जब देश के पढ़े–लिखे बुद्धिजीवी लोग जिनमें कुछ डॉक्टर वकील, शिक्षक, प्रोफेसर, स्कूल कॉलेज के डायरेक्टर, पत्रकार, संपादक जैसे लोग सीएए और एनआरसी में अंतर समझे बिना मुस्लिम समुदाय को भ्रमित करने वाली बातें सोशल मीडिया में कथित सेक्युलरिज्म या फिर गंगा जमुनी तहजीब के नाम पर डालते हैं तो उनकी शिक्षा ही नहीं उनकी नीयत पर भी शक होने लगता है। चूँकि अपने प्रति यह शक स्वयं उन्होंने उत्पन्न किया है इसलिए उनसे कुछ उत्तर भी अपेक्षित हैं।
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पहले बात सीएए की
1, क्या आपने अपनी शिक्षा का उपयोग करके सीएए को पढ़ा है या फिर सिर्फ सुनी सुनाई बातों पर यकीन कर रहे हैं?
2, अगर नहीं पढ़ा, तो जिन मुसलमानों की आपको कथित चिंता हो रही है उन्हें ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर बिना पढ़े क्यों डरा रहे हो?
3, आपको क्या लगता है आपके इस गैर जिम्मेदाराना आचरण से आप किसका भला कर रहे हो, मुसलमानों का या देश का ?
4, जब आप सीएए को लेकर अपनी चिंताएं व्यक्त करते हैं तो वो किन मुसलमानों की चिंता होती है भारतीय मुसलमानों की या फिर गैर भारतीय मुसलमानों की?
5, अगर आपकी चिंता भारतीय मुसलमानों को लेकर है तो कृपया निश्चिंत हो जाइए क्योंकि इस कानून में केवल नागरिकता देने का ही प्रावधान किया गया है किसी की नागरिकता छीनने का नहीं।
6, अगर आप विदेशी मुसलमानों की चिंता कर रहे हैं तो आपका सेक्युलरिज्म खुद ही संदेह के घेरे में आ जाता है जब आपका सेक्युलरिज्म हिन्दू, सिख, बौद्ध, इसाई, पारसी और जैन समुदाय के नागरिकों की पीड़ा नहीं समझ पाता वो केवल मुसलमानों से शुरू हो कर मुसलमानों पर ही खत्म हो जाता है।
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अब बात एनआरसी की,
1, एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स मतलब देश में रहने वाले नागरिकों की जानकारी। दुनिया के लगभग हर देश के पास उनका नागरिक रेजिस्टर होता है।
2, भारत में 1951 में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए पूरे देश में एनआरसी लागू करवा चुके थे। अब इस बात से तो आप सभी सहमत होंगे कि इतने सालों में उसे अपडेट करना तो बनता ही है।
3, अभी मौजूदा सरकार ने केवल जवाहरलाल नेहरु के उस काम को मौजूदा वक्त में मौजूदा तारीख के हिसाब से सही करने की बात कही है।
4, फिलहाल इस वक्त तक सरकार ने एनआरसी को लेकर ना तो लोकसभा, ना राज्यसभा और ना ही किसी कैबिनेट मीटिंग में कोई चर्चा की है।
5, ना ही सरकार ने अधिकृत रूप से एनआरसी के लिए आवश्यक दस्तावेजों की कोई सूची जारी की है।
6, असम को भारतीय संविधान में 371 के अंतर्गत विशेष दर्जा हासिल है इसलिए वहाँ की एनआरसी की प्रक्रिया ही पूरे देश में भी लागू होगी, ऐसी बात करना मूर्खता है क्योंकि असम की सीमा बांग्लादेश से मिलती है इसलिए भी वहाँ की परिस्थितियाँ बाकी देश से भिन्न हैं।
7, अगर कागज मांगे भी जाएंगे तो केवल खालिद भाई, नसीर भाई, शौकत अली या फिर मोमिना बेगम से ही नहीं बल्कि तोमर जी, शर्मा जी, ठाकुर जी, पमनानी जी और जैन साहब से भी मांगे जाएंगे।
8, आज बच्चे को स्कूल में भर्ती कराना हो, कॉलेज में एडमिशन करना हो, नौकरी के लिए आवेदन करना हो तब जन्मतिथि प्रमाणपत्र से लेकर आय प्रमाण पत्र तक तमाम कागजात देने वाले लोग आज कागजों का रोना रो रहे हैं।
9, आज चाहे कोई प्राइवेट इंस्टिट्यूशन हो या सरकारी, छोटी सी दुकान हो या माल सबके पास अपने यहाँ काम करने वाले लोगों का ही डेटा नहीं होता बल्कि वो अपने ग्राहकों का भी डेटा एकत्र करते हैं। इन लोगों को ग्राहक बनके बड़ी बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों को अपना फोन नंबर, अपना क्रेडिट कार्ड, अपना मेल आईडी देने में दिक्कत नहीं है लेकिन देश को अपनी जानकारी देने में परेशानी है।
10, हैरत की बात यह है कि जो लोग सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए जाति और आय प्रमाण पत्र बनवाने के लिए समय और पैसा दोनों बर्बाद कर देते हैं वो कागजों का रोना रो रहे हैं।
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और अंत मं जिन लोगों को सीएए के जरिए शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने में अपने देश के संसाधनों की कमी याद आ जाती है उनके लिए एक तथ्य यह है- पाकिस्तान में 3.7%, अफगानिस्तान में 0.4% और बांग्लादेश में 9.4% गैर मुस्लिम जनसँख्या है, अगर आप यह कहते हैं कि ये सभी भारत में शरण ले लेंगे तो एक तरह से आप खुद इन देशों में गैर मुस्लिमों के साथ होने वाले भेदभाव को स्वीकार कर रहे हैं।
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दूसरी बात इनमे से जितने भी लोग भारत में आएँगे, उनकी संख्या उन घुसपैठियों से तो कम ही होगी जोकि एनआरसी के द्वारा बाहर कर दिये जाएँगे, इनकी संख्या एक अनुमान के तहत 3 करोड़ से ऊपर है, यह 3 करोड़ लोग अन-अधिकृत रूप से दीमक की तरह इस देश के संसाधनों पर डाका डाल रहे हैं लेकिन कुछ राजनैतिक दलों का यह गैर कानूनी वोट बैंक बन चुके हैं इसलिए यह दल देश को गुमराह कर के, मुसलमानों में भय का वातावरण बना कर एनआरसी का विरोध कर रहे हैं। जो बुद्धिजीवी बगैर यह सब जाने एनआरसी का विरोध कर रहे हैं वो केवल मात्र इन राजनैतिक दलों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं।
-डॉ. नीलम महेंद्र