माँ और सन्तान के बीच गर्भनाल का रिश्ता ही ऐसा होता है, कि प्रसव के बाद शरीर अलग होने के बावजूद भी आत्मीयता बनी रहती है। सन्तान को पीड़ा हो तो माँ बिलख उठती है। ऐसा ही गत 25 जुलाई को संसद भवन में देखने को मिला जब पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और जालन्धर से कांग्रेस के सांसद चरनजीत सिंह चन्नी ने खालिस्तान समर्थक सांसद अमृतपाल के पक्ष में आह भरी। चन्नी के शब्दों में 20 लाख लोगों के खडूर साहिब लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र के प्रतिनिधि अमृतपाल को जेल में रखा जा रहा है, यह भी एमरजेंसी है। ज्ञात रहे कि राष्ट्रीय सुरक्षा कानून में डिब्रूगढ़ जेल में नजरबन्द खालिस्तान प्रचारक व अजनाला कोतवाली हिंसा का मुख्य आरोपी अमृतपाल निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीता है और कांग्रेस सांसद चन्नी लोकसभा में उसके ही पक्ष में बोल रहे थे। रोचक बात तो ये है कि अमृतपाल को जेल में भेजने वाली पंजाब में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी के सांसद भी सुन्न अवस्था में चन्नी के साथ वाली सीटों पर ही बैठे थे।
वैसे चन्नी के बौद्धिक व प्रशासनिक योग्यता के स्तर का इसी बात से अनुमान लगाया जा सकता है कि फरवरी, 2018 में कैप्टन अमरिन्द्र सिंह की सरकार के तकनीकी शिक्षा मन्त्री रहते हुए उन्होंने प्राध्यापकों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि क्रिकेट की तरह टॉस करके की थी। उस समय देश-दुनिया में इस घटना को बड़े हास्यस्पद अन्दाज में कहा और सुना गया था। बाद में मुख्यमन्त्री बनने के बाद चन्नी प्रधानमन्त्री की सुरक्षा भी सुनिश्चित नहीं कर पाए और बठिण्डा से फिरोजपुर जाते हुए कथित किसान आन्दोलनकारियों ने प्रधानमन्त्री के काफिले को घेर लिया था। इस पर चन्नी ने सुरक्षा की सारी जिम्मेवारी केन्द्रीय सुरक्षा एजेंसियों पर डालने का प्रयास किया। केवल इतना ही नहीं, लोकसभा चुनावों के समय जम्मू-कश्मीर में हुए आतंकी हमलों को चन्नी ने भाजपा की रणनीति बताया था। अब चन्नी द्वारा किसी खालिस्तानी का समर्थन करना चाहे किसी को चौंकाता हो परन्तु 1980 के दशक की राजनीतिक कलाबाजियां देख चुकी पीढ़ी अच्छी तरह जानती है कि चन्नी का अमृतपाल के प्रति दु:ख अनायास नहीं बल्कि यह कांग्रेस और खालिस्तान के बीच गर्भनाल के रिश्ते की टीस है।
देश के समक्ष अब यह रहस्य नहीं रहा कि अलगाववादी सोच के व्यक्ति जरनैल सिंह भिण्डरांवाले को पंजाब की अकाली राजनीति को कमजोर करने के लिए कांग्रेस ने मैदान में उतारा और उस पर खालिस्तानी लेबल चस्पा किया। रिसर्च एण्ड एनालाइसेज विंग (रॉ) के सेवानिवृत अधिकारी जी.बी.एस. सिद्धू अपनी पुस्तक ‘खालिस्तान षड्यन्त्र की इनसाइड स्टोरी’ में दावा करते हैं कि जब भी भिण्डरांवाले से कोई संवाददाता खालिस्तान की मांग के बारे पूछते तो उसका यही जवाब होता था कि- हम खालिस्तान की मांग नहीं करते पर सरकार इसका प्रस्ताव करती है तो हम इन्कार भी नहीं करेंगे।’
चूंकि पंजाब के नर्म दलीय अकाली नेताओं को कमजोर करने के लिए गर्मदलीय लोगों के साथ खालिस्तान का लेबल चस्पा करना जरूरी था, तो 13 अप्रैल, 1978 में हुए निरंकारी-सिख टकराव की घटना के बाद ऐसी शक्ति का खड़ा करना जरूरी हो गया जो खुल कर खालिस्तान की बात करे। चूंकि भिण्डरांवाला न तो खालिस्तान की मांग करने वाला था और न ही विरोध, तो उसके साथ इस बिखराव की मांग को आसानी से जोड़ा जा सकता था। उस समय कांग्रेस नेताओं ने यह काम बड़ी बाखूबी किया।
उस समय भारत में काम कर रहे बीबीसी लन्दन के पत्रकार मार्क टुल्ली व सतीश जैकब की पुस्तक ‘अमृतसर- मिसेज गान्धी लास्ट बैटल’ के पृष्ठ 60 पर दावा करते हैं कि ‘इस काम के लिए पंजाब में दल खालसा के नाम से कट्टरवादी संगठन का गठन किया गया। इसकी पहली बैठक चण्डीगढ़ के अरोमा होटल में हुई जिसका 600 रुपये का भुगतान ज्ञानी जैल सिंह द्वारा किया गया।’
पत्रकार कुलदीप नैयर की पुस्तक ‘बियाण्ड द लाइन्स -एन ऑटोबायोग्राफी’ के अनुसार, ‘इस संगठन के उद्घाटन समारोह में सिख पन्थ की अवधारणा और उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को जीवित रखने का संकल्प लिया गया। संगठन का राजनीतिक उद्देश्य खालसा का बोलबाला बताया गया।’
एक अन्य पत्रकार जीएस चावला अपनी पुस्तक ‘ब्लडशेड इन पंजाब- अनटोल्ड सागा ऑफ डिसीट एण्ड सैबोटेज’ में लिखते हैं कि-‘दल खालसा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष ने पहले चण्डीगढ़ में एक पूर्व कांग्रेसी सांसद के यहां स्टेनोग्राफर की नौकरी की थी। 6 अगस्त, 1978 को चण्डीगढ़ के सेक्टर 35 में स्थित गुरुद्वारा श्री अकालगढ़ में आयोजित प्रेस कान्फ्रेंस में यह घोषणा की गई कि दल खालसा की स्थापना का मुख्य उद्देश्य स्वतन्त्र सिख साम्राज्य की स्थापना सुनिश्चित करना है। अगले दिन पंजाब के कई समाचारपत्रों में यह खबर छपी, प्रेस कान्फ्रेंस का खर्चा भी पंजाब के कांग्रेसी नेताओं ने उठाया।’
देश के सुविख्यात विचारक कुप्पहल्ली सीतारामैया सुदर्शन अपनी पुस्तक ‘यों भटका पंजाब’ में लिखते हैं कि-‘कांग्रेस की आपसी गुटबाजी ने भी पंजाब समस्या को उग्र बनाने में बहुत मदद दी है। केवल दलीय दृष्टिकोण से ही समस्याओं को देखने का उसका स्वभाव रहा है, इसलिए सत्ताहीन अवस्था में अकाली दल को शह देने के लिए उसने भिण्डरावाले को उभारा। कांग्रेस की आपसी धड़ेबन्दी ने भिण्डरावाले की उग्रता के विरुद्ध समय रहते कड़े कदम उठाने नहीं दिये और जब भिण्डरावाले ने भस्मासुर का रूप लेकर अपने वरदाता को ही भस्म करने के लिए हाथ बढ़ाया तब कांग्रेसी शासन को ऐसी कार्यवाही के लिए बाध्य होना पड़ा जिसने समाज में अविश्वास की खाई को और चौड़ा कर दिया तथा उग्रपन्थियों को खुलकर खेलने का मौका दे दिया।’
देश से जुड़े विभिन्न मुद्दों से कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से लेकर काडर तक किस तरह दिशाभ्रम के शिकार हैं इसका अनुमान इसीसे लगाया जा सकता है कि पार्टी एक तरफ तो श्रीमती इन्दिरा गान्धी, श्री राजीव गान्धी व स. बेअन्त सिंह को आतंकियों के हाथों मिली शहादत की विरासत अपना बताती है तो दूसरी ओर अमृतपाल जैसों के दु:ख में पतली होती रही है। और अधिक विस्मयकारी बात तो यह है कि चन्नी को वहां बैठे किसी वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने ऐसा करने से रोका तक नहीं और न ही बाद में खेद जताया गया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पंजाब में खालिस्तानी अलगाववाद व आतंकवाद की आग दबी जरूर है परन्तु पूरी तरह बुझी नहीं। इसका साक्षात् उदाहरण है कि कनाडा, यूके, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे कई देशों में खालिस्तानियों की खुराफात दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही हैं। इन देशों में हिन्दू समाज, मन्दिरों व संस्थानों पर हमले, सोशल मीडिया पर विषैला प्रचार निरन्तर जारी है। ऐसे में खालिस्तानी आतंकवाद को देश की संसद में समर्थन मिलता है तो यह गलती भिण्डरांवाले के पुनर्जीवन सरीखी होगी।
- राकेश सैन