By आरएन तिवारी | Sep 10, 2021
सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !
तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुम: !!
प्रभासाक्षी के धर्म प्रेमियों !
पिछले अंक में हमने श्रीमद भागवत महापुराण के माहात्म्य के अंतर्गत गोकर्ण और धुंधकारी की कथा का श्रवण किया था। आइए ! अब हम सब भागवत कथा के प्रथम स्कन्ध में प्रवेश करें।
कथा आरंभ
जन्माद्यस्य यतोन्वयादितरत:, चार्थेष्वभिज्ञ:स्वराट्
तेने ब्रह्म ह्रदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरय:
तेजोवारि मृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोमृषा
धाम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकं सत्यं परं धीमहि।।
उस सत्य स्वरूप परं ब्रह्म परमेश्वर को प्रणाम करता हूँ, जिससे इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होता है। कादम्बरी जैसे विशाल संस्कृत ग्रंथ की रचना करने वाले बाणभट्ट ने उसी परं ब्रह्म परमेश्वर की वंदना की है—
रजोजुषे जन्मनि सत्ववृत्तये स्थितौ प्रजानाम प्रलए तम: स्पृषे
अजाय सर्ग स्थिति नाश हेतवे त्रयी मयाय त्रिगुणात्मने नम: ॥
सूतजी महाराज और शौनक आदि अठासी हजार ऋषि नैमिषारण्य में विराजमान हैं। एक हजार साल का धार्मिक अनुष्ठान और भगवत चर्चा चल रही है।
1) यह नैमिषारण्य सतयुग का परम पवित्र तीर्थ स्थान जहाँ एक पल के लिए भी अधर्म का वास न हो। ब्रह्मा जी ने सत्संग के लिए ही इसका निर्माण किया था।
2) त्रेता युग का पवित्र स्थान पुष्कर को कहा गया है।
3) द्वापर का धर्म स्थल कुरुक्षेत्र।
4) कलियुग का तीर्थ स्थान गंगा को माना गया है।
गंग सकल मुद मंगल मूला, सब सुख करनी हरनि सब सूला॥
अज्ञान ध्वांत विध्वंस, कोटि सूर्यसम प्रभ, सुताख्याहि कथा सारं मम कर्ण रसायनम ॥
आज ऋषियों ने सूत जी से छह प्रश्न किए और उन्हीं छह प्रश्नों के उत्तर में सम्पूर्ण भागवत कथा का श्रवण कराया।
1) महाराज जीव मात्र का कल्याण कैसे हो।
(भागवत का प्रतिपाद्य विषय यही है।)
कल्याण शब्द का अर्थ क्या है? लोग आशीर्वाद में कहा करते हैं।
“दुख का विनाश और सुख का सतत आभास”
2) शास्त्र बहुत हैं, समय कम है इसलिए समस्त शास्त्रों का सार क्या है।
3) भगवान यदि कर्तुम् अकर्तुम् अन्यथा कर्तुम् समर्थ हैं, तो अवतार क्यों लेते हैं। जिनके संकल्प मात्र से श्रीजन हो सकता है, तो क्या उनके संकल्प से दुष्टों का संहार नहीं हो सकता ?
4) अच्छा, यदि भगवान ने अवतार लिए तो कितने अवतार लिए।
5) मानव जीवन का परम लक्ष्य क्या है?
6) भगवान जब लीला करके चले जाते है, तब धर्म किसकी शरण में जाता है।
धर्म: कं शरणं गत:
इन प्रश्नों को सुनकर सूत जी बहुत प्रसन्न हुए और कहा— इनके उत्तर केवल श्रीमद भागवत पुराण मे ही मिल सकते हैं।
सूत जी महाराज ने श्री शुकदेव जी का स्मरण किया।
श्लोक ----
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यम द्वैपायनो विरह कातर आजुहाव।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोभिनेदु: तं सर्वभूत हृदयम मुनिमानतोस्मि॥
महर्षि वेदव्यास जी का असंतोष और नारद से भेट
सूत जी कहते हैं--- शौनकादि ऋषियों,- एक दिन की बात है, योगिराज व्यास जी महाराज सुबह के समय पवित्र सरस्वती नदी के किनारे उदास मुद्रा में बैठे हुए थे, नारद जी वहाँ पहुँचते हैं और शोक का कारण पूछते हैं।
अस्त्येव मे सर्वमिदं त्वयोक्तं तथापि नात्मा परितुष्यते मे
तन्मूलमव्यक्त मगाधबोधं पृच्छामहे त्वात्मभवात्मभूतम्।।
मैं तो कुछ समझ नहीं पाता, आप साक्षात ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं, इसलिए मैं आप से ही इसका कारण जानना चाहता हूँ।
नारद जी कहते हैं–
भवतानुदितं प्रायं यशो भगवतोsमलम
येनैवासौ न तुष्येत मन्ये तद्दर्शनंखिलम्।।
व्यास जी महाराज आपने अनेक शास्त्र, वेद पुराणों की रचना तो कर दी, किन्तु ऐसी कोई रचना नहीं की जिससे नारायण संतुष्ट हों। आप जगत को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण का यशोगान कीजिए।
इस प्रकार देवर्षि नारद से प्रेरणा प्राप्त कर महर्षि वेदव्यास ने जगत के कल्याण हेतु इस पवित्र श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना की।
आगे की कथा अगले अंक में----------------------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
- आरएन तिवारी