एक ऐसा स्वतंत्रता सेनानी जिसे एक ही जीवन में ब्रिटिश सरकार से दो बार मिली आजीवन कारावास की सजा। एक कवि जिसने पत्थर के टुकड़ों को कलम बना कर 6000 कविताएं दीवार पर लिख डालीं। एक सामाजिक कार्यकर्ता जिसके सुझाव पर राष्ट्र ध्वज में लगा था धर्म चक्र। क्या है उस राजनेता के अंग्रेजी हुकूमत से माफी मांगने के पीछे की सच्चाई। विनायक दामोदर सावरकर, कुछ के लिए स्वतंत्र वीर सावरकर तो कुछ के लिए सिर्फ सावरकर।
वीर सावरकर के नाम पर देश में एक बार फिर से राजनीतिक महाभारत छिड़ गई है। ये पहला मौका नहीं है इससे पहले कई बार सावरकर के नाम पर राजनैतिक महाभारत से देश दो-चार हो चुका है। दिल्ली के रामलीला मैदान में कांग्रेस की भारत बचाओ रैली में पार्टी के निशाने पर तो मोदी सरकार थी लेकिन हमले के लिए राहुल गांधी ने सावरकर का सहारा लिया। राहुल का अंदाज हमलावर था लोकतंत्र से लेकर अर्थव्यवस्था तक हर मोर्चे पर सरकार पर हमला करते चले गए।
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सावरकर का जिक्र कर राहुल गांधी ने महाराष्ट्र में अपने घटक दल शिवसेना को मुश्किल में डाल दिया।
राहुल ने बीजेपी पर चोट करने के लिए सावरकर के नाम का सहारा लिया तो शिवसेना से उन्हें नसीहत भी दे दी गई। कभी बीजेपी नेताओं पर जमकर बरसने वाले संजय राउत ने राहुल के बयान को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए सावरकर का बलिदान समझने के लिए कांग्रेस नेताओं को राहुल को कुछ किताबें गिफ्ट करने की नसीहत भी दे दी। संजय राउत ने कहा, "हम पंडित नेहरू, महात्मा गांधी को भी मानते हैं, आप वीर सावरकर का अपमान ना करें, बुद्धिमान लोगों को ज्यादा बताने की जरूरत नहीं होती। वीर सावरकर के पोते रंजीत सावरकर ने तो इस मुद्दे पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से मुलाकात करने और राहुल गांधी के खिलाफ मानहानि का केस करने की भी बात कह डाली।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कई महान व्यक्तित्वों ने अपने विचारों और देशभक्ति से स्वतंत्रता की एक नई अलख जगाई। ऐसे ही एक महान विभूति थे विनायक दामोदर सावरकर। जिन्होंने अपने विचार, साहित्य और लेखन से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंक दिया। सावरकर के क्रांतिकारी विचारों से डरकर गोरी हुकूमत ने उन पर न केवल बेइंतहां जुल्म ढाए बल्कि उन्हें काला पानी भेजते हुए दो जन्मों के आजीवन कारावास की सजा भी सुनाई। लेकिन उन सब से बिना डरे सावरकर भारतवासियों के आजादी दिलाने में जुटे रहे। अपने लेखनी औऱ विचारों से देश को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। मई 1970 में इंदिरा गांधी ने सावरकर पर डाक टिकट जारी करते हुए कहा था, ‘हम सावरकर के खिलाफ नहीं हैं। वे जीवन भर जिस हिंदुत्ववादी विचार का समर्थन करते रहे, हम उसके जरूर खिलाफ हैं।’
विनायक दामोदर सावरकर एक क्रांतिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता, चिंतक, लेखक, कवि, वक्ता, राजनेता और दार्शनिक। सावरकर के कई रुप हैं, कुछ लोगों को लुभाते हैं और कुछ लोगों को रास नहीं आते हैं। उनके जीवन को लेकर तमाम तरह के मिथक हैं। कई भ्रांतियां हैं और कई ऐसी बातें भी जो कि शायद सही नहीं भी हैं। उनके विरोधी और उनके समर्थक पूरी तरह सही हों ये भी जरूरी नहीं है। लेकिन हर आदमी की कुछ विशेषताएं होती हैं और कुछ योगदान होते हैं। आज हम आपको बताएंगे उनके राजनीतिक दर्शन के बारे में और साथ ही क्या है उनके विचार और योगदान।
आधुनिक भारत के राजनीतिक विमर्श में जो नाम लगातार चर्चा में रहते हैं, विनायक दामोदर सावरकर उनमें से एक हैं। लोग उनके विचारों के जितने समर्थन में हैं उतने ही विरोध में भी हैं। लेकिन उनके अस्तित्व को आधुनिक विमर्श में नकारा नहीं जा सकता है। स्वतंत्रता आंदोलन धर्म सुधार, सामाजिक विषमताओं और दर्शन के क्षेत्र में उन्होंने काम किया है। उस पर आज के राजनीतिक हालात में चर्चा जरूरी है। सावरकर को लेकर उनके समर्थकों के साथ-साथ विरोधियों में भी कई भ्रांतियां है। उनके राजनीतिक दर्शन में उपयोगितावाद, तर्कवाद, सकारात्मकवाद के अलावा मानवतावाद, सार्वभौमिकता, व्यवहारिकता और यथार्थवाद जैसे बिंदु भी हैं, जिन पर चर्चा कम ही होती है।
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विनायक दामोदर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले में हुआ। 1904 में सावरकर ने अभिनव भारत नाम का एक संगठन बनाया। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में हुए आंदोलन में सक्रिय रहे और इस दौरान कई पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख भी छपे। रूसी क्रांति का उनके जीवन पर गहरा असर हुआ। लंदन में उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इंडिया हाउस की देख रेख किया करते थे। 1907 में इंडिया हाउस में आयोजित 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती कार्यक्रम में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। जुलाई 1909 को मदन लाल डिंगड़ा ने विलियम कर्जन वायली को गोली मार दी। इसके बाद सावरकर ने लंदन टाइम्स में एक लेख लिखा था। 13 मई 1910 को उन्हें गिरफ्तार किया गया। 24 दिसंबर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। 31 जनवरी 1911 को सावरकर को दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। 7 अप्रैल 1911 को उन्हें काला पानी की सजा दी गई। सावरकर 4 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक पोर्टब्लेयर जेल में रहे। अंडमान की जेल में रहते हुए पत्थर के टुकड़ों को कलम बना कर 6000 कविताएं दीवार पर लिखीं और उन्हें कंठस्थ किया। उसके बाद अंग्रेज शासकों ने उनकी याचिका पर विचार करते हुए उन्हें रिहा कर दिया। आजादी तक वो विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक मंचों पर सक्रिय रहे। अंडमान से वापस आने के बाद सावरकर ने एक पुस्तक लिखी 'हिंदुत्व- हू इज हिंदू?' जिसमें उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इस्तेमाल किया। आजादी के बाद उन्हें महात्मा गांधी की हत्या के बाद गिरफ्तार किया गया। इसके बाद 10 नवंबर को आयोजित प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शताब्दी समारोह में वो मुख्य वक्ता रहे। 1959 में पुणे विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट की मानद उपाधि से सम्मानित किया। सितंबर 1965 में सावरकर को बीमारी ने घेर लिया। इसके बाद उन्होंने उपवास करने का फैसला किया। सावरकर ने 26 फरवरी 1966 को अपना शरीर त्याग दिया।
विनायक दामोदर सावरकर न केवल क्रांतिकारी थे बल्कि प्रखर राष्ट्रवाद के समर्थक भी थे। भारतीय राष्ट्रवाद को देखने का सावरकर का अपना नजरिया था। सावरकर के मुताबिक सिर्फ जाति संबंध या पहचान ही राष्ट्रवाद को परिभाषित करने के लिए काफी नहीं है। सावरकर का मानना था कि किसी भी राष्ट्रवाद की पहचान के मुख्य रूप से तीन आधार होते हैं। जिनमें पहला भौगोलिक एकता, दूसरा जातीय गुण और तीसरी साझी संस्कृति है। सावरकर के अनुसार साझी संस्कृति ऐसी हो जो एक भाषा के जरिए सभी को जोड़कर रख सके। इसके लिए सावरकर ने संस्कृत या हिंदी को अपनाने की बात कही। हालांकि उनकी साझा संस्कृति के लिए एक भाषा अपनाने की बात से कई लोग असहमत भी होते हैं। बचपन से ही राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थक विनायक दामोदर सावरकर ने 1904 में अभिनव भारत नाम से एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। जिसका मकसद अंग्रेजों से भारत को आजाद कराना था और जब देश आजाद हो गया तो इसे भंग कर दिया गया। राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित सावरकर ने 1905 में बंगाल विभाजन के बाद स्वदेशी का नारा दिया और पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे में धर्म चक्र लगाने का सुझाव वीर सावरकर ने ही दिया था जिसे तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने मान लिया।
वर्ष 2000 में वाजपेयी सरकार ने तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन के पास सावरकर को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' देने का प्रस्ताव भेजा था, लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया था।
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अत्रे ने पुणे में अपने बालमोहन थिएटर के कार्यक्रम के तहत सावरकर के लिए एक स्वागत कार्यक्रम आयोजित किया। इस कार्यक्रम को लेकर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सावरकर के खिलाफ पर्चे बांटे और धमकी दी कि वे सावरकर को काले झंडे दिखाएंगे। इस विरोध के बावजूद हज़ारों लोग जुटे और सावरकर का स्वागत कार्यक्रम संपन्न हुआ, जिसमें अत्रे ने वो टाइटल दिया, जो आज तक चर्चित है। सावरकर के विरोध में कांग्रेसी कार्यकर्ता कार्यक्रम के बाहर हंगामा कर रहे थे और अत्रे ने कार्यक्रम में अपने भाषण में सावरकर को निडर करार देते हुए कह दिया कि काले झंडों से वो आदमी नहीं डरेगा, जो काला पानी की सज़ा तक से नहीं डरा। इसके साथ ही, अत्रे ने सावरकर की वीर की उपाधि बाद में सिर्फ 'वीर' टाइटल हो गई और सावरकर के नाम के साथ जुड़ गई।
सावरकर के अंग्रजों से माफी मांगने को लेकर कई तरह की बातें हमेशा से उठती रही हैं। लेकिन सावरकर ने अंग्रेजी हुकूमत को जो पत्र लिखे थे वो कोई दया याचिका नहीं थी ये सिर्फ एक याचिका थी। जिस तरह हर राजबंदी को एक वकील करके अपना केस फाइल करनी की छूट होती है उसी तरह सारे राजबंदियों को याचिका देने की छूट दी गई थी। वे एक वकील थे उन्हें पता था कि जेल से छूटने के लिए कानून का किस तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं। सावरकर को 25-25 साल की दो अलग-अलग सजाएं सुनाई गईं तब वो 28 साल के थे। अगर ये जिंदा वहां से लौटते तो 78 साल के हो जाते। इसके बाद क्या होता उनका? देश की आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दे पाते? उनकी मंशा थी कि किसी तरह जेल से छूटकर देश के लिए कुछ किया जाए। सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, "अगर मैंने जेल में हड़ताल की होती तो मुझसे भारत पत्र भेजने का अधिकार छीन लिया जाता।"
वीर सावरकर की मौत के 53 साल बाद आज भी वो बीजेपी और उनसे जुड़े लोगों के दिलों में जीवित हैं जिसकी बानगी महाराष्ट्र की विधानसभा में भी देखने को मिली जब पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के साथ-साथ भजपा के कई विधायक 'मैं भी सावरकर' की टोपी पहनकर विधानसभा के शीतकालीन सत्र में हिस्सा लेने पहुंच गए। बहरहाल, वीर सावरकर ने भारत की आजादी के लिए अपार कुर्बानियों दी। लेकिन इसके बावजूद उन्हें आजाद भारत में वो स्वीकार्यता नहीं मिल पाई जिसके वो हकदार थे। उनकी तमाम कुर्बानियां कथित विचारधाराओं की भेंट चढ़ गईं।
- अभिनय आकाश