By सुखी भारती | Jun 28, 2022
भगवान श्रीराम जी अपने परम भक्त श्रीहनुमान जी से, अपनी अर्धांगिनी श्रीसीता जी की कथा को मन, वचन और कर्म से हृदय में धारण करके श्रवण कर रहे हैं। एक बार किसी ने भगवान से प्रश्न किया, कि हे प्रभु! संपूर्ण जगत आपकी कथा का रसपान करता है एवं अपने जीवन को कल्याण के मार्ग पर प्रशस्त करता है। लेकिन क्या आपका स्वयं का, कभी कथा श्रवण करने का मन नहीं करता? माना कि चलो मन करता भी होगा, तो आप किसकी कथा सुनते हैं? मुझे पता है कि आप कम से कम, अपने चरित्र गान की कथा, स्वयं के ही श्रवण द्वारों से भला कैसे सुनते होंगे? कारण कि ऐसा व्यवहार तो स्वयं को ही पसंद नहीं आता होगा। और फिर कोई भी अगर किसी की कथा श्रवण करता भी है, तो वह उसी की ही कथा तो सुनेगा, जो उसके स्वयं से अथवा सबसे बड़ा हो। अब आप तो ठहरे श्रीहरि भगवान। आपसे बड़ा तो कोई है ही नहीं। तो इस माप दण्ड के आधार पर तो आप किसी और की कथा भी नहीं सुन सकते। तो क्या यह मान जिया जाये, कि आप कथा सुनते ही नहीं। मुझे पता है, यह संभव ही नहीं, कि आप और कथा का अस्तित्व भिन्न-भिन्न हो। ऐसे में आपके पास क्या स्पष्टीकरण हैं? तो भगवान बोले, कि कौन कहता है, कि हमसे बड़ा कोई ओर नहीं है? हमसे भी बड़ा कोई है। यह बात अलग है, कि आपको उसका ज्ञान नहीं है। अब आपको यह उत्कंठा त्रस्त कर रही है, कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ। तो हे जिज्ञासु सुनो! वैसे तो हमसे बड़ा संसार में सचमुच कोई नहीं है। लेकिन जब बात हमारे भक्तों की होगी, हमारी दृष्टि में हमारे भक्त ही हमसे बड़े होंगे। और उनके बारे में कही गई कोई भी बात, हमारे लिए कथा ही होती है। समझ गए न जिज्ञासु? हमारा जब भी कभी कथा सुनने का मन होता है, तो हम अपने भक्त की ही गाथा सुनते हैं। हमारा भक्त जैसे हमारी लीला श्रवण कर रोता है, हँसता है और नाचता व गाता है। ठीक उसी प्रकार हम भी अपने भक्त की प्रत्येक लीला का आनंद लेते हैं।
श्रीराम जी भी अपनी अर्धांगिनी एवं परम प्रिय भक्त, श्रीसीता जी के महान त्याग व दिव्य चरित्र का गुनगाण सुन कर हर्षित हो रहे हैं। श्रीहनुमान जी ने जब प्रभु श्रीराम जी को, माता सीता जी द्वारा दी गई चूड़ामणि दिखाई, तो श्रीराम भावना के सागर में गहरे से गहरे उतर गए। उन्होंने उस चूड़ामणि को लेकर अपने हृदय से लगा लिया। श्रीहनुमान जी ने सोचा, कि प्रभु उस चूड़ामणि से अपने हृदय की पीड़ा साझा कर रहे हैं। लेकिन मईया ने तो मोखिक भी प्रभु के लिए संदेश भेजा है-
‘चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हीं।
रघुपति हृदय लाइ सोइ लीन्ही।।
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी।।’
श्रीराम जी ने यह सुनते ही, श्रीहनुमान जी को नेत्र उठा कर देखा। उनकी तरसाई सी आँखें बिलख-बिलख कर यह कह रहीं थी, कि हे हनुमंत! अब विलंब न करो। मुझे शीघ्रता से कहो, कि हमारी प्राण प्रिय ने हमारे लिए क्या संदेशा भेजा है। तो श्रीहनुमान जी ने कहा कि हे प्रभु, मईया ने कहा है, कि मेरी ओर से आपसे व श्रीलक्षमण जी से क्षमा प्रार्थी होना। और वह भी केवल मुख से बोल कर ही नहीं, अपितु चरण पकड़ कहना। कहना कि आप दीनबंधु हैं, शरणागत के दुखों को हरने वाले हैं। और मैं भी मन, वचन व कर्म से आपकी अनुरागिणी हूँ। फिर मुझे श्रीराम ने किस अपराध के कारण त्याग दिया-
‘अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दीन बंधु प्रनतारति हरना।।
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी।।’
माता सीता जी कह रही हैं, कि श्रीराम जी के साथ-साथ श्रीलक्षमण जी को भी प्रणाम करना। श्रीराम जी को प्रणाम करने की बात तो समझ में आ रही है। लेकिन माता सीता जी श्रीलक्षमण जी को प्रणाम करने की जो बात कह रही हैं, उसमें बड़ा रहस्य छुपा हुआ है। कारण कि श्रीलक्षमण जी अगर, श्रीसीता जी को प्रणाम करें, तो यह बात समझ में आती है। कारण कि श्रीमाता जी का संबंध, श्रीलक्षमण जी के साथ माता व पुत्र का है। माता सीता जी कह रही हैं, कि हे हनुमंत, आप मेरी और से, श्रीलक्षमण जी को प्रणाम करना। तो यह न्याय संगत-सा नहीं लगता है। कारण कि संसार में कोई भी माता, कभी अपने पुत्र को प्रणाम नहीं किया करती। तो फिर भला माता सीता जी, क्यों श्रीलक्षमण जी को प्रणाम करने का कह रही हैं। तो उसके पीछे कोई लौकिक भाव नहीं, अपितु एक आध्यात्मिक भाव है। श्रीसीता जी एवं श्रीलक्षमण जी, दोनों ही प्रभु श्रीराम जी के अनन्य भक्त हैं। दोनों का ही समर्पण महान व उत्तम श्रेणी का है। लेकिन श्रीसीता जी अपने जीवन में एक बार, श्रीलक्षमण जी के सेवा व समर्पण के आगे स्वयं को छोटा पाती हैं। जी हाँ! श्रीसीता जी सोचती हैं, कि मैंने श्रीलक्षमण जी की बात नहीं मानी, तो आज श्रीराम जी से बिछोह सह रही हूँ। लेकिन श्रीलक्षमण जी प्रभु की आज्ञा में रहे, तो उन्हें प्रभु का पावन संग अभी भी सुलभ है। श्रीलक्षमण जी भले ही आयु व नाते के भाव से मुझसे छोटे हों। लेकिन सेवा व समर्पण के संदर्भ में वे मुझसे अग्रणी हैं। श्रीसीता जी अपने मन की व्यथा व पीड़ा को, श्रीहनुमान जी के श्रीमुख से और आगे कैसे बयां करती हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती