भारतीय मौसम विभाग ने, फरवरी माह में मार्च से मई माह तक के लिए जारी अपने ग्रीष्मानुमान में कहा था कि पिछले वर्ष की तरह, इस वर्ष भी देश के आधे से अधिक राज्य सूरज की तपिश की चपेट में होंगे। रिपोर्ट में कहा गया था कि गर्मी के दिनों में राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, बिहार व झारखंड जैसे राज्यों में तापमान सामान्य से एक डिग्री या उससे अधिक भी हो सकता है। विदित हो कि गत वर्ष देश में गर्मी जानलेवा साबित हुई थी और देश के लगभग सात सौ लोगों की मौत का कारण उत्तर भारत में गर्मी के दिनों में बहने वाली सूखी व गर्म हवा 'लू' बनी थी।
उसी दौर में, राजस्थान के फलौदी में अब तक का सबसे अधिक तापमान 51 डिग्री दर्ज किया गया था। नये वर्ष के आगमन के साथ ही मौसम में, जिस तरह का बदलाव देखा जा रहा है, वह आने वाले दो-चार महीनों के अत्यंत पीड़ादायक होने की ओर संकेत कर रहा है। फिलहाल, जिस तरह की तल्खी सूरज की रोशनी में देखी जा रही है, वह डरावने भविष्य की ओर इशारा करने के लिए काफी है।
सवाल यह है कि पृथ्वी पर इंसानी जीवन के प्रतिकूल परिस्थितियों के सृजन के लिए कौन उत्तरदायी है? जाहिर सी बात है कि इसके लिए हम मनुष्य व प्रकृति के साथ हमारा अन्यायपूर्ण व्यवहार ही जिम्मेवार है। हम सभी जानते हैं कि हमारी पृथ्वी सौरमंडल का इकलौता ग्रह है, जहां जीवन जीने की अनुकूल परिस्थितियां विद्यमान हैं। यहां हम खुली हवा में सांस लेते हैं। शुद्ध पेयजल पीते हैं और आराम से जीवन गुजारते हैं।
बावजूद इसके वृक्षारोपण, जल-संरक्षण व पर्यावरण संरक्षण से जुड़े विषय आज केवल पढ़ने-पढ़ाने व भाषणबाजी तक ही सीमित रह गये हैं अथवा संविधान के अंतर्गत वर्णित 'मूल कर्तव्यों' की सूची में एक तत्त्व के रुप में शोभा बढ़ा रहे हैं। अब, जबकि हमारा पर्यावरण बुरे दौर से गुजर रहा है, तब इस बात की चर्चा प्रासंगिक हो जाती है कि आखिर क्या वजह है कि प्रकृति मानव समुदाय के साथ दोस्ताना व्यवहार नहीं कर रही है? यह भी विचार-विमर्श किया जाना चाहिए कि विगत कुछ वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि पृथ्वी पर जीवन के लिए अनुकूल दशाएं दिन-ब-दिन मानव समुदाय के लिए कठोर से कठोरतम होती चली गईं?
दरअसल, औद्योगिक विकास की गोद में पला-बढ़ा पिछला एक-दो दशक पर्यावरणीय दृष्टि से चिंता का विषय रहा है। इस दौरान, जीवन के भौतिकवादी लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन कर प्राकृतिक चक्र को तोड़ने की कोशिशें की गयीं, जिससे आज प्राकृतिक असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हुई है। औद्योगिक विकास की आड़ में पृथ्वी के साथ मानव का सौतेला व्यवहार ही जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों के सृजन के लिए उत्तरदायी रहा है। चूंकि, प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग अब शोषण के रुप में परिणत हो चुका है, इसलिए पारिस्थितिक तंत्र के टूटने के कारण पृथ्वी का कुछ हिस्सा प्रतिदिन आपदा से प्रभावित रहता है। नतीजतन बाढ़, सूखा, भू-स्खलन और भूकंप जैसी आपदाएं वसुंधरा पर बारंबार दस्तक दे रही हैं, जिससे समय-समय पर बड़े पैमाने पर मानव और भौतिक संपत्ति का नुकसान होता रहता है।
आधुनिक जीवन का पर्याय बन चुकी, औद्योगीकरण और नगरीकरण की तीव्र रफ्तार ने, एक ओर जहां देश को उच्च आर्थिक स्थिति प्रदान की है, वहीं दूसरी तरफ इसके नकारात्मक प्रभावों ने पर्यावरण को बेदम, असहज और प्रतिकूल भी कर दिया है। यह भी स्पष्ट है कि अगर समय रहते जलवायु परिवर्तन से निपटने हेतु धरातलीय स्तर पर काम नहीं किया गया तो हमारे अस्तित्व की समाप्ति पर जल्द ही पूर्णविराम लग जाएगा। औद्योगिक विकास की चाह में एक तरफ बड़े पैमाने पर पेड़-पौधों का सफाया किया जा रहा है, जबकि उसकी जगह तैयार किये जा रहे कंक्रीट की आलीशान भवनें, पृथ्वी का औसत तापमान लगातार बढ़ा रहे हैं। विगत कुछ वर्षों में वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की आवश्यकता से अधिक मात्रा होने के कारण वैश्विक ऊष्णता में तेजी से वृद्धि दर्ज की गई है। विश्व के अधिकांश देश आज ग्लोबल वार्मिंग से जुड़ी समस्याओं से दो-चार हो रहे हैं। वायुमंडल के औसत तापमान में निरंतर वृद्धि न सिर्फ पेड़-पौधों के लिए खतरे की स्थिति है, बल्कि इसके खतरे को कम से कम करना मानव समुदाय के लिए भी एक बड़ी चुनौती है।
एक रिपोर्ट की मानें, तो पिछली सदी के दौरान धरती का औसत तापमान 1.4 फारेनहाइट तक बढ़ चुका है। जबकि, अगले सौ साल के दौरान इसके बढ़कर 2 से 11.5 फारेनहाइट होने का अनुमान है। वैज्ञानिकों का मत है कि सदी के अंत तक धरती के तापमान में 0.3 डिग्री से 4.8 डिग्री तक की बढ़ोतरी हो सकती है। आज जिस तरह अनियंत्रित विकास की बुनियाद पर पृथ्वी की हरियाली को नष्ट कर मानव समाज उन्नति का सपना देख रहा है, ध्यान रहे वह एक दिन सभ्यता के अंत का कारण जरूर बनेगी। प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग के स्थान पर शोषण की बढ़ रही प्रवृत्ति से पर्यावरण का प्राकृतिक चक्र विच्छेद हो गया है। पृथ्वी के औसत तापमान में निरंतर वृद्धि से ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं। पिछले दो दशकों के दौरान अंटार्कटिक और उत्तरी गोलार्द्ध के ग्लेशियरों में सबसे ज्यादा बर्फ पिघली है। वर्तमान में समुद्र के जलस्तर में 0.9 मीटर की औसत बढ़ोतरी हो रही है,जो अब तक की सबसे अधिक बढ़ोतरी है।
ऐसे में, सततपोषणीय विकास को धता बताते हुए एकाधिकारवादी औद्योगिक विकास की दिशा में अग्रसर वैश्विक समाज के सामने यह बड़ी चुनौती है कि असंतुलित हो चुके प्राकृतिक तंत्र को संतुलित कैसे किया जाए? वनों के ह्रास की प्रक्रिया, पर्यावरण को सीधे तौर पर प्रभावित करती है, बावजूद इसके भारत सहित दुनिया के अधिकांश देशों के वन क्षेत्रों में तेजी से कमी आ रही है। औद्योगिक विकास और मानवीय स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रतिदिन लाखों पेड़-पौधों का गला घोंटा जा रहा है। कुछ वर्ष पहले पेड़ों की संख्या अधिक थी तो समय पर बारिश होती थी और गर्मी भी कम लगती थी, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, पानी तरसा रहा है और गर्मी झुलसा रही है। दरअसल, औद्योगिक कूड़ा-कचरा, सभी प्रकार के प्रदूषण, कार्बन उत्सर्जन, ग्रीनहाउस प्रभाव और ग्लोबल वार्मिंग से पूरा पर्यावरण दूषित हो गया है। बढ़ती आबादी और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति के चक्कर में निर्दोष पेड़-पौधों की बलि चढ़ाई जा रही है। इसी का नतीजा है कि पारिस्थितिक तंत्र बिल्कुल विच्छेद हो गया है। बढ़ते वैश्विक ऊष्मण के कारण आसमान से आग बरस रही है जबकि, मानसून की अनियमितता की वजह से देश में सूखा और बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती रहती है।
पृथ्वी पर जीवन को खुशहाल बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि पृथ्वी को तंदुरुस्त रखा जाये। धरती की सेहत का राज है वृक्षारोपण। नाना प्रकार के पेड़-पौधे हमारी पृथ्वी का श्रृंगार करते हैं। वृक्षारोपण कई मर्ज की दवा भी है। पर्यावरण संबंधी अधिकांश समस्याओं की जड़ वनोन्मूलन है। वैश्विक ऊष्मण, बाढ़, सूखा जैसी समस्याएं वनों के ह्रास के कारण ही उत्पन्न हुई हैं। मजे की बात यह है कि इसका समाधान भी वृक्षारोपण ही है। पौधे बड़े पैमाने पर लगाए जाने चाहिए। पौधे लगाकर उसकी रक्षा करना कठिन कार्य जरूर है, किंतु यह संभव है। जंगल, पृथ्वी का महत्वपूर्ण हिस्सा है। एक समय धरती का अधिकांश हिस्सा वनों से आच्छादित था, किंतु आज इसका आकार दिन-ब-दिन सिमटता जा रहा है। मानसून चक्र को बनाए रखने, मृदा अपरदन को रोकने, जैव-विविधता को संजोये रखने और दैनिक उपभोग की दर्जनाधिक उपदानों की सुलभ प्राप्ति के लिए जंगलों का होना बेहद जरूरी है। आहार श्रृंखला के विच्छेद होने और जैव-विविधता में कमी लाने का एक बड़ा कारक जंगलों का सफाया करना है। इसके साथ ही यह सूखे की समस्या और प्राकृतिक असंतुलन के लिए भी जिम्मेदार है। आज हमारी पृथ्वी अनेक समस्याओं से जूझ रही है। यह स्थिति अनियंत्रित व अंधाधुंध विकास के चलते उत्पन्न हुई है। पृथ्वी की रक्षा हेतु विकास के सततपोषणीय रूप को व्यवहृत करने की जरूरत है।
सुधीर कुमार
(लेखक सामाजिक तथा पर्यावरणीय विषयों पर लिखते हैं)