जवानों में बहादुरी दिखाने के जुनून पर SOP का पालन ना करना पड़ रहा है भारी

By सुरेश डुग्गर | Feb 25, 2019

जम्मू। दुश्मन का मुकाबला करते हुए जान देने को एक फौजी के शब्दों में बहादुरी कहा जा सकता है पर आतंकियों से मुकाबले में यह बहादुरी नहीं मानी जा सकती क्योंकि बहादुरी दिखाने के जुनून में एसओपी का पालन न करना सुरक्षाधिकारियों पर भारी पड़ रहा है। इसमें सबसे बड़ी चिंता यह है कि आतंकियों ने अपनी नीति को बदलते हुए अब मुठभेड़ों में सिर्फ अधिकारियों को स्नाइपर राइफलों से निशाना बनाना आरंभ किया है। पिछले एक सप्ताह के दौरान होने वाली मुठभेड़ों पर नजर डालें तो या स्पष्ट होता है। यह सच है कि आतंकी उनकी खोज में लगी सुरक्षाबलों की पहली टुकड़ी पर सीधा प्रहार करने की बजाए, वरिष्ठ अधिकारियों को निशाना बना रहे है। अकसर मुठभेड़ के दौरान सुरक्षाबलों को सबसे अधिक नुकसान उस समय होता था, जब वह छुपे हुए आतंकियों की तलाश में जुटे हुए होते है।

कुलगाम के तूरिगम में आतंकियों की तलाश में सुरक्षा बलों ने अभियान चलाया था। इस दौरान एक घर में जैश ए मुहम्मद के दो आतंकी छुपे हुए थे। दोनों आतंकी घर से झांक कर सुरक्षा बलों की गतिविधियों को देख रहे थे। जैसे ही मुठभेड़ स्थल पर सेना का मेजर और डीएसपी अमन ठाकुर उनके निशान पर आए तो आतंकियों ने उन पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसानी शुरू कर दी। आतंकी हमले में मेजर को गोली लग गई, घायल मेजर को बचाते हुए अमन ने अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं की और सीधे आतंकियों के निशाने पर आ गया। इससे पूर्व 18 फरवरी को पुलवामा के पिंगलेना गांव में सुरक्षा बलों और आतंकियों के बीच जम्मू कश्मीर पुलिस के डीआईजी अमित कुमार सेना के ब्रिगेडियर और लेफ्टिनेंट कर्नल समेत समेत कुछ अन्य जवान घायल हो गए थे। इस मुठभेड़ में जैश-ए-मोहम्मद के दो टाप कमांडर ढेर हो गए थे। इनमें पुलवामा में सीआरपीएफ काफिले पर आत्मघाती हमले के मास्टरमाइंड भी शामिल था। आतंकियों ने मुठभेड़ के दौरान पुलिस तथा सेना के वरिष्ठ अधिकारियों के उनकी रेंज में आने का इंतजार किया था और मौका पाते हीं गोलियां चलानी शुरू कर दी थी। 

 

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वर्ष 2015 में भी ऐसे ही एक मामले में शहीद हुए कर्नल एमएन राय घर में छुपे आतंकियों को मुठभेड़ में मारने की बजाय जिंदा पकड़ना चाहते थे। पर कामयाब नहीं हुए और इसमें कर्नल राय और पुलिस के एक जवान को गोली लगी और वे शहीद हो गए। इस अभियान की यह सबसे बड़ी गलती थी कि कर्नल राय ने आतंकियों के परिजनों पर विश्वास किया था और बहादुरी के जुनून में आतंकियों की ओर खुद ही आगे बढ़ चले थे। फिर वर्ष 2014 में भी इसी प्रकार के एक ऑपरेशन में 5 दिसंबर को उड़ी क्षेत्र आतंकियों के साथ मुठभेड़ में लेफ्टिनेंट कर्नल संकल्प शुक्ला समेत 11 सुरक्षाकर्मी शहीद हो गए थे। सेना का कहना है कि यह भी बड़ा ऑपरेशन था और सेकंड इन कमान होने के नाते शुक्ला खुद ही ऑपरेशन का नेतृत्व कर रहे थे। आतंकी हमलों में कर्नल स्तर के अधिकारियों को खोने के बावजूद सेना मुख्यालय ने साफ किया है कि वह फील्ड ऑपरेशनों को लेकर कोई संचालनात्मक मानक प्रक्रिया (एसओपी) में बदलाव नहीं करेगी।

 

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सेना के एक अधिकारी के अनुसार यह कमांडिंग ऑफिसर पर निर्भर करता है कि वह खुद ऑपरेशन में हिस्सा ले या अपनी टीम को भेजे। मौजूदा नियमों के तहत वह खुद नेतृत्व करे ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। ऐसा भी कोई नियम नहीं है कि किसी छोटे ऑपरेशन की कमान वह अपने हाथ में नहीं ले, बल्कि जूनियर अधिकारियों को लगाए। यह अधिकारी की बहादुर और सूझ-बूझ पर निर्भर करता है। इस सबके बाबूजद कश्मीर में आतंकियों के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियानों पर सवाल इसलिए उठ खडे़ होने लगे हैं कि एसओपी का पालन न करना बहुत बार भारी पड़ने लगा है। यही नहीं बड़े सेनाधिकारी भी बहादुरी दिखाने के जुनून में आतंकियों को मौका दे देते हैं कि वे बड़े अधिकारियों को मार कर सीमा पार अपने आकाओं को ‘खुश’ कर सकें। एक सुरक्षाधिकारी के मुताबिक, आतंकियों के परिजनों पर विश्वास की एक सीमा तय होनी चाहिए और एसओपी का अक्षरशः पालन भी ताकि कीमती सेनाधिकारियों की जानों को बचाया जा सके।

 

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