By अजय कुमार | Mar 16, 2024
उत्तर प्रदेश की राजनीति में जिस कांग्रेस का हमेशा अपर हैंड रहता था, वह अब दूसरों के रहम-ओ-करम पर राजनीति करने को मजबूर हो गई है। प्रदेश में ना उसका वोट बैंक बचा है, ना नेता और संगठन। हाँ, यदि हवा-हवाई बातों से पार्टी को फायदा हो पाता तो जरूर यूपी में कांग्रेस टॉप पर होती, लेकिन ऐसा होता नहीं है। आज का मतदाता अपने नेताओं पर बारीकी से नजर रखता है। इस कसौटी में कांग्रेस की टॉप लीडरशिप और गांधी परिवार पूरी तरह से नाकामयाब रहा है। कांग्रेस के विधान सभा और लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन के आंकड़े भी चुनाव-दर-चुनाव उसके जनाधार खिसकने के साक्षी हैं। यह गिरावट 1984 के बाद चार दशक में आई है। 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सभी 85 सीटों (तब उत्तराखंड की भी पांच सीटें शामिल) पर चुनाव लड़ी थी और 83 सीटों पर जीत हासिल की थी। भले ही तब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के साथ जनभावनाओं का ज्वार था, जिसके सहारे पार्टी ने उत्तर प्रदेश में अपने प्रदर्शन के शिखर को छुआ। यह वह दौर था जब राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस का एकछत्र राज था और बीजेपी की एंट्री भर हुई थी, लेकिन उसकी राजनैतिक विचारधारा कांग्रेस से उलट थी। बीजेपी तुष्टिकरण की जगह हिन्दुत्व की बात करती थी। अयोध्या, काशी और मथुरा उसके एजेंडे में प्रमुख रूप से शामिल थे, जिससे कांग्रेस हमेशा किनारा करती रही थी। वहीं क्षेत्रीय दलों के रूप में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जातिवादी राजनीति को आगे बढ़ा रहे थे। प्रदेश की राजनीति में बदले समीकरणों ने जहां दूसरे दलों के लिए नई संभावनाएं जगाईं, वहीं कांग्रेस को अपनों से मायूसी ही मिलती गई। 1984 में 51.03 प्रतिशत वोट हासिल करने वाली कांग्रेस फिर ऐसे जनाधार को वापस नहीं हासिल कर सकी। आज उसका जनाधार दो प्रतिशत में सिमट गया है।
दरअसल, प्रदेश में सपा व बसपा के उदय के साथ ही कांग्रेस पीछे होती गई और भाजपा की प्रखर हिंदुत्व वाली छवि ने उसकी राह और मुश्किल कर दी। ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम कांग्रेस के परंपरागत वोटर माने जाते थे। सपा के उदय के साथ मुस्लिम कांग्रेस से छिटक कर उसके पाले में चला गया। बसपा ने कांग्रेस के दलित वोट बैंक पर कब्जा कर लिया। कांग्रेस से मोहभंग के बाद ब्राह्मणों ने भाजपा का दामन थाम लिया। वर्ष 2000 में उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड के अलग होने के बाद की बात की जाए तो कांग्रेस वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में 80 सीटों पर लड़ी थी और 21 सीटों पर जीत हासिल की थी। पिछले ढाई दशक में यह कांग्रेस का सर्वाधिक उत्साहित करने वाला प्रदर्शन था। इसके पीछे कांग्रेस की मनरेगा व खाद्य सुरक्षा को लेकर नीतियों की बड़ी भूमिका मानी गई थी। कांग्रेस केंद्र में दोबारा सरकार बनाने में सफल हुई थी। इसके बावजूद कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपनी साख को बचाए रखने में कामयाब नहीं रही।
उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार बढ़ाने के लिय पार्टी ने कई प्रयोग भी किए। राहुल गांधी को यूपी में पैर पसारने के लिये खुली छूट दी गई, इसके नतीजे उत्साहवर्धक नहीं आये तो प्रियंका वाड्रा को प्रदेश का प्रभारी भी बनाया गया, लेकिन बूथ स्तर पर कमजोर हुई पार्टी के सामने कार्यकर्ताओं में पुराना जोश भरना सपना ही रहा। उधर, कांग्रेसी नेता आपस में टांग खिंचाई करते रहे, जिसकी वजह से पार्टी में अंतरकलह भी बढ़ता गया। 2014 लोकसभा चुनाव के बाद केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में 2009 का अपना प्रदर्शन दोहराने को तरसती ही रही। नेहरू-गांधी परिवार का उत्तर प्रदेश से गहरा रिश्ता होने के बाद भी पार्टी खोया दमखम नहीं जुटा सकी। पिछले चुनाव में कांग्रेस रायबरेली की एकमात्र सीट पर ही जीत का स्वाद चख सकी थी। पिछले लोकसभा चुनाव में अमेठी से राहुल गांधी तक हार गये। जबकि रायबरेली की सांसद सोनिया गांधी अबकी बार सदन में जाने के लिये राज्यसभा सदस्य बन चुकी हैं। इस बार वह भी चुनाव नहीं लड़ेंगी। ऐसे में कांग्रेस के सामने उत्तर प्रदेश में अपनी खोई जमीन तलाशने के साथ ही परंपरागत सीट अमेठी व रायबरेली में अपनी साख को बचाए रखने की चुनौती से जूझ रही है।
इससे निपटने के लिए पार्टी सपा से गठबंधन के तहत उसके हिस्से आईं 17 सीटों पर पूरी ताकत झोंकने की तैयारी में है। प्रदेश मुख्यालय में वार रूम की स्थापना की गयी है और अमेठी व रायबरेली समेत 17 लोकसभा सीटों के 34 हजार बूथों पर एजेंट जुटाए जा रहे हैं। वार रूम के सदस्य संजय दीक्षित के अनुसार, 17 लोकसभा क्षेत्रों में अब तक 18 हजार बूथ लेवल एजेंट नियुक्त किए जा चुके हैं। शेष को भी जल्द नियुक्त करने की प्रक्रिया चल रही है। इसके अलावा वार रूम के 10 डेस्क हेड भी बनाए गए हैं और सभी को आठ-आठ लोकसभा क्षेत्रों की जिम्मेदारी दी गई है। इस प्रकार सभी 80 लोकसभा सीटों पर बूथ स्तर पर संगठन को खड़ा किया जा रहा है। कुल मिलाकर यूपी से अपने नेताओं को संसद भेजने के लिये कांग्रेस को शून्य से सफर शुरू करना होगा और इसके लिये उसके सिर्फ 17 प्रत्याशी मैदान में होंगे। क्योंकि समाजवादी पार्टी ने गठबंधन धर्म निभाते हुए यूपी में कांग्रेस को 80 में से 17 सीटें देने के लायक ही समझा है।
-अजय कुमार