भारत रत्न से सम्मानित शहनाई के पर्याय थे उस्ताद बिस्मिल्लाह खान

By अमृता गोस्वामी | Aug 21, 2020

शहनाई की बात हो और उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का नाम जुबान पर न आए असंभव सी बात है, एक तरह से शहनाई का पर्याय कहा जाता है उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को। दूरदर्शन और आकाशवाणी की सिग्नेचर ट्यून जो बरसों से हम सभी को विस्मित करती रही है, बिस्मिल्लाह खान की शहनाई की ही आवाज है। यह बिस्मिल्लाह खान की शहनाई का जादू ही है कि वह जब भी जहां भी सुनाई देती है सुनने वालों का मन दुनिया से हटकर बस और बस उनकी बजाई मधुर स्वर लहरियों में खोने को करता हैा।


उस्ताद बिस्मिल्लाह खान जन्म 21 मार्च 1916 को बिहार के डुमरांव में एक मुस्लिम परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम कमरुद्दीन था। कहा जाता है कि जब कमरूद्दीन पैदा हुए उन्हें देखकर उनके दादा के मुंह से निकला था ‘बिस्मिल्लाह’ और उसके बाद कमरूद्दीन को इसी नाम से पुकारा जाने लगा, आगे चलकर वे इसी नाम से प्रसिद्ध हुए।

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संगीत बिस्मिल्लाह खान को विरासत में मिला था, उनके पिता पैगम्बर खान बिहार की डुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबार में शहनाई वादक थे। पिता की इच्छा बिस्मिल्लाह खान को भी शहनाई वादक बनाने की थी। 6 साल की उम्र में बिस्मिल्लाह खान को उनके पिता अपने साथ बनारस (वाराणसी) लेकर गए, जहां गंगा तट पर उनकी संगीत शिक्षा शुरू हुई। काशी विश्वनाथ मंदिर के अधिकृत शहनाई वादक अली बख्श ‘विलायती’ से उन्होंने शहनाई बजाना सीखा। 


महज 14 साल की उम्र में बिस्मिल्लाह खान ने इलाहाबाद के संगीत परिषद् में पहली बार शहनाई बजाने का कार्यक्रम किया जिसे बेहद पसंद किया गया। जिसके बाद शहनाई वादक के तौर पर शुरू हुए उनके सफर में कहीं विराम नहीं आया और लगातार सफलता हासिल करते हुए वह 1956 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से लेकर 1961 में पद्मश्री, 1968 में पद्मभूषण, 1980 में पद्मविभूषण और तानसेन पुरस्कार सहित 2001 मे भारत के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से भी सम्मानित किए गए। 


21 अगस्त 2006 को 90 साल की उम्र में वाराणसी के हेरिटेज अस्पताल में दिल का दौरा पड़ने से उस्ताद बिस्मिल्लाह का निधन हो गया, आज भले ही वह इस दुनिया नहीं हैं किन्तु आज भी संगीत की दुनिया में उनकी शहनाई की मधुर गूंज हमारे बीच मौजूद हैं।

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आज 21 अगस्त उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की पुण्य तिथि पर आइए जानते हैं उनके जीवन से जुड़ी खास बातें-


15 अगस्त 1947 को आजादी की पूर्व संध्या पर स्वयं जवाहर लाल नेहरू ने उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को शहनाई वादन के लिए आमंत्रित किया था। इस मौके पर बिस्मिल्लाह खान ने शहनाई से भारतीय स्वतंत्रता की खुशी का वो रंग जमाया कि तब से लगातार लगभग हर स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई का कार्यक्रम रखा जाने लगा। 

 

बिस्मिल्लाह खान की बजाई शहनाई की मधुर स्वर लहरियों ने सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों अफगानिस्तान, यूरोप, ईरान, इराक, कनाडा, पश्चिम अफ्रीका, अमेरिका, जापान, हांगकांग सहित विश्व भर के लगभग सभी देशों में श्रोताओं का मन जीता। 

 

बिस्मिल्लाह खान ने शास्त्रीय संगीत पर आधारित रागों के साथ ही शहनाई पर कई फिल्मी गीतों की धुन भी बजाईं... फिल्म ‘उड़न खटोला’ का गीत हमारे दिल से न जाना, धोखा न खाना... उनका पसंदीदा गीत था जिसे वे जब भी अच्छे मूड में होते बजाया करते थे। 


बिस्मिल्लाह खान ने करीब 70 साल तक संगीत की दुनिया पर राज किया। कुछ फिल्मों डॉक्टर राजकुमार की फिल्म ‘सानादी अपन्ना’, सत्यजीत रे की फिल्म ‘जलसागर’ और 1959 में विजय भट्ट के निर्देशन में बनी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ में भी उन्होंने संगीत दिया। 

 

बिस्मिल्लाह खान को दिखावा कभी रास न आया, अपार प्रसिद्धि के बाद भी वे साधारण कपड़ों में ही रिक्शा से भी बाहर घूम आया करते थे। 

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अमेरिका में एक बार उस्ताद बिस्मिल्ला खान का शहनाई वादन का कार्यक्रम था, विदेशियों ने उनकी बजाई शहनाई की मिठास से अभिभूत होकर उनसे कहा की आप यहां क्यों नहीं रुक जाते। बिस्मिल्ला खान ने जवाब दिया- जनाब, रुक तो जाता लेकिन अमेरिका में गंगा कहां से लाओगे।


बिस्मिल्लाह खान की एक ख्वाहिश जो पूरी नहीं हो सकी वह थी दिल्ली के इंडिया गेट पर शहनाई बजाने की, लेकिन यह न हो सका, इससे पहले ही 21 अगस्त 2006 को वे दुनिया को अलविदा कह गए।


- अमृता गोस्वामी

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