Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-2

By आरएन तिवारी | Mar 01, 2024

आइए! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें।


पिछले अंक में हमने पढ़ा कि महाराज धृतराष्ट्र का हृदय अत्यंत व्यथित है। वे शोक और चिंता की अग्नि में जल रहे हैं। अपने हृदय में दहकती हुई चिंताग्नि को शीतल करने के लिए कुशल नीतिज्ञ विदुर जी को बुलाते हैं और रात में चिंता के कारण ठीक से नींद न आने का कारण पूछते हैं। 


विदुर जी कहते हैं, हे राजन 

पहला व्यक्ति वह है जिसकी दुश्मनी किसी बलवान व्यक्ति से हो गई हो। दूसरा वह है जिसका सब कुछ लूट लिया गया हो, तीसरा वह है जो काम वासना में संलिप्त हो और चौथा वह है जिसने चोर की भांति दूसरे की संपत्ति हड़प ली है। इन चारों को रात में जगने का रोग लग जाता है। इसलिए इन चार बातों से हमेशा दूर रहना चाहिए।

इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: कथा के जरिये विदुर नीति को समझिये, भाग-1

आइए ! चलते हैं विदुर नीति के अगले प्रसंग में।


कच्चिदेतैर्महादोषैर्न स्पृष्टोऽसि नराधिप ।

कच्चिन्न परवित्तेषु गृध्यन्विपरितप्यसे ॥ 


विदुर जी कहते हैं— 

हे नरेन्द्र ! कहीं आपका भी इन महान दोषों से सम्पर्क तो नहीं हो गया है? कहीं पराये धन के लोभ से तो आप कष्ट नहीं पा रहे हैं ? 


धृतराष्ट्र उवाच ।


श्रोतुमिच्छामि ते धर्म्यं परं नैःश्रेयसं वचः ।

अस्मिन्राजर्षिवंशे हि त्वमेकः प्राज्ञसंमतः ॥

 

धृतराष्ट्रने कहा- मैं तुम्हारे धर्मयुक्त तथा कल्याण करने वाले सुन्दर वचन सुनना चाहता हूँ, क्योंकि इस राज वंश में केवल तुम्हीं विद्वानों के भी माननीय हो।।

 

विदुर उवाच।


रजा लक्षणसंपन्नस्त्रैलोक्यस्याधिपो भवेत् ।

प्रेष्यस्ते प्रेषितश्चैव धृतराष्ट्र युधिष्ठिरः ॥ 


विदुरजी बोले- महाराज धृतराष्ट्र ! श्रेष्ठ लक्षणों से सम्पन्न राजा युधिष्ठिर तीनों लोकों के स्वामी होने का सामर्थ्य रखते थे, वे आपके आज्ञाकारी भी थे, पर बिना सोचे बिचारे आपने उन्हें वन में भेज दिया॥ 


विपरीततरश्च त्वं भागधेये न संमतः ।

अर्चिषां प्रक्षयाच्चैव धर्मात्मा धर्मकोविदः ॥ 


आप धर्मात्मा और धर्म के जानकार होते हुए भी आँखों से अन्धे होने के कारण उन्हें पहचान न सके, उनके अत्यन्त विपरीत हो गये और उन्हें राज्य का भाग देने से इन्कार कर दिया। 


आनृशंस्यादनुक्रोशाद्धर्मात्सत्यात्पराक्रमात् ।

गुरुत्वात्त्वयि संप्रेक्ष्य बहून्क्लेषांस्तितिक्षते ॥ 


युधिष्ठिर में क्रूरता का अभाव, दया, धर्म, सत्य तथा पराक्रम है; वे आप में पूज्यबुद्धि रखते हैं। इन्हीं सद्गुणों के कारण वे सोच-विचारकर चुपचाप आपके द्वारा दिए गए सारे क्लेश सहते रहे।  


दुर्योधने सौबले च कर्णे दुःशासने तथा ।

एतेष्वैश्वर्यमाधाय कथं त्वं भूतिमिच्छसि ॥ 


आप दुर्योधन, शकुनि, कर्ण तथा दुःशासन-जैसे अयोग्य व्यक्तियों पर राज्य का कार्य भार सौंपकर कैसे ऐश्वर्य की वृद्धि और चैन की नींद सोना चाहते हैं यह कतई संभव नहीं है।  


आत्मज्ञानं समारंभस्तितिक्षा धर्मनित्यता ।

यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पंडित तदुच्यते ॥ 


जो व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप और ज्ञान को समझता है, उद्योगी है, जिसमें दुःख सहने की शक्ति और धर्म में स्थिर है ये गुण जिस मनुष्य में हैं, वही ज्ञानी अथवा पण्डित कहलाता है॥

 

निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते ।

अनास्तिकः श्रद्दधान एतत्पण्डित लक्षणम् ॥ 


जो अच्छे कर्मो का सेवन करता और बुरे कर्मों से दूर रहता है , साथ ही जो आस्तिक और श्रद्धालु है, उसके वे सद्गुण पण्डित होने के लक्षण हैं॥ 


क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च ह्रीस्तम्भो मान्यमानिता ।

यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥ 


जो मनुष्य अपने क्रोध, हर्ष, गर्व, लज्जा, तथा अपने पूज्य भाव के कारण अपने  धर्म, कर्म और पुरुषार्थ से भ्रष्ट नहीं होता, वही पण्डित कहलाता है ॥ 


यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे ।

कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥ 


दूसरे लोग जिसके कर्तव्य, सलाह और पहले से किये हुए विचार को नहीं जान पाते, बल्कि काम पूरा होने पर ही जानते हैं, वही बुद्धिमान और पण्डित कहलाता है॥ 


यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।

समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥ 


सर्दी-गर्मी, भय-अनुराग, सम्पत्ति अथवा दरिद्रता ये छह भाव, जिसके कार्य में विघ्न नहीं डालते वही पण्डित कहलाता है ॥ 


यस्य संसारिणी प्रज्ञा धर्मार्थावनुवर्तते ।

कामादर्थं वृणीते यः स वै पण्डित उच्यते ॥ 


जिसकी लौकिक बुद्धि धर्म और अर्थका ही अनुसरण करती है और जो भोग को छोड़कर पुरुषार्थ का ही चयन करता है वही पण्डित कहलाता है।। 


शेष अगले प्रसंग में ------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । 


- आरएन तिवारी

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