By Ritika Kamthan | Dec 26, 2024
वीर बाल दिवस हर वर्ष 26 दिसंबर को देश भर में मनाया जाता है। सिख धर्म के 10वें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों को सम्मानित करने के लिए इस दिन को मनाया जाता है। ये दो साहिबजादे थे जोरावर सिंह और फतेह सिंह, जिन्होंने कम उम्र में ही अपने प्राणों की आहूति धर्म और मानवता के लिए दे दी थी। इनके सम्मान में ही 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस मनाया जाता है। इस दिन की बेहद अहम खासियत है।
वीर बाल दिवस की कहानी
सिख धर्म के 10वें गुरु श्री गोबिंद सिंह जी ने 1699 में बैसाखी के दिन ही खालसा पंथ की नींव रखी थी। श्री गोबिंद सिंह जी के चार बेटे थे, अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह। ये सभी खालसा पंथ का हिस्सा थे। ये वो समय था जब पंजाब में मुगल शासन करते थे। वर्ष 1705 में मुगलों ने गुरु गोबिंद सिंह जी को पकड़ने पर जोर दिया था। यही कारण था कि उन्हें परिवार से भी दूर जाना पड़ा था। गुरु गोबिंद सिंह जी की पत्नी माता गुजरी देवी और उनके दो छोटे पुत्र जोरावर सिंह और फतेह सिंह और रसोइए गंगू के साथ के ऐसे स्थान पर छिपी थी जिसकी जानकारी नहीं थी।
मुगलों से लिया लोहा
लालच के कारण उनका रसोइया गंगू अंधा हो गया था। उसने लालच में आकर मुगलों से सुलह की। उसने माता गुजरी और उनके पुत्रों को मुगलों को पकड़वाया। मुगलों ने इन तीनों पर ही भयंकर अत्याचार किए। उन्हें उनका धर्म परिवर्तन करने के लिए मजबूर किया। धर्म परिवर्तन करने से तीनों ने इंकार किया। बता दें कि इस समय तक गुरु गोबिंद सिंह जी के दो बड़े पुत्र शहीद हो चुके थे, जो मुगलों के खिलाफ लोहा ले रहे थे। मुगलों ने दोनों छोटे साहिबजादों के मजबूत इरादों को देखते हुए 26 दिसंबर के दिन बाबा जोरावर साहिब और बाबा फतेह साहिब को जिंदा दीवार में चुनवाया था। जैसे ही माता गुजरी को दोनों साहिबजादों के शहादत की जानकारी मिली, उन्होंने भी अपने प्राण त्याग दिए।
बता दें कि गुरु गोबिंद सिंह जी के पुत्रों द्वारा दी गई शहादत को याद करने और सम्मान करने के लिए भारत सरकार ने वर्ष 2022 से इस दिन को मनाने की शुरुआत की है। इसके बाद से ही हर वर्ष 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस मनाया जाता है। इस दिन देश के स्कूलों, कॉलेजों में खास कार्यक्रमों का आयोजन होता है।
इसलिए मनाते हैं ये दिन
बता दें कि वीर बाल दिवस का दिन साहस और बलिदान का प्रतीक माना जाता है। जोरावर सिंह और फतेह सिंह के साहस और बलिदान की याद इस दिन से आती है। इन्होंने मुगल शासकों के अत्याचार का सामना किया। धर्म नहीं बदला और धर्म की रक्षा करते हुए अपने प्राण त्याग दिए।
इन दोनों ने अपनी जान की बाजी लगाई। इनकी निष्ठा से धर्म के लिए सर्वोत्तम त्याग का परिचय देखने को मिला। दोनों ने साबित किया कि धर्म रस्मों से ही नहीं है ये जीवन का अंग है। बता दें कि जब दोनों साहिबजादों की शहादत हुई तो साहिबजादे जोरावर सिंह की उम्र 9 वर्ष और फतेह सिंह की 6 वर्ष थी। इनके इस त्याग के बाद इनका नाम इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों से लिखा गया।