मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें।
प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं –
विदुर जी महाराज अपनी जीवनोपयोगी नीतियों से महाराज धृतराष्ट्र की मलिन बुद्धि को संस्कारित करना चाहते है, वे कहते हैं --- हे महाराज ! हमें अपनी इंद्रियों को वश में रखने की कोशिश करनी चाहिए। इंद्रियों के वश में होकर मनुष्य एक बढ़कर एक अनुचित कार्य करने लगता है।
विदुरजी की सारगर्भित बातें सुनकर महाराज धृतराष्ट्र मन ही मन अति प्रसन्न हुए और उन्होने इस संबंध में और जानने की इच्छा प्रकट की। इसी संदर्भ में विदुरजी ने सुधन्वा, प्रह्लाद कुमार विरोचन और केशिनी का दृष्टांत दिया।
सुधन्वोवाच ।
नगरे प्रतिरुद्धः सन्बहिर्द्वारे बुभुक्षितः ।
अमित्रान्भूयसः पश्यन्दुर्विवक्ता स्म तां वसेत् ॥
सुधन्वा ने समझते हुए कहा-
जो राजा झूठा निर्णय देता है, वह नगर में कैद होकर बाहर के दरवाजे पर भूख से तड़पता हुआ अत्यंत कष्ट उठाता है और अपने बहुत-से शत्रुओं के द्वारा हमेशा घिरा रहता है।
पञ्च पश्वनृते हन्ति दश हन्ति गवानृते ।
शतमश्वानृते हन्ति सहस्रं पुरुषानृते ॥
जो मनुष्य पशु के लिये झूठ बोलता है उसकी पाँच पीढ़ी, जो गौ के लिये झूठ बोलता है उसकी दस पीढ़ी, जो घोड़े के लिये असत्य भाषण करता है उसकी सौ पीढ़ी और जो मनुष्य के लिये झूठ बोलता है उसकी एक हज़ार पीढ़ी नरक में जाती है।
हन्ति जातानजातांश्च हिरण्यार्थोऽनृतं वदन् ।
सर्वं भूम्यनृते हन्ति मा स्म भूम्यनृतं वदीः ॥
स्वर्ण के लिये झूठ बोलने वाला भूत और भविष्य अपनी सभी पीढ़ियों को नरक में गिराता है, पृथ्वी तथा स्त्री के लिये झूठ बोलने वाला अपना सर्वनाश कर बैठता है। इसलिये हमें भूमि या स्त्री प्राप्त करने के लिये असत्य भाषण से बचना चाहिए।
प्रह्लाद उवाच ।
मत्तः श्रेयानङ्गिरा वै सुधन्वा त्वद्विरोचन ।
मातास्य श्रेयसी मातुस्तस्मात्त्वं तेन वै जितः ॥
प्रह्लाद ने कहा- हे विरोचन ! सुधन्बा के पिता अङ्गिरा मुझसे श्रेष्ठ हैं, सुधन्वा तुमसे श्रष्ठ है, इसकी माता भी तुम्हारी माता से श्रेष्ठ है, अतः तुम आज सुधन्वा से हार गये।।
सुधन्वोवाच ---
यद्धर्ममवृणीथास्त्वं न कामादनृतं वदीः ।
पुनर्ददामि ते तस्मात्पुत्रं प्रह्राद दुर्लभम् ॥ ३७ ॥
सुधन्वा ने कहा -- प्रहलाद ! तुमने धर्म को ही स्वीकार किया है, स्वार्थवश झूठ नहीं बोला है; इसलिये मैं तुम्हारे इस दुर्लभ पुत्र को फिर तुम्हें दे रहा हूँ।
एष प्रह्राद पुत्रस्ते मया दत्तो विरोचनः ।
पादप्रक्षालनं कुर्यात्कुमार्याः संनिधौ मम ॥
प्रह्लाद ! तुम्हारे इस पुत्र विरोचन को मैने पुनः तुम्हें दे दिया है किन्तु अब यह कुमारी केशिनी के पास चलकर मेरा पैर धोवे ।।
विदुर उवाच
तस्माद्राजेन्द्र भूम्यर्थे नानृतं वक्तुमर्हसि ।
मा गमः स सुतामात्योऽत्ययं पुत्राननुभ्रमन् ॥
अब सुधन्वा, प्रह्लाद कुमार विरोचन और केशिनी का दृष्टांत देने के बाद विदुर जी कहते हैं- इसलिये हे राजेन्द्र ! आप पृथ्वी के लिये झूठ न बोलें। अपने बेटे के स्वार्थ के वश में होकर झूठ बोलकर अपने पुत्र और मन्त्रियों के साथ विनाश के मुख में न जायेँ ॥
न देवा यष्टिमादाय रक्षन्ति पशुपालवत् ।
यं तु रक्षितुमिच्छन्ति बुद्ध्या संविभजन्ति तम् ॥
देवता लोग चरवाहों की तरह डण्डा लेकर पहरा नहीं देते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसे उत्तम बुद्धि दे देते हैं।
यथा यथा हि पुरुषः कल्याणे कुरुते मनः ।
तथा तथास्य सर्वार्थाः सिध्यन्ते नात्र संशयः ॥
मनुष्य जैसे-जैसे कल्याण में अपना मन लगाता है, वैसे-वैसे उसके सारे अभीष्ट सिद्ध होते जाते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
न छन्दांसि वृजिनात्तारयन्ति आयाविनं मायया वर्तमानम् ।
नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाश् छन्दांस्येनं प्रजहत्यन्तकाले ॥
कपटपूर्ण व्यवहार करने वाले मायावी व्यक्ति को हमारे वेद पुराण पापों से मुक्त नहीं करते हैं। जैसे पंख निकल आने पर चिड़ियों के बच्चे घोंसला छोड़ देते हैं, उसी प्रकार वेद भी अन्त काल में उस पापी को त्याग देते हैं ॥
मत्तापानं कलहं पूगवैरं भार्यापत्योरन्तरं ज्ञातिभेदम् ।
राजद्विष्टं स्त्रीपुमांसोर्विवादं वर्ज्यान्याहुर्यश्च पन्थाः प्रदुष्ठः ॥
शराब पीना, कलह, समूह के साथ वैर, पति-पत्नी में भेद पैदा करना, कुटुम्ब वालों में भेदबुद्धि उत्पन्न करना, राजा के साथ द्वेष, स्त्री और पुरुष में विवाद और बुरे रास्ते ये सब त्याग देने योग्य बताये गए हैं।
सामुद्रिकं वणिजं चोरपूर्वं शलाक धूर्तं च चिकित्सकं च ।
अरिं च मित्रं च कुशीलवं च नैतान्साख्येष्वधिकुर्वीत सप्त ॥
हस्तरेखा देखने वाला, चोरी करके व्यापार करने वाला, जुआरी, वैद्य, शत्रु, मित्र, और नर्तक- इन सातों को कभी भी गवाह नहीं बनाना चाहिए।
मानाग्निहोत्रमुत मानमौनं मानेनाधीतमुत मानयज्ञः ।
एतानि चत्वार्यभयङ्कराणि भयं प्रयच्छन्त्ययथा कृतानि ॥ ४५ ॥
आदर के साथ अग्निहोत्र, आदरपूर्वक मौन का पालन, आदरपूर्वक स्वाध्याय और आदर के साथ यज्ञ का अनुष्ठान, ये चार कर्म भय को दूर करने वाले हैं, किंतु वे यदि ठीक तरह से सम्पादित न हों तो भय प्रदान- करने वाले होते हैं।
शेष अगले प्रसंग में ------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
- आरएन तिवारी