Gyan Ganga: गोलचक्र में ब्रजवासियों के साथ बैठककर भगवान श्रीकृष्ण ने क्या किया?

By आरएन तिवारी | Nov 04, 2022

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥ 


प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में गोता लगाकर सांसारिक आवा-गमन के चक्कर से मुक्ति पाएँ और अपने इस मानव जीवन को सफल बनाएँ। मित्रों ! पिछले अंक में हम सबने पढ़ा कि अघासुर जो विशाल सर्प का रूप धारण कर वृन्दावन में आया था, व्रजवासियों की मित्र मंडली उसे साधु-महात्माओं की पवित्र गुफा समझकर उसमें प्रवेश कर गई थी। भगवान ने अघासुर का वध करके ग्वाल-बालों को बचाया था और अघासुर राक्षस को मोक्ष प्रदान किया था। 


आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं-


शुकदेव जी महाराज कहते हैं—परीक्षित ! जो भगवान का नाम लेता है वो तर जाता है लेकिन जो भगवान को पेट में ही धरकर मरा हो वो क्या नर्क में जा सकता है? आश्चर्य तो इस बात का हुआ परीक्षित! कि, आज अघासुर मरा है और उसके ठीक एक साल बाद व्रजवासियों ने यशोदा से कहा- मैया, तेरो कन्हैया ने अघासुर को मार दियो। परीक्षित चौंके और पूछ बैठे, ऐसा क्यों महाराज! एक साल बाद ये घटना क्यों सुनाई? शुकदेव जी ने कहा- परीक्षित! कृष्ण कथा के प्रति तुम्हारा अतिशय अनुराग देखकर कोई रहस्य छिपाते नहीं बनता। सुनो, ग्वाला जब गैया चराने जाते हैं, तब अपना कलेवा भी साथ में रखते हैं। जहाँ अच्छा स्थान देखा, गायों को चरने के लिए छोड़ दिया और कलेवा की गठरी पेड़ की डाली से लटका दिया और आपस में खेलने-कूदने लगे। जब अघासुर के मुँह से व्रजवासी बाहर निकले तो बोले– कन्हैया, तेरी कृपा से हम बच गए नहीं तो हमारो नाश्ता हो गयो होतो। अब हम सबको बड़ी ज़ोर से भूख लगी है। भगवान बोले- अपना-अपना कलेवा उतारो। सबने वृक्ष शाखा से अपना-अपना कलेवा उतारा और यमुना तट पर नव कोमल रेत में गोलचक्र बनाकर बैठ गए। ये सखा मंडली का रास मण्डल है। भगवान भी गोलचक्र में सब व्रजवासियों के साथ बैठे हैं। भगवान एक तरफ मुँह करते हैं तो दूसरा अपनी तरफ खींचता है।

इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: भगवान श्रीकृष्ण ने ग्वाल-बालों की अघासुर से कैसे रक्षा की थी?

ए कन्हैया ! मेरी तरफ मुँह कर। अपनी सखा मंडली को प्रसन्न करने के लिए भगवान चारो तरफ मुँह करके बैठ जाते हैं। प्रत्येक व्रजवासी को लगता है कि कृष्ण मेरे साथ ही भोजन कर रहे हैं। प्रभु के कमल मुख के सभी दर्शन कर रहे हैं।


भागवत कथा का बहुत सुंदर संदेश....  

भगवान किसी को भी विमुख नहीं करते। भोजन प्रारम्भ हो गया। आइए शुकदेव जी के शब्दों में सुनें—


बिभ्रद् वेणुं जठरपट्योः ऋंग वेत्रे च कक्षेत !

वामेपाणौ मसृण कवलं तत्फलान्यग्ड़गुलीषु !

तिष्ठन् मध्येस्वपरिसुह्रदोहासयान् नर्मभिः स्वै:  !

स्वर्गेलोके मिषति बुभुजे यज्ञ भुग्बालकेलिः !!


भगवान भोजन करते समय पीताम्बर उतार कर अपनी कमर में बांध लेते हैं उस पीताम्बर में एक तरफ शृंगी और दूसरी तरफ बंशी दबा लेते हैं। गायों के सिंह से शृंगी बनाई जाती है इसको ज़ोर से बजाया जाता है, इसकी आवाज सुनकर गाय-बछड़े दौड़कर कन्हैया के पास आ जाते हैं। व्रजवासी पत्ते के दोने में दही-भात लेकर पाने लगते हैं पर हमारे गोविंद तो करपात्री बनकर भोजन कर रहे हैं। अपने वाम कर को ही भोजन का पात्र बना रखा है। सबसे अचार मांग रहे हैं। तू कौन-सा अचार लाया है भैया ! अचार की एक-एक फली उँगलियों में दबा लेते हैं। खट्टे, मिट्ठे नीबू मिर्ची के अचार के साथ दही-भात का भोग लगा रहे हैं। 


''तिष्ठन मध्ये स्वपरि सुहृदो हासयन् नर्मभि; स्वै;।''


सब ग्वालों के बीच गोविंद विराजमान हैं और गोल चक्र में बैठे हुए हास-परिहास कर रहे हैं। स्वर्ग लोक के तमाम देवी-देवता आपस में काना-फूसी कर रहे हैं। देखो-देखो बड़े-बड़े यज्ञों का भोक्ता नारायण कैसे भोजन कर रहा है। बड़े-बड़े वेदपाठी ब्राह्मण नाभ्या आसिदन्त...... 


लंबे-लंबे वेद पाठ करते हैं फिर भी भोग लगाने नहीं आता। यहाँ देखो एक ग्वाला आधा लड्डू खाकर जूठा कन्हैया को खिला रहा है। यहाँ जूठे-मीठे का कोई विचार नहीं। भगवान के भोजन की लीला को तो देखो। ब्रह्माजी यह लीला देखकर सिर खुजलाने लगते हैं, नाक भौं सिकुड़ने लगते हैं। अरे ! “ये नारायण हैं,” इनमें तो भगवत्ता के कहीं से लक्षण नहीं दिख रहे हैं। ब्रह्मा जी विधि-विधान के अच्छे ज्ञाता हैं इसलिए वेद विरुद्ध कार्य देखना पसंद नहीं करते। सोचने लगते हैं— भोजन करने का ये कौन सा तरीका है? हाथ-पैर धोकर बैठना चाहिए, पवित्रता के साथ आसन पर बैठना चाहिए, न जूठा खाना चाहिए न खिलाना चाहिए मौन होकर भोजन करना चाहिए। यहाँ तो एक भी लक्षण नहीं दिख रहा है,। न हाथ धोया न पैर, बस भोजन प्रारम्भ कर दिया। भोजन के बीच एक दूसरे पर कटाक्ष हँसी मज़ाक, कहीं कोई मर्यादा नहीं। ये कैसा नारायण? विधि-विधान के विशेषज्ञ ब्रह्माजी अचरज में पड़ गए। मुझे तो लगता है ये नारायण नहीं हो सकते। फिर विचार में आया कि नहीं, नहीं अघासुर को मारने वाले भी तो यही हैं। मेरी आँखों के सामने ही अघासुर की प्राण ज्योति इनके चरणों में विलीन हो गई। इससे तो सिद्ध हो गया कि ये नारायण ही हैं। और तो और देवकी के आठवें पुत्र भी तो ये ही हैं। प्रभु ने मुझे स्वयं आदेश दिया था कि मैं देवकी और वसुदेव के यहाँ आठवें पुत्र के रूप में जन्म लूँगा। अब एक खोपड़ी कहती है कि, ये भगवान हो नहीं सकते दूसरी खोपड़ी कहती है कि, ये ही भगवान होने चाहिए। अब चार खोपड़ी वाले चतुरानन चक्कर में पड़ गए। अब ब्रह्माजी ने सोचा कि जब इतना संकल्प विकल्प हो रहा है तो क्यों न परीक्षा ले ली जाए। 


शेष अगले प्रसंग में ---------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । 


- आरएन तिवारी

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