By सुरेश हिंदुस्थानी | Feb 19, 2021
कभी वामपंथी राजनीति का मजबूत गढ़ रहे पश्चिम बंगाल राज्य में गहरे तक पांव जमाए ममता बनर्जी के राजनीतिक अस्तित्व की परतें उधेड़ने लगी हैं। वैसे तो पिछले लोकसभा चुनाव के परिणामों ने ममता बनर्जी की छत्रछाया में पनप रही तृणमूल कांग्रेस के धरातलीय आधार को यह स्पष्ट संकेत दे दिया था कि तृणमूल कांग्रेस के विजयी रथ पर कुछ हद तक लगाम लग चुकी है। बंगाल में शून्य से शिखर पर जाने का जीतोड़ प्रयास करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने ममता के किले को उस स्थान से खिसकाने का प्रयास किया है, जो पिछले 15 वर्षों से बंगाल की राजनीति में ममता ने बनाया था। हालांकि प्रारंभ में ममता बनर्जी भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा रहीं, जिसके कारण पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के शासन को जड़ से उखाड़ फेंका और ममता बनर्जी के सिर पर सत्ता का ताज स्थापित हो गया। इसके बाद ममता बनर्जी ने जिस प्रकार की राजनीति की, उसके चलते भाजपा और तृणमूल कांग्रेस एक दूसरे के राजनीतिक दुश्मन बनकर सामने आ गए। जिसकी परिणति स्वरूप आज दोनों दल एक दूसरे को पटखनी देने के दांवपेच खेल रहे हैं।
पश्चिम बंगाल में लोकसभा के चुनाव के बाद ही भाजपा की बढ़ती ताकत का अहसास हो गया था, वहीं ममता बनर्जी की तानाशाही प्रवृति का शिकार बनी तृणमूल कांग्रेस डूबता जहाज बनने की ओर अग्रसर होती दिखाई दे रही है। हालांकि यह कितना सही साबित होगा, यह अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन तृणमूल कांग्रेस के दिग्गज नेता आज ममता बनर्जी से किनारा करने की प्रतीक्षा की ताक में हैं। अभी हाल ही में ममता बनर्जी के खास माने जाने वाले और तृणमूल कांग्रेस को राजनीतिक अस्तित्व में लाने वाले दिग्गज नेता दिनेश त्रिवेदी ने तृणमूल कांग्रेस से छलांग लगाने के बाद जो वक्तव्य दिया है, वह निश्चित ही इस बात का संकेत करने के काफी है कि अब ममता बनर्जी की आगे की राजनीतिक राह आसान नहीं है। वैसे तृणमूल कांग्रेस की आंतरिक राजनीति का अध्ययन किया जाए तो यही परिलक्षित होता है कि इसके लिए स्वयं ममता बनर्जी ही जिम्मेदार हैं। तृणमूल कांग्रेस में अपने पारिवारिक सदस्यों को महत्व देने के बाद पार्टी को सत्ता के सिंहासन पर पहुंचाने वाले वरिष्ठ नेता नाराज दिखाई दे रहे हैं। कुछ नेता खुलकर बोलने लगे हैं तो कुछ अभी समय की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। सवाल यह आता है कि जब इतने बड़े नेता तृणमूल कांग्रेस में अपमानित महसूस कर रहे हैं, तब छोटे कार्यकर्ताओं की क्या स्थिति होगी, इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है।
पश्चिम बंगाल की वर्तमान राजनीति का अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बनर्जी भविष्य की राजनीति को लेकर भयभीत हैं। यह भय सत्ता चले जाने का है। इसके बाद भी ममता बनर्जी पूरी ताकत के साथ अपनी पार्टी की नाव को एक बार फिर से पार करने का साहस दिखा रही हैं। इसे साहस कहा जाए या ममता बनर्जी की बौखलाहट, क्योंकि ममता बनर्जी वर्तमान में अपनी पार्टी की नीतियों को कम भारतीय जनता पार्टी को कोसने में ज्यादा समय व्यतीत कर रही हैं। ऐसा लगता है कि वह अपने ही देश की सरकार के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित हो चुकी हैं। इसलिए आज उन्हें भगवान श्रीराम के नाम से चिढ़ हो रही है। जबकि यह सभी जानते हैं कि भारत में भगवान राम का अस्तित्व तब से है, जब न तो भाजपा थी और न ही ममता बनर्जी। इतना ही नहीं आज के राजनीतिक दल भी नहीं थे। इसलिए ममता बनर्जी ने इस नारे को भाजपा से जोड़कर देखने का जो भ्रम पाल रखा है, वह नितांत उनकी संकुचित सोच या एक वर्ग विशेष के प्रति नरम रवैए को ही प्रदर्शित करता है। ममता बनर्जी ऐसा क्यों कर रही हैं, ये तो वही जानें, लेकिन भाजपा ने वही किया है जो उनके घोषणा पत्र में है और इसी घोषणा पत्र पर भाजपा को लोकतांत्रिक रूप से व्यापक समर्थन भी मिला है। यहां यह कहना तर्कसंगत ही होगा कि भारत की जनता ने भाजपा की नीतियों से प्रभावित होकर ही समर्थन दिया है। इसलिए ममता बनर्जी के कदम को अलोकतांत्रिक कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
वर्तमान में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के समक्ष अपना प्रदर्शन दोहराने की बड़ी चुनौती है। यह चुनौती किसी किसी और ने नहीं, बल्कि उनके करीबियों ने ही पैदा की है। प्रायः सुनने में आता है कि तृणमूल कांग्रेस का कोई भी नेता अपने विरोधी राजनीतिक दल के नेता को सहन करने की मानसिक स्थिति में नहीं है। सवाल यह आता है इस प्रकार की मानसिकता का निर्माण किसने किया? स्वाभाविक ही है कि वरिष्ठ नेतृत्व के संरक्षण के बिना यह संभव ही नहीं है। इसी कारण बंगाल में लगातार होती राजनीतिक हिंसा में सीधे-सीधे तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को आरोपी समझ लिया जाता है। ऐसे घटनाक्रमों को देखकर जो व्यक्ति सात्विक और देश हितैषी राजनीति करने को ही असली रास्ता मानते हैं, वे तृणमूल कांग्रेस से दूरी बनाने की मानसिकता में आते जा रहे हैं। अभी तक कई दिग्गज राजनेता तृणमूल से दामन छुड़ा चुके हैं। भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के कथनों पर भरोसा किया जाए तो यह संख्या और बढ़ने वाली है। गृहमंत्री अमित शाह ने दावा किया है कि ममता दीदी का यही व्यवहार रहा तो बंगाल के विधानसभा चुनावों के समय तक अकेली खड़ी रह जाएंगी। अमित शाह द्वारा यह कहना कहीं न कहीं यही संकेत कर रहा है कि भाजपा अपेक्षित सफलता के प्रति आशान्वित है।
पश्चिम बंगाल के बारे में कहा जाता है कि राज्य की सबसे बड़ी समस्या बांग्लादेशी घुसपैठ की है। जहां राजनीतिक संरक्षण के चलते यह घुसपैठिए असामाजिक गतिविधियों में भी संलग्न पाए जाते हैं। इसके पीछे मूल कारण यही माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इन्हीं घुसपैठियों के समर्थन से अपनी राजनीति कर रही हैं। इससे राज्य में हिंदुओं के प्रति दुर्भावना भी निर्मित हुई है। पश्चिम बंगाल के कई जिलों में आज हिन्दू समाज अल्पसंख्यक की स्थिति में आ चुका है। पश्चिम बंगाल की वर्तमान राजनीति के लिए यह एक बड़ा मुद्दा है। भाजपा के यह मुद्दा संजीवनी का काम कर रहा है, लेकिन बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की कार्यशैली हिंदुओं की इस समस्या के विपरीत ही दिखाई देती है। हद तो तब हो गई, जब ममता बनर्जी बांग्लादेशी घुसपैठियों को बसाने के समर्थन में ताल ठोंककर मैदान में आ गईं। यह भी ममता बनर्जी के राजनीतिक पराभव का बड़ा कारण माना जा रहा है।
कभी पश्चिम बंगाल में राजनीतिक रूप से प्रभावी रही वामपंथी विचारधारा अब लगभग निचले पायदान पर है और कांग्रेस की उम्मीदें चकनाचूर हैं। ऐसे में अब बंगाल में ममता और भाजपा आमने-सामने हैं। राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठेगा, यह फिलहाल घोषित करना जल्दबाजी ही होगी, लेकिन बंगाल में जिस प्रकार राजनीतिक वातावरण प्रदर्शित हो रहा है, वह कमोबेश यह बताने के लिए काफी है कि ममता बनर्जी की भावी राजनीतिक राहें उनके लिए कई प्रकार की कठिनाइयों को जन्म दे रही हैं। जो ममता बनर्जी की सत्ता प्राप्त करने में बड़ी अवरोधक भी बन सकती हैं।
-सुरेश हिन्दुस्थानी
(लेखक राष्ट्रीय विषयों के जानकार हैं)