चाहते और न चाहते हुए (व्यंग्य)

By संतोष उत्सुक | Dec 29, 2020

चाह कर भी न कर सकना हर युगीन दुविधा रही है लेकिन परिस्थितियां अब उन्हें सामर्थ्य से ज्यादा करने का मौका दे रही हैं। उन्होंने दूसरों की हड्डियां तोड़ी, कई अपनी भी चटकाई लेकिन चाहकर भी किसी ज़मीन पर स्थापित नहीं हो पाए पर शिकायत भी रही कि अगर उन्हें उचित अवसर मिलता तो वे पता नहीं क्या क्या कर देते। ज़िंदगी के रास्ते अक्सर नए मुसाफिरों की तलाश में रहते हैं। राजनीति के वृक्ष अच्छी तरह से विकसित हो जाएं तो उनकी छाया में सुस्ता रहे कछुओं की सोई हुई किस्मत चुटकी बजाते जाग जाती है और वे वास्तव में खरगोश हो जाते हैं। वैसे तो हर अंतराल में बहुत बंदे बिना काम के काम निबटाते मिल जाते हैं फिर भी उनकी परेशानियां बिना सर्जिकल आपरेशन के खत्म होने का नाम नहीं लेती। समाज में आज भी समानता की खासी ज़रूरत रहती है पहले मिलजुल कर सारे काम निबट जाते थे।

इसे भी पढ़ें: असली मसाले (व्यंग्य)

आपस में उम्दा समझ के कारण दिक्कतें कम होती थी लेकिन जब से राजनीतिक, सामाजिक, धर्म, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय व आर्थिकी आधारित भाईचारा बढ़ा तब से आपसी प्रेम सर्जिकल स्ट्राइक की ज़रूरत भी खूब परवान चढ़ी और बढती ही गई। ज़रूरत के अनुसार सभी ने अपनी अपनी तरह की सर्जिकल स्ट्राइक पद्धति विकसित कर डाली और स्वयंश्रेष्ट हो गए, चाह कर भी यह याद नहीं रहा कि पहले भी बिना किसी द्वेष के हर तरह के मर्ज़ का इलाज होता ही था, जिसमें अनुभव, अभ्यास और सबसे बढ़ कर अच्छी नीयत की महती भूमिका होती थी, जो भी करते थे दिल से करते थे, चाह के साथ करते थे। सुना है पानी से भरे इंजेक्शन में भी असर आ जाता था और यह शिकायत दफ़न रहती थी कि चाह कर भी अच्छा इलाज नहीं करवा सके। अब समय पुन परम्पराओं की तरफ चल पड़ा है तो इससे बढ़िया अच्छा समय क्या हो सकता है। सोए हुए अरमान और काम जाग रहे हैं। बहुत काम ऐसे हैं जो होना चाहते हैं मगर उन्हें चाह कर भी समाज की बेहतरी के लिए नहीं किया जा सकता।

इसे भी पढ़ें: बाबू मोशाय, तुम नहीं समझोगे ! (व्यंग्य)

सेहत की इच्छाओं ने चाहतें बढ़ा दी हैं है लेकिन स्वानुशासन और अनुशासन चाह कर भी काबू में नहीं आना चाहता। देश प्रेम, ईमानदारी और निष्ठा की भरमार होते हुए भी सामाजिक दूरी बढ़ा दी गई है लेकिन शारीरिक दूरी चाह कर भी दो इंच से ज्यादा रखनी मुश्किल हो रही है। पानी की कमी चाह कर भी बार बार हाथ नहीं धोने देती लेकिन विज्ञापन चाहत बहा जाते हैं। मास्क में कहीं सांस न थम जाए इसलिए चाहकर भी नाक को ढक नहीं सकते। कितना चाहा लेकिन लाइन में खड़े होकर काम करवाना अभी तक नहीं आया। विचारों में सर्जिकल स्ट्राइक की ज़रूरत है लेकिन बहुत ज़्यादा चाहते हुए भी व्यवहार में बदलाव नहीं आना चाहता।


- संतोष उत्सुक

प्रमुख खबरें

बिहार से निकलकर दिल्ली की राजनीति में सक्रिय हैं Sanjeev Jha, बुराड़ी से लगातार तीन बार जीत चुके हैं चुनाव

विपक्ष के साथ खड़े हुए भाजपा सांसद, वक्फ बिल पर JPC के लिए मांगा और समय, जगदंबिका पाल का भी आया बयान

राजमहलों को मात देते VIP Camp बढ़ाएंगे Maha Kumbh 2025 की शोभा

सावधान! आपका स्मार्टफोन हो सकता है एक क्लिक में हैक, जानें कैसे बचे?