विश्व आदिवासी दिवसः खतरे में भारत एवं दुनिया के आदिवासी समुदाय

By ललित गर्ग | Aug 09, 2022

अन्तरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस, विश्व में रहने आदिवासी लोगों के मूलभूत अधिकारों जल, जंगल, जमीन को बढ़ावा देने और उनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और न्यायिक सुरक्षा के लिए प्रत्येक वर्ष 9 अगस्त को मनाया जाता है। इस वर्ष की थीम “संरक्षण में स्वदेशी महिलाओं की भूमिका और पारंपरिक ज्ञान का प्रसारण” घोषित किया है। यह दिवस उन उपलब्धियों और योगदानों को भी स्वीकार करता है जो वनवासी लोग पर्यावरण संरक्षण, आजादी, महा आंदोलनों, जैसे विश्व के मुद्दों को बेहतर बनाने के लिए करते हैं। यह पहली बार संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा दिसंबर 1994 में घोषित किया गया था। आदिवासी महिलाएं आदिवासी समुदाय की रीढ़ है, वे पारंपरिक पैतृक ज्ञान के संरक्षण और प्रसारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। प्राकृतिक संसाधनों की देखभाल और वैज्ञानिक ज्ञान के रखवाले के रूप में उनकी एक अभिन्न सामूहिक और सामुदायिक भूमिका है। दुनिया भर में रहने वाले 37 करोड़ आदिवासी और जनजाति समुदायों के सामने जंगलों का कटना और उनकी पारंपरिक जमीन की चोरी सबसे बड़ी चुनौती है। वे धरती पर जैव विविधता वाले 80 प्रतिशत इलाके के संरक्षक हैं लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लोभ, हथियारबंद विवाद और पर्यावरण संरक्षण संस्थानों की वजह से बहुत से समुदायों की आजीविका एवं अस्तित्व खतरे में हैं, ग्लोबल वॉर्मिंग का असर हालात को और खराब कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार आदिवासी जनजातियां 90 देशों में फैली हैं, 5,000 अलग अलग संस्कृतियां और 4,000 विभिन्न भाषाएं, इस बहुलता के बावजूद उन्होंने अनेक संघर्ष झेले हैं और आज भी दुनिया में आदिवासी समुदाय खतरे में हैं। 


इस वर्ष का ‘विश्व आदिवासी दिवस‘ भारत के लिये विशेष महत्वपूर्ण है। क्योंकि भारत की नई राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू वनवासी समुदाय से जुड़ी होने के साथ-साथ एक महिला है, उन्होंने प्रकृति एवं पर्यावरण के संकटों को करीब से देखा है, यह भारत की विकराल होती समस्या है, जिसका गहराना जीवन को अंधेरा में धकेलना है, अतः वे इस समस्या के दर्द को गहराई से महसूस करती है, तभी उन्होंने कहा कि मेरा तो जन्म उस जनजातीय परंपरा में हुआ है जिसने हजारों वर्षों से प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर जीवन को आगे बढ़ाया है। मैंने जंगल और जलाशयों के महत्व को अपने जीवन में महसूस किया है। हम प्रकृति से जरूरी संसाधन लेते हैं और उतनी ही श्रद्धा से प्रकृति की सेवा भी करते हैं। जल, जंगल और जमीन इन तीन तत्वों से पृथ्वी और प्रकृति का निर्माण होता है। यदि यह तत्व न हों तो पृथ्वी और प्रकृति इन तीन तत्वों के बिना अधूरी है। विश्व में ज्यादातर समृद्ध देश वही माने जाते हैं जहां इन तीनों तत्वों का बाहुल्य है। भारत भी इसी समृद्धता का देश है, लेकिन इनकी समृद्धता की उपेक्षा के कारण अनेक समस्याएं विकास की बड़ी बाधा बनती जा रही है। संभव है कि द्रौपदी मुर्मू के नेतृत्व में प्रकृति एवं पर्यावरण की समस्या के साथ-साथ आदिवासी महिलाओं से जुड़ी समस्याओं का समाधान होगा।

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आदिवासियों में एक बड़ी समस्या धर्मपरिवर्तन की है। आज विश्व में कई आदिवासी अपने धर्म को बदलकर आदिवासी समाज से बाहर हो रहे हैं जिसमें ईसाई धर्म को सर्वाधिक स्वीकार गया है। एशिया में विशेषकर भारत के आदिवासी भी इस मानसिकता की ओर तेजी से बढ़ रहे है, ईसाई मिश्नरियों ने भारत के आदिवासी क्षेत्र छतीसगढ़, मध्यप्रदेश, ओडिशा, अंडमान निकोबार, झारखंड, गुजरात, महाराष्ट्र में धर्मांतरण के लिये विद्यालयों एवं छात्रावासों में सफल अभियान चलाया है।  ऐसे में आदिवासी की अपनी संस्कृति एवं उनका अस्तित्व खतरा में आ गया। आदिवासी अर्थात जो प्रारंभ से वनों में रहता आया है। करीब 400 पीढ़ियों पूर्व सभी भारतीय वन में ही रहते थे और वे आदिवासी थे परंतु विकासक्रम के चलते पहले ग्राम बने फिर कस्बे और अंत में नगर, महानगर। यही से विभाजन होना प्रारंभ हुआ। जो वन में रह गए वे वनावासी, जो गांव में रह गए वे ग्रामवासी और जो नगर में चले गए वे नगरवासी कहलाने लगे। भारत में लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र है, इसके अधिकांश हिस्से में आदिवासी समुदाय रहता है। लगभग नब्बे प्रतिशत खनिज सम्पदा, प्रमुख औषधियां एवं मूल्यवान खाद्य पदार्थ इन्हीं आदिवासी क्षेत्रों में हैं। भारत में कुल आबादी का लगभग 11 प्रतिशत आदिवासी समाज है।


स्वतंत्रता आन्दोलन में आदिवासी समाज की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ऐसे अनेक महान् आदिवासी हुए हैं जिन्होंने भारत की मिट्टी एवं उसके स्वतंत्र अस्तित्व-आजादी के लिए अपना बलिदान एवं महान योगदान दिया। ऐसे महान वीर आदिवासियों से भारत का इतिहास समृद्ध है, जिनमें अप्पा साहब, तात्या टोपे, डा. बी.आर. अम्बेडकर, जयपाल सिंह मुण्डा, शहीद वीर नारायण सिंह, शहीद गंडाधुरा, शहीद रानी दुर्गावाती, शहीद बीरसा मुंडा, शहीद सिद्धों, कानु, शहीद तिलका मांझी, शहीद गेंद सिंह, झाड़ा सिरहा जैसे महान आदिवासियों ने अपना बलिदान देकर समाज एवं देश के लिये एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। फिर क्या कारण है कि इस जीवंत एवं मुख्य समाज को देश की मूल धारा से काटने के प्रयास निरन्तर किये जा रहे हैं। आजादी के बाद बनी सभी सरकारों ने इस समाज की उपेक्षा की है। यही कारण है कि यह समाज अनेक समस्याओं से घिरा है। अन्तर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस मनाते हुए हमें आदिवासी समाज के अस्तित्व एवं अस्मिता को धुंधलाने के प्रयासों को नियंत्रित करने पर चिन्तन करना होगा। क्योंकि यह दिवस पूरी दुनिया में आदिवासी जन-जीवन को समर्पित किया गया है, ताकि आदिवासियों के उन्नत, स्वस्थ, समतामूलक एवं खुशहाल जीवन की नयी पगडंडी बने, विचार-चर्चाएं आयोजित हो, सरकारें भी सक्रिय होकर आदिवासी कल्याण की योजनाओं को लागू करें।

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राजनीतिक स्वार्थ के चलते हजारों वर्षों से जंगलों और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले आदिवासियों को हमेशा से दबाया और कुचला जाता रहा है जिससे उनकी जिन्दगी अभावग्रस्त ही रही है। केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ों रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएं, पीने का साफ पानी आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं। जल, जंगल, जमीन की लड़ाई लड़ने वाले आदिवासियों को अपनी भूमि से बहुत लगाव होता है, उनकी जमीन बहुत उपजाऊ होती है, उनकी माटी एक तरह से सोना उगलती है। जनसंख्या वृद्धि के कारण भूमि की मांग में वृद्धि हुई है। इसीलिये आदिवासी क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों एवं उनकी जमीन पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नजर है। कम्पनियों ने आदिवासी क्षेत्रों में घुसपैठ की है जिससे भूमि अधिग्रहण काफी हुआ है। आदिवासियों की जमीन पर अब वे खुद मकान बना कर रह रहे हैं, बड़े कारखाने एवं उद्योग स्थापित कर रहे हैं, कृषि के साथ-साथ वे यहाँ व्यवसाय भी कर रहे हैं। भूमि हस्तांतरण एक मुख्य कारण है जिससे आज आदिवासियों की आर्थिक स्थिति दयनीय हुई है। माना जाता है कि यही कंपनियां आदिवासी क्षेत्रों में युवाओं को तरह-तरह के प्रलोभन लेकर उन्हें गुमराह कर रही है, अपनी जड़ों से कटने को विवश कर रही है। उनका धर्मान्तरण किया जा रहा है। उन्हें राष्ट्र-विरोधी हरकतों के लिये उकसाया जाता है।


तथाकथित राजनीतिक एवं आर्थिक स्थितियां आदिवासी समाज के अस्तित्व और उनकी पहचान के लिए खतरा बनती जा रही है। आज बड़े ही सूक्ष्म तरीके से इनकी पहचान मिटाने की व्यापक साजिश चल रही है। कतिपय राजनीतिक दल उन्हें वोट बैंक मानती है। वे भी उनको ठगने की कोशिश लगातार कर रही है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज भी विमुक्त, भटकी बंजारा जातियों की जनगणना नहीं की जाती है। तर्क यह दिया जाता है कि वे सदैव एक स्थान पर नहीं रहते। आदिवासियों की ऐसी स्थिति तब है जबकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने आदिवासी को भारत का मूल निवासी माना है लेकिन आज वे अपने ही देश में परायापन, तिरस्कार, शोषण, अत्याचार, धर्मान्तरण, अशिक्षा, साम्प्रदायिकता और सामाजिक एवं प्रशासनिक दुर्दशा के शिकार हो रहे हैं। गुजरात, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडिशा राज्यों में आदिवासी प्रतिशत किसी भी अन्य राज्य की तुलना में सबसे बड़ी राजनीतिक इकाई है। इसलिये इन राज्यों में आदिवासी का कन्वर्जन कराया जा रहा है, ताकि राजनीतिक लाभ उठाया जा सके।


गुजरात में आदिवासी जनजीवन के उत्थान और उन्नयन के लिय आदिवासी माटी में जन्मे जैन संत गणि राजेन्द्र विजयजी लम्बे समय से प्रयासरत है और विशेषतः आदिवासी जनजीवन को उन्नत बनाने, उन क्षेत्रों में शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, संस्कृति-विकास की योजनाओं लागू करने के लिये उनके द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं, इसके लिये उन्होंने सुखी परिवार अभियान के अन्तर्गत अनेक स्तरों पर प्रयास किये हैं। आज आदिवासी समाज इसलिए खतरे में नहीं है कि सरकारों की उपेक्षाएं बढ़ रही है बल्कि उपेक्षापूर्ण स्थितियां सदैव रही है- कभी कम और कभी ज्यादा। सबसे खतरे वाली बात यह है कि आदिवासी समाज की अपनी ही संस्कृति एवं जीवनशैली के प्रति आस्था कम होती जा रही है। अन्तराष्ट्रीय आदिवासी दिवस मनाने की सार्थकता तभी है जब हम इस जीवंत समाज को उसी के परिवेश में उन्नति के नये शिखर दें। इस दृष्टि से प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नये भारत की परिकल्पना को आदिवासी समाज बहुत ही आशाभरी नजरों से देख रहा है।


- ललित गर्ग

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