहीं जाऊँगा, यह अपनी लाठी और कमरिया ले लो। अपने लाडले की खीझ भरी बातें सुनकर यशोदा माँ हँस कर कृष्ण को गले से लगा लेती हैं।
यशोदा मैया पूछतीं--- अच्छा कन्हैया! ये बता, अपने घर में मेवा, मिश्री, दूध, दही, घी छप्पन भोग व्यंजन पड़े हैं, इनको छोड़कर तू माखन के पीछे क्यों पड़ा रहता है?
कन्हैया का जवाब सुनकर यशोदा मैया अभिभूत हो गईं और फिर कभी भी कृष्ण को डाँटा नहीं। आइए सुनते हैं आखिर कृष्ण ने क्या कहा—
माखन में “माँ” शब्द समाहित इसीलिए माँ भायो।
जब-जब माखन मुँह से लगाऊँ “माँ” को याद सुहायो॥
मैया मोरी मैंने ही माखन खायो -------------
यहाँ “माँ” का तात्पर्य कृष्ण की जन्मदात्री “देवकी'' से है। अंत में कृष्ण ने स्वीकार किया कि उन्होंने माखन खाया है और वे जब-जब माखन खाते हैं तब-तब माँ देवकी की सुहानी याद आती है। वे माखन में देवकी माँ को ढूंढ़ते फिरते हैं।
शेष अगले प्रसंग में ---------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी