भारतीय स्वाधीनता संग्राम के महानायक विनायक दामोदर सावरकर का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के भगूर ग्राम में 28 मई 1883 को हुआ था। विनायक के पिता का नाम दामोदर पन्त तथा माता का नाम राधाबाई था। सावरकर जी चार भाई−बहन थे। वीर सावरकर न केवल स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे अपितु वे एक महान चिंतक, लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी व्यक्तित्व के धनी राजनेता भी थे। सावरकर जी की प्रारम्भिक शिक्षा नासिक में हुई थी। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे तथा उन्होंने बचपन में ही गीता के श्लोक कंठस्थ कर लिए थे। ऐसी प्रखर मेधाशक्ति वाले शिष्य के प्रति शिक्षकों का असीम स्नेह होना स्वाभाविक ही था।
उन दिनों महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक के समाचार पत्र केसरी की भारी धूम थी वे उसे पढ़ते थे जिसके कारण उनके मन में भी क्रांतिकारी विचार आने लग गये। केसरी के लेखों से प्रभावित होकर उन्होंने भी कविताएं तथा लेख आदि लिखने प्रारम्भ कर दिये। सावरकर जी ऐसे पहले भारतीय थे जिन्होंने वकालत की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। लेकिन उन्होंने अंग्रेज सरकार की वफादारी की शपथ लेने से इन्कार कर दिया था, जिसके कारण उन्हें वकालत की उपाधि प्रदान नहीं की गयी।
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सन् 1899 में सावरकर ने "देशभक्तों का मेला" नामक एक दल का गठन किया। जबकि 1900 में उन्होंने "मित्र मेला" नामक संगठन बनाया। 4 वर्ष बाद यही संगठन "अभिनव भारत सोसाइटी" के नाम से सामने आया। इस संगठन का उददेश्य भारत को पूर्ण राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कराना था। इसी बीच सावरकर कानून की पढ़ाई करने के लिए लंदन चले गए। वे जून 1906 में पर्शिया नामक जलपोत से लंदन के लिए रवाना हुए। उन्हें विदाई देने के लिए परिवार के सभी सदस्य मित्र एवं बाल गंगाधर तिलक भी गए थे। लंदन प्रस्थान से पूर्व उन्होंने एक गुप्त सभा में कहा था, "मैं शत्रु के घर जाकर भारतीयों की शक्ति का प्रदर्शन करूंगा।"
लंदन में उनकी भेंट श्याम जी कृष्ण वर्मा से हुई। लंदन का इंडिया हाउस उनकी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। उनकी योजना नये−नये हथियार खरीद कर भारत भेजने की थी ताकि सशस्त्र क्रांति की जा सके। वहां रहने वाले अनेक छात्रों को उन्होंने क्रांति के लिए प्रेरित किया। उक्त हाउस में श्याम जी कृष्ण वर्मा के साथ रहने वालों में भाई परमानंद, लाला हरदयाल, ज्ञानचंद वर्मा, मदन लाल धींगरा जैसे क्रांतिकारी भी थे। उनकी गतिविधियां देखकर ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें 13 मार्च 1990 को गिरफ्तार कर लिया। उन पर भारत में भी मुकदमे चल रहे थे, उन्हें मोरिया नामक पानी के जहाज से भारत लाया जाने लगा। 10 जुलाई 1990 को जब जहाज मोर्सेल्स बंदरगाह पर खड़ा था तो वे शौच के बहाने समुद्र में कूद गये और तैरकर तट पर पहुंच गये। उन्होंने स्वयं को फ्रान्सीसी पुलिसकर्मी के हवाले किया लेकिन तत्कालीन सरकार ने उन्हें फ्रांसीसी सरकार से ले लिया और तब यह मामला हेग न्यायालय पहुंच गया। जहां उन्हें अंग्रेज शासन के विरूद्ध षड़यंत्र रचने तथा शस्त्र भेजने के अपराध में आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई। उनकी सारी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गई।
सावरकर को अंग्रेज न्यायाधीश ने एक अन्य मामले में 30 जनवरी को पुनः आजन्म कारावास की सजा सुनाई। इस प्रकार सावरकर को दो आजन्म कारावासों का दण्ड दे दिया गया। सावरकर को जब अंग्रेज न्यायाधीश ने दो आजन्म कारावासों की सजा सुनाई तो उन्होनें कहा कि, "मुझे बहुत प्रसन्नता है कि ब्रिटिश सरकार ने मुझे दो जीवनों का कारावास दंड देकर पुनर्जन्म हिन्दू सिद्धान्त को मान लिया है।" सावरकर ने ब्रिटिश अभिलेखागारों का अध्ययन करके "1857 का स्वाधीनता संग्राम" नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा। फिर इसे गुप्त रूप से छपने के लिए भारत भेजा गया। ब्रिटिश शासन इस ग्रन्थ के लेखन एवं प्रकाशन की सूचना मात्र से ही कांप उठा। तब प्रकाशक ने इसे गुप्त रूप से पेरिस भेजा। वहां भी अंग्रेज सरकार ने इस ग्रन्थ का प्रकाशन नहीं होने दिया, अन्ततः इसका प्रकाशन 1909 में हालैण्ड से हुआ। यह आज भी 1857 के स्वाीधनाता संग्राम का सबसे विश्वसनीय ग्रन्थ है।
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1911 में उन्हें एक और आजन्म कारावास की सजा सुनाकर कालापानी भेज दिया गया। इस प्रकार उन्हें दो जन्मों का कारावास मिला। वहां उनके बड़े भाई गणेश सावरकर भी बंद थे। जेल में इन पर घोर अत्याचार किए गए गए जो कि एक क्रूर इतिहास बन गया। कोल्हू में जुतकर तेल निकालना, नारियल कूटना, कोड़ों की मार, भूखे−प्यासे रखना आदि। सावरकर जी ने जेल में दी गई यातनाओं का वर्णन अपनी पुस्तक "मेरा आजीवन कारावास" में किया है। कुछ समय बाद उन्हें अंडमान भेज दिया गया। वहां की काल कोठरी में उन्होंने कविताएं लिखीं। उन्होंने मृत्यु को संबोधित करते हुए जो कविता लिखी वह अत्यंत मार्मिक व देशभक्ति से परिपूर्ण थी।
1921 में उन्हें अंडमान से रत्नागिरि जेल में भेज दिया गया। 1937 में वहां से भी मुक्त कर दिये गये। परन्तु वे सुभाष चंद्र बोस के साथ मिलकर योजना में लगे रहे। 1947 में उन्हें स्वतंत्रता के बाद गांधी जी की हत्या के मुकदमे में झूठा फंसाया गया, लेकिन वे निर्दोष सिद्ध हुए। ऐसे वीर क्रांतिकारी सावरकर का स्वास्थ्य तेजी से बिगड़ने लगा और 26 फरवरी 1966 को उन्होंने अपनी देह का त्याग किया।
-मृत्युंजय दीक्षित