जाति आधारित जनगणना से जुड़े 8 सवालों को आसान भाषा में समझें
By अभिनय आकाश | Mar 07, 2020
किसी भी विकासशील देश की उन्नति तभी रफ्तार पकड़ती है जब उस देश में रह रहे लोग आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत हों। इसके लिए सरकार नई नीतियां और योजनाएं बनाती रही है। लेकिन कई बार ये योजनाएं और नीतियां विफल साबित हुई हैं। इस बारे में कई लोगों का मानना है कि सरकार के पास जनगणना के सही आंकड़े नहीं हैं या फिर जनगणना सही तरीके के नहीं की गई। अगले कुछ दिनों में जब देश में जनगणना प्रक्रिया शुरू होने जा रही है तो जातीय आधार पर जनगणना की मांग ने भी जोर पकड़ लिया है। यूपी विधानसभा में पिछले दिनों यह मुद्दा शिद्दत के साथ उठा। बिहार विधानसभा में जहां जेडीयू-बीजेपी की साझा सरकार है, वहां तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जातिगत जनगणना कराने का प्रस्ताव पास कराकर केंद्र को भेज दिया है। महाराष्ट्र में भी शिवसेना के नेतृत्व वाली महागठबंधन सरकार विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर जातिगत जनगणना के समर्थन में प्रस्ताव पास कर चुकी है और इसी तरह कई दूसरे राज्यों से भी आवाज मुखर होने लगी है। वैसे यह पहला मौका नहीं है जब जातिगत जनगणना की मांग उठी है। यह मांग पिछले तमाम सालों से उठती रही है। आज जातिय आधारित जनगणना से जुड़े पांच सवालों के जवाब तलाशेंगे और आसान भाषा में इसका निचोड़ बताएंगे। जाति आधारित जनगणना की मांग क्यों उठी है, कब हुई थी आखरी बार जाति आधारित जनगणना, जाति आधारित जनगणना न कराने से क्या नुकसान, क्या जाति आधारित जनगणना सिर्फ ओबीसी जनगणना है? इन सारे सवालों की सिलसिलेवार ढंग से व्याख्या करते हैं। सबसे पहले आपको जनगणना के बारे में दो लाइनों में बता देते हैं।
- भारत में जनगणना एक पुरानी सरकारी कवायद है।
- हर दस साल पर फरवरी महीने में 1 से 20 तारीख के बीच सरकारी शिक्षक घर-घर जाते हैं और देश के हर आदमी को गिन लेते हैं और उनके बारे में जानकारियां इकट्ठा कर लेते हैं।
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अब आते हैं जातिय आधारित जनगणना के विस्तार पर
90 के दशक में 'मंडल' के दौर में पिछड़ा वर्ग के नेतृत्व में क्षेत्रीय दलों के उभार ने इस मांग को धार दी। ऐसा भी नहीं कि भारत में पहले कभी जातीय आधार पर जनगणना हुई नहीं, आजादी से पहले तक भारत में जातीय आधार पर जातीय जनगणना होती थी, लेकिन 1941 से जातीय आधार पर जनगणना बंद हुई लेकिन एससी-एसटी वर्ग की गणना अब भी की जाती है।
पहले से होती रही जनगणना
भारत में जनगणना 1872 से हो रही है और यह सिलसिला कभी टूटा नहीं है और वर्ष 1931 तक सभी जातियों की गिनती होती थी। जनगणना की रिपोर्ट में सभी जाति की संख्या और उसकी शैक्षणिक, आर्थिक हालत का ब्यौरा होता था। वर्ष 1941 में जो जनगणना की गई उसमें जाति का कॉलम था, लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के चलते इसका काम ठीक से नहीं हो पाया और आंकड़े सामने नहीं आए। यही वजह है कि आज भी जब कभी जाति के किसी भी आंकड़े की जरूरत होती है तो 1931 की जनगणना रिपोर्ट का हवाला दिया जाता है।
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1931 में हुई थी आखिरी गिनती
भारत में आखिरी जाति आधारित जनगणना अंग्रेजों के दौर में 1931 में हुई थी। अभी तक इसी आंकड़े से ही काम चल रहा है। इसी आंकड़े के आधार पर बताया गया कि देश में ओबीसी आबादी 52 फीसदी है। जाति के आंकड़ों के बिना काम करने में मंडल आयोग को काफी दिक्कत आई और उसने सिफारिश की थी कि अगली जो भी जनगणना हो उसमें जातियों के आंकड़े इकट्ठा किए जाएं।
2011 में सामाजिक आर्थिक जाति जनगणना
इस जनगणना में एकत्रित किए गए जाति आधारित आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया गया। 1931 में किसी जाति को पिछड़ा मानने के लिए पूरे राज्य या रियासत की जाति को आधार बनाया गया था। 2011 में जिलेवार जातियों का पिछड़ापन देखा गया था। इस अनुसार कोई जाति किसी जिले में पिछड़ी तो किसी दूसरे जिले में अगड़ी भी हो सकती है। अगड़ा और पिछड़ा ये एक बहुत बड़ा फर्क है क्योंकि इसी के आधार पर आरक्षण के भी मायने हैं।
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जाति आधारित जनगणना न होने से नुकसान
जातियों की गिनती न होने से हम यह पता नहीं कर पाते कि देश में विभिन्न जातियों के कितने लोग हैं और उनकी शैक्षणिक-आर्थिक स्थि्ति कैसी है। उनके बीच संसाधनों का बंटवारा किस तरह का है और उनके लिए किस तरह की नीतियों की आवश्यकता है। देश में राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग है, पिछड़ा वर्ग डेवलपमेंट फंड है, राज्यों में पिछड़ी जातियों के मंत्रालय हैं। केंद्र की ओर से राज्यों को पिछड़ी जातियों के विकास के लिए भेजे जाने वाले फंड उस राज्य की ओबीसी आबादी नहीं, कुल आबादी होती है। जिसकी वजह ओबीसी का कोई आंकड़ा नहीं होना है।
सियासी समीकरण
देश की राजनीति में पिछड़ा वर्ग की दखलअंदाजी बढ़ी है, कई राज्यों की सियासत में पिछड़ा वर्ग निर्णायक फैक्टर बनकर कर उभरे हैं। राज्य की सियासत ही पिछड़ा वर्ग के जरिए तय होने लगी है। अलग-अलग राज्यों में जातियों की बदौलत ही पिछड़ा वर्ग से क्षेत्रीय नेतृत्व उभरे हैं। अपने रसूख को और बढ़ाने के लिए पिछड़ा वर्ग नेतृत्व जातीय आधार पर जनगणना कराना चाहते हैं। अब तक अधिकृत रूप से इस बात का कोई आंकड़ा नहीं है कि देश में पिछड़ा वर्ग की आबादी कितनी है। समाजवादी डॉ. राम मनोहर लोहिया के समय से अलग-अलग जातियों के समूह में राजनीतिक चेतना पैदा करने को यह नारा लगा करता था- जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। यह नारा आज भी लग रहा है।
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जाति आधारित जनगणना और ओबीसी जनगणना
जनगणना कराने का काम केंद्र सरकार का है। 2011 की जनगणना से पहले लालू, मुलायम, शरद यादव सरीखे नेताओं ने जाति के आधार पर इसे कराने की खूब मांग की थी। उस वक्त केंद्र में यूपीए की सरकार थी। बीजेपी विपक्ष में थी और उसने भी कहा की करवा लो जनगणना। मोदी सरकार 1.0 में उस वक्त के गृह मंत्री और अभी के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में एक बैठक हुई थी। इसके बाद कहा गया था कि ओबीसी वर्ग में शामिल लोगों की भी गिनती होगी। लेकिन ओबीसी में हर जाति के लोगों की गिनती अलग-अलग नहीं होगी। 2018 में सरकार ने ऐलान किया था कि वो 2021 की प्रस्तावित जनगणना में ओबीसी का आंकड़ा जुटाएगी। लेकिन जाति आधारित जनगणना के समर्थकों का कहना है कि सिर्फ ओबीसी के ही आंकड़े नहीं सभी जातियों की गिनती की जाए। जाति आधारित जनगणना का मकसद सिर्फ ओबीसी की गिनती नहीं बल्कि भारतीय समाज की विविधता से जुड़े तथ्यों को सामने लाना है।
क्या बदलाव आ सकता है
पिछड़ा वर्ग के नेताओं का मानना है कि देश में उनकी आबादी लगभग 60 प्रतिशत है। जाहिर सी बात है कि अगर अधिकृत रूप से ये आंकड़े सामने आ जाते हैं तो देश एक बड़े राजनीतिक बदलाव का गवाह बन सकता है। इससे न केवल पिछड़ा वर्ग की राजनीतिक और सामाजिक ताकत बढ़ेगी बल्कि इस वर्ग से आने वाले नेताओं को भी काफी मजबूती मिलेगी। राजनीति में उच्च वर्ग की जातियों का प्रभुत्व खत्म हो सकता है। क्षेत्रीय आधार पर नए राजनीतिक दलों का उदय हो सकता है। 90 के दशक में केंद्र में वीपी सिंह की सरकार के समय मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू किए जाने के फैसले का असर ही कहा जाएगा कि पिछड़ा वर्ग के बीच जबरदस्त राजनीतिक चेतना पैदा हुई थी और वहीं से देश में राजनीतिक बदलाव का दौर भी शुरू हुआ। जातीय आधार पर जनगणना के पक्षधर नेताओं का कहना है कि देश में जब जातियों के आधार पर आरक्षण और उनके लिए कल्याणकारी योजनाएं हैं तो फिर बगैर उनकी आबादी की गणना के उसका उन्हें सही लाभ मिल पाना संभव ही नहीं है। एक तर्क यह भी है कि जब देश में पशुओं की जनगणना होती है कि देश में अलग-अलग प्रकार के पशुओं की कितनी-कितनी आबादी है तो जातिवार इंसानों की गणना से गुरेज क्यों?- अभिनय आकाश