देश में सात चरणों में कराया गया लोकसभा चुनाव संपन्न हो चुका है और देश के लगभग 28 करोड़ पुरुष मतदाताओं तथा 26 करोड़ महिला मतदाताओं ने नयी सरकार चुनने के लिए अपना मत दे दिया है। मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए भारतीय निर्वाचन आयोग की ओर से अनेकों जागरूकता अभियान चलाये गये लेकिन यह खेदजनक रहा कि इसमें कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पाया और 2019 के लोकसभा चुनाव का कुल मत प्रतिशत 64 प्रतिशत के आसपास रहा। यही नहीं इस बार एक चीज और देखने को मिली कि मत प्रतिशत चरण दर चरण घटता चला गया। पहले छह चरणों के मतदान संबंधी आंकड़ों को देखें तो पता लगता है कि पहले दो चरण में मतदान का स्तर सर्वाधिक था। पहले चरण में 69.61 प्रतिशत और दूसरे में 69.44 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया। इसके बाद के प्रत्येक चरण में मत प्रतिशत घटने का सिलसिला सातवें चरण तक जारी रहा। निर्वाचन आयोग के आंकड़ों के मुताबिक तीसरे चरण में 68.4 प्रतिशत, चौथे में 65.5 प्रतिशत, पांचवें में 64.16 प्रतिशत, छठे चरण में 64.4 प्रतिशत और सातवें चरण में कुल 63.98 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया। डाक मतपत्र से मतदान करने वालों का मत प्रतिशत इस बार 85 प्रतिशत रहा जोकि काफी जोरदार उछाल है।
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महिला मतदाता जागरूक हुईं
मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश ऐसे राज्य रहे जहां 2014 के मुकाबले मतदान प्रतिशत बढ़ा है जबकि तेलंगाना, पंजाब, दिल्ली और नगालैंड में मत प्रतिशत घटा। सातों चरणों के मतदान संबंधी आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले तीन लोकसभा चुनाव में पुरुष मतदाताओं की तुलना में महिला मतदाताओं की हिस्सेदारी का अंतर लगातार कम हुआ है। इस चुनाव में यह घटकर मात्र 0.4 प्रतिशत रह गया। 2009 के लोकसभा चुनाव में मतदान करने वाले पुरुषों की तुलना में महिला मतदाताओं की हिस्सेदारी नौ प्रतिशत कम थी। यह अंतर 2014 के लोकसभा चुनाव में घट कर चार प्रतिशत रह गया और 2019 के चुनाव में यह आंकड़ा घटकर महज 0.4 प्रतिशत रह गया।
इस चुनाव की कुछ बड़ी बातें
इस बार के लोकसभा चुनावों की खास बात यह रही कि NOTA का विकल्प देशभर के मतदाताओं को उपलब्ध कराया गया साथ ही वीवीपैट को सभी लोकसभा सीटों पर लागू किया गया। यही नहीं, उच्चतम न्यायालय के आदेशानुसार इस बार मतगणना में ईवीएम के मतों से प्रत्येक संसदीय क्षेत्र में हर विधानसभा क्षेत्र के पांच मतदान केन्द्रों की वीवीपीएटी की पर्चियों का मिलान किया जायेगा। जबकि अब तक प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में किसी एक मतदान केन्द्र की वीवीपीएटी की पर्चियों का मिलान किया जाता था। 2019 के लोकसभा चुनावों में कुल उम्मीदवारों की बात करें तो इनकी संख्या 8049 रही।
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चुनाव आयोग की बड़ी कार्रवाइयां
2019 का लोकसभा चुनाव इस मायने में 2014 के चुनाव से आगे निकल गया कि इस बार 10 मार्च को लोकसभा चुनाव की घोषणा होने के बाद से प्रवर्तन एजेंसियों ने 3449.12 करोड़ रुपये मूल्य की नकदी, मादक पदार्थ, शराब और कीमती धातु आदि चीजें जब्त कीं। आंकड़ों को देखें तो इस बार जब्त हुई चीजें 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले तीन गुना अधिक हैं। निर्वाचन आयोग के आंकड़ों पर गौर करें तो इस बार 10 मार्च से 19 मई के बीच 839.03 करोड़ रुपये की नकदी, 294.41 करोड़ रुपये मूल्य की शराब, 1270.37 करोड़ रुपये मूल्य के मादक पदार्थ, 986.76 करोड़ रुपये मूल्य का सोना और अन्य कीमती धातुएं तथा 58.56 करोड़ रुपये मूल्य की साड़ियां, कलाई घड़ियां तथा अन्य चीजें जब्त की गई हैं।
हिंसा से बच नहीं सका यह चुनाव
चुनावों के दौरान हिंसा की बात करें तो पश्चिम बंगाल में इसकी सर्वाधिक घटनाएं दर्ज की गयीं। पश्चिम बंगाल में तो हिंसा के बढ़ते मामले देखते हुए आयोग ने चुनाव प्रचार को एक दिन पहले ही समाप्त करवा दिया। बिहार और पंजाब में भी हिंसा के छिटपुट मामले सामने आये। कई बड़ी और क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं को आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में पूर्व की तरह नोटिस भी जारी किये गये और क्लीन चिटें भी दी गयीं साथ ही कुछ बड़े नेताओं को आचार संहिता उल्लंघन के चलते कुछ समय तक चुनाव प्रचार करने से वंचित भी कर दिया गया। चुनाव आयुक्त अशोक लवासा की कुछ मुद्दों पर चुनाव आयोग पैनल से असहमति का मुद्दा भी गरमाया।
आखिर मतदान प्रतिशत कम क्यों हो रहा है?
अब जरा बात कर लेते हैं मतदान प्रतिशत कम रहने की। इसके वैसे तो कई कारण माने जा सकते हैं लेकिन सबसे बड़ा कारण अप्रैल-मई माह में पड़ने वाली भीषण गर्मी है। देश के अधिकांश भागों में इन दो माह में जबरदस्त गर्मी होती है जिसके चलते चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिए चुनाव प्रचार करना, मीडिया के लिए खबरों का संकलन करना और जनता के लिए रैलियों में शामिल होना बहुत मुश्किल हो जाता है। विपरीत परिस्थितियों में उम्मीदवार, मीडिया या प्रशासनिक इकाइयां तो अपना कार्य कर लेते हैं लेकिन जनता पर कड़ी धूप में बाहर निकल कर मतदान करने के लिए कोई दबाव नहीं डाला जा सकता। निर्वाचन आयोग को इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए कि ऐसे क्या संवैधानिक हल निकाले जाएं ताकि चुनाव फरवरी-मार्च में या सितंबर-अक्तूबर में कराये जाएं। सभी राजनीतिक पार्टियों को इस बारे में सहमति बनाने की भी जरूरत है।
-नीरज कुमार दुबे