By अभिनय आकाश | Aug 03, 2024
1947 में जब हमारा देश आजाद हुआ और गणतंत्र की नींव रखी गयी तो उसमें बराबरी नहीं थी। इसीलिए संविधान बनाते समय इसके निर्माताओं ने समानता का हक देते हुए भी कुछ अपवादों के लिए जगह छोड़ी। जिन वर्गों को ऐतिहासिक रूप से भेदभाव झेलना पड़ा है उन्हें आगे बढ़ने में राज्य मदद करे। इसी के नतीजे में आरक्षण की व्यवस्था अस्तित्व में आई। अनुसूचित जाति और जनजाति को कॉलेज और नौकरियों में आरक्षण दिया गया। ताकि वो समाज में बाकी वर्गों के बराबर आ सकें। उनका प्रतिनिधित्व सरकार के समाज के हर स्तर पर हो सके। लेकिन आरक्षण के प्रावधान के साथ कुछ सवाल भी पूछे जाने लगे कि जो पिछड़ों में अगड़े हैं उनका क्या, आरक्षण का लाभ कितनी पीढियों तक या इसमें कोई इकोनॉमिक इनकम की कैप लगाई जाएगी? इसके साथ ही कानूनी आरक्षण के छत्र तले कब तक ये व्यवस्था रहेगी। देश की सबसे बड़ी अदालत की 7 जजों की बेंच ने एक फैसला दिया। 4 जजों ने कहा कि एससी-एसटी में भी क्रिमी लेयर होना चाहिए। इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं और उसी के बारे में आज हम अपने लीगल बुलेटिन में विस्तार से बात करेंगे।
मामले का बैकग्राउंड क्या है
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुआई वाली बेंच इस बात का परीक्षण कर रही थी कि क्या पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ी जाति ऐक्ट- 2006 के तहत वाल्मीकि और मजहाबी सिख को रिजर्वेशन कोटे के तहत नौकरी में प्राथमिकता सकती है। साथ ही कोर्ट को यह देखना था कि क्या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के भीतर राज्य सरकार सब-क्लास बनाकर रिजर्वेशन का लाभ दे सकती है या नहीं।
संवैधानिक बेंच के सामने कैसे आया यह मामला ?
सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में कुल 23 याचिकाएं दाखिल की गई थीं। उनमें पंजाब सरकार की भी याचिका थी, जिसने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के 2010 के फैसले को चुनौती दी गई थी। हाई कोर्ट ने पंजाब लॉ की धारा 4(5) को खारिज कर दिया था जिसके तहत एससी कोटे में 50 फीसदी सीट वाल्मीकि और मजहाबी सिख को देने का प्रावधान था। हाई कोर्ट ने कहा था कि यह प्रावधान 2004 के सुप्रीम कोर्ट के चिन्नैया जजमेंट के खिलाफ है।
क्या था साल 2004 का फैसला ?
2004 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने SC- ST के भीतर उप जाति को तरजीह देने को गलत बताया था। 2004 का फैसला पांच जजों की बेंच ने किया था। पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के 2004 के फैसले समय तहत राज्य सरकार के कानून को खारिज कर दिया था। राज्य सरकार ने किसी विशेष जाति को SC-ST के सब क्लास में रखने के लिए कानून बनाया था।
कोर्ट ने क्या फैसला सुनाया
सुप्रीम कोर्ट ने 1 अगस्त को एक ऐतिहासिक फैसले में कहा कि राज्यों को अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण करने का संवैधानिक अधिकार है, ताकि उन जातियों को आरक्षण प्रदान किया जा सके जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से अधिक पिछड़ी हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि राज्यों को पिछड़ेपन और सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व के मात्रात्मक और प्रदर्शन योग्य आंकड़ों के आधार पर उप-वर्गीकरण करना होगा, न कि मर्जी और राजनीतिक लाभ के आधार पर। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली सात-सदस्यीय संविधान पीठ ने 6:1 के बहुमत के निर्णय के जरिये ई वी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश सरकार मामले में शीर्ष अदालत की पांच-सदस्यीय पीठ के 2004 के फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जातियों (एससी) के किसी उप-वर्गीकरण की अनुमति नहीं दी जा सकती, क्योंकि वे अपने आप में स्वजातीय समूह हैं। सीजेआई ने अपने 140 पृष्ठ के फैसले में कहा, राज्य संविधान के अनुच्छेद 15 (धर्म, जाति, नस्ल, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव न करना) और 16 (सार्वजनिक रोजगार में अवसर की समानता) के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए सामाजिक पिछड़ेपन की विभिन्न श्रेणियों की पहचान करने और नुकसान की स्थिति में विशेष प्रावधान (जैसे आरक्षण देने) के लिए स्वतंत्र है।
फैसले का क्या होगा असर?
अलग-अलग कैटिगरी में सब- क्लासिफिकेशन कर नए सिरे से रिजर्वेशन का मामला राजनीतिक रूप से शुरू से संवेदनशील रहा है। मौजूदा केंद्र सरकार ने भी OBC कैटिगरी के अंदर सब-कैटिगरी तलाशने के लिए रोहिणी कमिशन बनाई थी। इसकी रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नही हुई है। ऐसे में इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्देश बेहद अहम है, क्योंकि कोर्ट ने अब कहा है कि राज्यों को इस बात की शक्ति है कि वह अपर्याप्त प्रतिनिधित्व का डेटा देखकर सब-क्लासिफिकेशन को रिजर्वेशन दे सकता है। अब SC-ST कैटिगरी में सबग्रुप बनाने के मामले में सरकार बहुत फूंक-फूंक कर कदम उठाएगी।
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