अपने इतिहास में हिंदुस्तान ने कई लड़ाइयां लड़ी और लगभग हर बार देश को जीत का गौरव मिला। लेकिन एक युद्ध ऐसा था जो दरअसल युद्ध नहीं छल की दास्तां थी। जब दोस्ती की पीठ पर दगाबाजी का खंजर चलाया जाता है तो उसे 1962 का भारत चीन युद्ध कहते हैं। तब दोस्ती का भरोसा हिंदुस्तान का था, विश्वासघात का खंजर चीन का। उस युद्ध में हार से ज्यादा अपमान का लहू निकला। 1962 के भारत चीन युद्ध को कौन भूल सकता है। 62 कि वह तबाही को कौन भूल सकता है जो चीन ने बरपाई लेकिन उसके साथ ही हिंदुस्तान ने याद रखा एक सबक कि दोबारा 62 जैसी नौबत ना आए।
''एक मुल्क यानी हिंदुस्तान दोस्ती उसने कि चीनी हुकूमत से वहां के लोगों से चीनी सरकार ने इस भलाई का जवाब बुराई से दिया।''
22 अक्टूबर 1962 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू राष्ट्र के नाम संदेश में छल की वह कहानी सुना रहे थे। जिसके वह खुद एक लेखक भी थे, किरदार भी और आखिरकार छल के शिकार भी। साथ ही छला गया था पूरा भारत। महावीर और बुद्ध की शांतिपूर्ण धरती युद्ध भूमि में बदल गई थी।
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19-20 अक्टूबर 1962
आज से तकरीबन 58 साल पहले जब आधा हिंदुस्तान सो रहा था उस वक्त विश्वासघात और छल की एक पटकथा लिखी जा रही थी। चीन ने भारत पर सुनियोजित हमला किया। अरुणाचल से लेकर चीन की सेना ने न सिर्फ सीमा रेखा लांघी बल्कि दोस्ती के नाम पर घात भी किया। आजादी के बाद भारत जिस देश को अपना सबसे करीबी मान रहा था उसने ही भारत को युद्ध भूमि में ललकारा था।
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हिंदी चीनी भाई-भाई
1947 में भारत को आजादी मिली और उसके ठीक दो साल बाद यानी 1949 में माओत्से तुंग के नेतृत्व में साम्यवादी दल ने 1 अक्टूबर, 1949 को चीनी लोक गणराज्य (पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) की स्थापना की। आजादी के बाद से ही दोनों देशों में मित्रता वाले संबंध थे। उस दौर में भारत सरकार शुरू से ही चीन से दोस्ती बढ़ाने की पक्षधर थी। जब चीन दुनिया में अलग-थलग पड़ गया था, उस समय भी भारत चीन के साथ खड़ा था। जापान के साथ किसी वार्ता में भारत सिर्फ इस वजह से शामिल नहीं हुआ क्योंकि चीन आमंत्रित नहीं था। इतिहास के हवाले से कई दावें ऐसे भी हैं कि जवाहर लाल नेहरू की गलती की वजह से भारत ने संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता ठुकरा दी और अपनी जगह ये स्थान चीन को दे दिया। उस दौर में आदर्शवाद और नैतिकता का बोझ पंडित नेहरू पर इतना था कि वो चीन को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलवाने के लिए पूरी दुनिया में लाबिंग करने लगे। लेकिन सरदार पटले ने चीन की चाल को भांप लिया था। वर्ष 1950 में ही सरदार पटेल ने नेहरू को चीन से सावधान रहने के लिए कहा था। अपनी मृत्यु के एक महीने पहले ही 7 नवंबर 1950 को देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने चीन के खतरे को लेकर नेहरू को आगाह करते हुए एक चिट्ठी में लिखा था कि भले ही हम चीन को मित्र के तौर पर देखते हैं लेकिन कम्युनिस्ट चीन की अपनी महत्वकांक्षाएं और उद्देश्य हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि तिब्बत के गायब होने के बाद अब चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है। लेकिन अपने अंतरराष्ट्रीय आभामंडल और कूटनीतिक समझ के सामने पंडित नेहरू ने किसी कि भी सलाह को अहमियत नहीं दी। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 'हिंदी-चीनी भाई-भाई' का नारा दिया। मगर 1959 में दलाई लामा के भारत में शरण लेने के बाद दोनों देशों के संबंधों में तनाव आने लगा। यही भारत-चीन युद्ध की बड़ी वजह बना।
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क्यों हुआ था 1962 का भारत-चीन युद्ध
1962 में भारत पर चीन ने हमला क्यों किया था और इस युद्ध के पीछे चीन की मंशा क्या थी। इसको लेकर जितने सवाल उतने ही जवाब सामने आते हैं। लेकिन चीन के एक शीर्ष रणनीतिकार वांग जिसी ने इस युद्ध के 50 साल पूरे होने पर साल 2012 में दावा किया था कि चीन के बड़े नेता माओत्से तुंग ने 'ग्रेट लीप फॉरवर्ड' आंदोलन की असफलता के बाद सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी पर अपना फिर से नियंत्रण कायम करने के लिए भारत के साथ वर्ष 1962 का युद्ध छेड़ा था।
उस समय हिंदी चीनी भाई-भाई नारा छाया रहता था, लेकिन बॉर्डर पर चीन की इस करतूत से हर कोई हैरान था। भारत को कभी यह शक नहीं हुआ कि चीन हमला भी कर सकता है। वांग जिसी ने कहा, ‘स्वाभाविक रूप से उन्होंने (माओत्से) ने कई व्यावहारिक मुद्दों पर से नियंत्रण खो दिया। इसलिए वह यह साबित करना चाहते थे कि वह अभी भी सत्ता में हैं विशेष रूप से सेना का नियंत्रण उनके हाथों में है। इसलिए उन्होंने तिब्बत के कमांडर को बुलाया और झांग से पूछा कि क्या आप इस बात का भरोसा है कि आप भारत के साथ युद्ध जीत सकते हैं.’ झांग गुओहुआ तिब्बत रेजीमेंट के तत्कालीन पीएलए कमांडर थे। वांग जिसी के अनुसार, ‘कमांडर ने कहा, ‘हां माओत्से, हम युद्ध आसानी से जीत सकते हैं। उन्होंने कहा, ‘आगे बढ़ो और इसे अंजाम दो.’ इसका उद्देश्य यह प्रदर्शित करना था कि सेना पर उनका व्यक्तिगत नियंत्रण है। युद्ध के शुरू होने तक भारत को पूरा भरोसा था कि युद्ध शुरू नहीं होगा, इस वजह से भारत की ओर से तैयारी नहीं की गई। यही सोचकर युद्ध क्षेत्र में भारत ने सैनिकों की सिर्फ दो टुकड़ियों को तैनात किया जबकि चीन की वहां तीन रेजिमेंट्स तैनात थीं। चीनी सैनिकों ने भारत के टेलिफोन लाइन को भी काट दिए थे। इससे भारतीय सैनिकों के लिए अपने मुख्यालय से संपर्क करना मुश्किल हो गया था। भारतीय सेना इस हमले के लिए तैयार नहीं थी नतीजा ये हुआ कि चीन के 80 हजार जवानों का मुकाबला करने के लिए भारत की ओर से मैदान में थे 10-20 हजार सैनिक। ये युद्ध पूरा एक महीना चला जब तक कि 21 नवंबर 1962 को चीन ने युद्ध विराम की घोषणा नहीं कर दी।
एंडरसन-भगत की सीक्रेट रिपोर्ट
क्या तय थी 1962 में चीन के हाथों भारत की हार? क्या बिना तैयारी के भेजे गए थे भारतीय सैनिक? क्या मोर्चे पर चीन की तैयारियों के बारे में भारत के पास कोई सूचना नहीं थी? दरअसल इन्हीं सवालों का जवाब लेफ्टिनेंट जनरल नील एंडरसन और ब्रिगेडियर पीएस भगत ने अपनी रिपोर्ट में ढूंढने की कोशिश की थी। इस रिपोर्ट को गोपनीय घोषित कर दिया गया था। इसकी दोनों कॉपियों को रक्षा मंत्रालय में सुरक्षित रख दिया गया था। लेकिन 1962 के दौर में 'टाइम' के संवाददाता के तौर पर दिल्ली में काम कर रहे मैक्स नेविल ने इस रिपोर्ट के मौजूद होने का दावा किया था। उन्होंने इस रिपोर्ट को ऑनलाइन डाल दिया था। मैक्स नेविल का दावा था कि रिपोर्ट में हार के लिए नेहरू की नीतियां जिम्मेदार थीं। नेहरू की फारवर्ड पालियी पूरी तरह नाकाम साबित हुई। साथ ही दिल्ली और सेना के फील्ड कमांडरों के बीत तालमेल की बेहद कमी, सैनिकों की खराब तैयारियां और संसाधनों की कमी को भी जिम्मेदार माना गया।
आस्ट्रेलिया पत्रकार मैक्स नेविल ने एक किताब इंडियाज चाइना वार लिखी जिसमें इस सीक्रेट रिपोर्ट के हवाले से कई दावे किए गए।
नहीं दिया गया सेना की हथियारों की मांग पर ध्यान
1961 के मध्य तक चीन के सुरक्षा बल सिक्यिांग-तिब्बत सडक़ पर वर्ष 1957 की अपनी स्थिति से 70 मील आगे बढ़ चुके थे। भारत की 14 हजार वर्ग मील जमीन पर कब्जा किया जा चुका था। देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई। सरकार आलोचना के घेरे में आ गई। आलोचनाओं से तंग आकर नेहरू ने तत्कालीन सेना प्रमुख पीएन थापर को चीनी सैनिकों को भारतीय इलाके से खदेड़ने का आदेश दिया। थापर बहुत पहले से सेना की बदहाली से अवगत करा रहे थे, बार बार वह हथियार और संसाधनों की मांग कर रहे थे। नेहरू ने कभी उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। शायद प्रधानमंत्री को रक्षा मंत्री वी. कृष्णा मेनन की बातों पर ज्यादा भरोसा था, जिन्होंने सेना की क्षमता और तैयारी के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बता रखा था।
नेहरू का राजनैतिक बयान और चीन ने कर दिया आक्रमण
13 अक्टूबर 1962 श्रीलंका जाते हुए नेहरू ने चेन्नई में मीडिया को बयान दिया कि उन्होंने सेना को आदेश दिया है कि वह चीनियों को भारतीय सीमा से निकाल फेकें। नेहरू के इस बयान से सैनिक हेडक्वार्टर हक्का-बक्का रह गया। जब सेना प्रमुख थापर ने रक्षा मंत्री से इस बारे में पूछा, तब उनका जवाब था कि प्रधानमंत्री का बयान राजनीतिक स्टेटमेंट है। इसका अर्थ है कि कारवाई दस दिन में भी की जा सकती है और सौ दिन में या हजार दिन में भी। लेकिन नेहरू के इस स्टेटमेंट के आठ दिन बाद चीनियों ने आक्रमण कर दिया।
बहरहाल, जब आज यह कहा जाता है कि 62 का नहीं बल्कि 2020 का हिंदुस्तान है तो इस बात में दम है। पिछले कुछ दिनों से कभी चीन के हेलीकॉप्टर आते हैं तो कभी उसके सैनिक पैंगोंग त्सो झील में कारस्तानी कर जाते हैं। हिंदुस्तान ने चीन की हर हरकत का बखूबी जवाब दिया है। यही कारण है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपनी सेना को युद्ध की तैयारी तेज करने के लिए कहा था। लेकिन 24 घंटे बाद ही दूसरा बयान चीन के विदेश मंत्रालय का आ जाता है। जिसमें कहा जाता है कि भारत के साथ सीमा पर हालात स्थिर हैं और काबू में हैं, दोनों देशों के पास बातचीत करके मुद्दों को हल करने के माध्यम मौजूद हैं। तीसरा बयान भारत में चीन के राजदूत का आया. उन्होंने कहा कि दोनों देश कोरोना वायरस से लड़ रहे हैं और इस वक्त रिश्तों को मजबूत करने की जरूरत है। इन बयानों से यही समझा जाना चाहिए कि चीन अब बातचीत की टेबल पर आना चाहता है। पहले वो लद्दाख में अपने सैनिकों की संख्या बढ़ाकर भारत को धमकाना चाहता था, और भारत को सड़क बनाने से रोकना चाहता था, लेकिन भारत के सख्त रवैये से चीन को लग गया है कि उसके हथकंडे भारत के सामने नहीं चल पाएंगे। कुल मिलाकर कहें तो चीन को ये अच्छी तरह अंदाजा लग गया है कि भारत सामरिक ही नहीं कूटनीतिक मामले में भी चीन पर भारी है यानी चीन से निपटने के लिए भारत हर मोर्चे पर तैयार है।