मित्रो ! आज-कल हम लोग विदुर नीति के माध्यम से महात्मा विदुर के अनमोल वचन पढ़ रहे हैं, तो आइए ! महात्मा विदुर जी की नीतियों को पढ़कर कुशल नेतृत्व और अपने जीवन के कुछ अन्य गुणो को निखारें और अपना मानव जीवन धन्य करें ।
प्रस्तुत प्रसंग में विदुर जी ने हमारे जीवनोपयोगी बिन्दुओं पर बड़ी बारीकी से अपनी राय व्यक्त की है। आइए ! देखते हैं –
विदुर जी महाराज अपनी जीवनोपयोगी नीतियों से महाराज धृतराष्ट्र की मलिन बुद्धि को संस्कारित करना चाहते है, वे कहते हैं --- हे महाराज ! हमें अपनी इंद्रियों को वश में रखने की कोशिश करनी चाहिए। इंद्रियों के वश में होकर मनुष्य एक बढ़कर एक अनुचित कार्य करने लगता है।
विदुरजी की सारगर्भित बातें सुनकर महाराज धृतराष्ट्र मन ही मन अति प्रसन्न हुए और उन्होने इस संबंध में और जानने की इच्छा प्रकट की। इसी संदर्भ में विदुरजी ने सुधन्वा, प्रह्लाद कुमार विरोचन और केशिनी का दृष्टांत दिया।
विरोचन उवाच ।
हिरण्यं च गवाश्वं च यद्वित्तमसुरेषु नः ।
सुधन्वन्विपणे तेन प्रश्नं पृच्छाव ये विदुः ॥ १८ ॥
विरोचन ने कहा--- हे सुधन्वन् ! हम असुरों के पास जो कुछ भी सोना, गौ, घोड़ा आदि धन है, उसकी मैं बाजी लगाता हूँ, हम-तुम दोनों चलकर जो इस विषय के जानकार हों, उनसे पूछे कि हम दोनों मे कौन श्रेष्ठ है ?
सुधन्वोवाच ।
हिरण्यं च गवाश्वं च तवैवास्तु विरोचन ।
प्राणयोस्तु पणं कृत्वा प्रश्नं पृच्छाव ये विदुः ॥
सुधन्वा ने कहा--- विरोचन ! सुवर्ण, गाय और घोड़ा तुम्हारे ही पास रहें, हम दोनों प्राणों की बाजी लगाकर जो जानकार हो, उनसे पूछे
विरोचन उवाच ।
आवां कुत्र गमिष्यावः प्राणयोर्विपणे कृते ।
न हि देवेष्वहं स्थाता न मनुष्येषु कर्हि चित् ॥
विरोचन ने कहा- अच्छा, प्राणों की बाजी लगाने के पश्चात् हम दोनों कहाँ चलेंगे ? मैं न तो देवताओं के पास जा सकता हूँ और न कभी मनुष्यों से ही निर्णय करा सकता हूँ।।
सुधन्वोवाच
पितरं ते गमिष्यावः प्राणयोर्विपणे कृते ।
पुत्रस्यापि स हेतोर्हि प्रह्रादो नानृतं वदेत् ॥
प्राणों की बाजी लग जाने पर हम दोनों तुम्हारे पिताके पास चलेंगे। [मुझे विश्वास है कि] प्रह्लाद अपने बेटे के लिये भी झूठ नहीं बील सकते हैं ॥
विदुर उवाच
एवं कृतपणौ क्रुद्धौ तत्राभिजग्मतुस्तदा ।
विरोचनसुधन्वानौ प्रहादो यत्र तिष्ठति ॥
विदुर जी कहते हैं- इस तरह बाजी लगाकर परस्पर क्रुद्ध हो विरोचन और सुधन्वा दोनों उस समय वहाँ गये, जहाँ प्रह्लादजी थे ॥
प्रह्लाद उवाच ।
इमौ तौ सम्प्रदृश्येते याभ्यां न चरितं सह ।
आशीविषाविव क्रुद्धावेकमार्गमिहागतौ ॥
प्रहाद ने (मन-ही-मन) कहा- जो कभी भी एक साथ नहीं चले थे, वे दोनों सुधन्वा और विरोचन आज साँप की तरह क्रुद्ध होकर एक ही राह से आते कैसे दिखाई देते हैं ।
किं वै सहैव चरतो न पुरा चरतः सह ।
विरोचनैतत्पृच्छामि किं ते सख्यं सुधन्वना ॥
[ फिर विरोचन से कहा- ] विरोचन ! मैं तुमसे पूछता हूँ, क्या सुधन्वा के साथ तुम्हारी मित्रता हो गयी है ? फिर कैसे एक साथ आ रहे हो ? पहले तो तुम दोनों कभी एक साथ कहीं नहीं आते-जाते थे।
न मे सुधन्वना सख्यं प्राणयोर्विपणावहे ।
प्रह्राद तत्त्वामृप्च्छामि मा प्रश्नमनृतं वदीः ॥
विरोचन बोला- पिताजी ! सुधन्वा के साथ मेरी मित्रता नहीं हुई है। हम दोनों प्राणों की बाजी लगाये आ रहे हैं। मैं आपसे यथार्थ बात पूछता हूँ। मेरे प्रश्न का सही उत्तर दीजियेगा ॥
प्रह्लाद उवाच।
उदकं मधुपर्कं चाप्यानयन्तु सुधन्वने ।
ब्रह्मन्नभ्यर्चनीयोऽसि श्वेता गौः पीवरी कृता ॥ २६ ॥
प्रहलाद ने कहा- सेवको ! सुधन्वा के लिये जल और मधुपर्क लाओ। [फिर सुधन्वासे कहा—] ब्रह्मन् ! तुम मेरे पूजनीय अतिथि हो, मैंने तुम्हारे लिये सफेद गौ खूब मोटी-ताजी कर रखी है ॥
सुधन्वोवाच ।
उदकं मधुपर्कं च पथ एवार्पितं मम ।
प्रह्राद त्वं तु नौ प्रश्नं तथ्यं प्रब्रूहि पृच्छतोः ॥
सुधन्वा ने कहा --- प्रह्लाद ! जल और मधुपर्क तो मुझे मार्ग में ही मिल गया है। तुम तो जो मैं पूछ रहा हूँ, उस प्रश्र का ठीक-ठीक उत्तर दो। क्या मैं ब्राह्मण श्रेष्ठ हूँ या विरोचन ? ॥
प्रह्लाद उवाच ।
पुर्तो वान्यो भवान्ब्रह्मन्साक्ष्ये चैव भवेत्स्थितः ।
तयोर्विवदतोः प्रश्नं कथमस्मद्विभो वदेत् ॥
प्रह्लाद बोले- हे ब्राह्मण पुत्र सुधन्वन ! विरोचन मेरा पुत्र ही है और इधर तुम स्वयं उपस्थित हो; भला तुम दोनों के विवाद में मेरे-जैसा मनुष्य कैसे निर्णय दे सकता है ? ॥
सुधन्वोवाच—
गां प्रदद्यास्त्वौरसाय यद्वान्यत् स्यात् प्रियं धनम् ।
द्वयोर्विवदतोस्तथ्यं वाच्यं च मतिमंस्त्वया ॥
सुधन्वा बोला- हे मतिमन् ! तुम्हारे पास गौ तथा दूसरा जो कुछ भी प्रिय धन हो, वह सब अपने औरस पुत्र विरोचनको दे दो; परंतु हम दोनो के विवाद में तो तुम्हें ठीक-ठीक उत्तर देना ही चाहिये ॥
प्रह्लाद उवाच
अथ यो नैव प्रब्रूयात्सत्यं वा यदि वानृतम् ।
एतत्सुधन्वन्पृच्छामि दुर्विवक्ता स्म किं वसेत् ॥ ३० ॥
प्रह्वाद ने कहा- सुधन्व !
अब मैं तुमसे यह बात पूछता हूँ, जो सत्य न बोले अथवा असत्य निर्णय करे, ऐसे दुष्ट वक्ता की क्या स्थिति होती है ?
सुधन्वोवाच ।
यां रात्रिमधिविन्ना स्त्री यां चैवाक्ष पराजितः ।
यां च भाराभितप्ताङ्गो दुर्विवक्ता स्म तां वसेत् ॥
सुधन्वा ने कहा- सौतवाली स्त्री, जूए में हारे हुए जुआरी और भार ढोने से व्यथित शरीर वाले मनुष्य की रात में जो स्थिति होती है, वही स्थिति उलटा न्याय देने वाले वक्ता की भी होती है ॥
शेष अगले प्रसंग में ------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।
- आरएन तिवारी