By शुभा दुबे | Jul 06, 2024
भारतीय संस्कृति में धार्मिक और सांस्कृतिक त्योहारों का विशेष महत्व है। इसी कड़ी में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का पर्व देशभर में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। जगन्नाथ रथ यात्रा का मुख्य आयोजन ओडिशा के पुरी नगर में होता है। इस महापर्व में लाखों भक्त भगवान के रथ को खींचने के लिए उत्साह से भरे होते हैं। यह पर्व न केवल धार्मिक भावनाओं का प्रतीक है, बल्कि भारत की सामाजिक एवं सांस्कृतिक समृद्धि का भी प्रतीक है। इस पर्व में भगवान जगन्नाथ के रथ की यात्रा को देखने का अनुभव अद्वितीय होता है। लोग भक्ति और श्रद्धा के साथ रथ को खींचते हैं। आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को खासतौर पर ओडिशा के पुरी नामक स्थान और गुजरात के द्वारका पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा बड़ी धूमधाम से निकाली जाती है। पुरी में श्री जगदीश भगवान को सपरिवार विशाल रथ पर आरुढ़ कराकर भ्रमण करवाया जाता है फिर वापस लौटने पर यथास्थान स्थापित किया जाता है। यह उत्सव अद्वितीय होता है। इस अवसर पर देश विदेश से लाखों श्रद्धालु यहां एकत्र होते हैं। इस उत्सव के दौरान श्रद्धालुओं का भक्ति भाव देखते ही बनता है क्योंकि जिस रथ पर भगवान सवारी करते हैं उसे घोड़े या अन्य जानवर नहीं बल्कि श्रद्धालुगण ही खींच रहे होते हैं।
रथयात्रा के दिन भगवद भक्त व्रत रखते हैं और उत्सव मनाते हैं। पुरी में जिस रथ पर भगवान की सवारी चलती है वह विशाल एवं अद्वितीय है। वह 45 फुट ऊंचा, 35 फुट लंबा तथा इतना ही चौड़ाई वाला होता है। इसमें सात फुट व्यास के 16 पहिये होते हैं। इसी तरह बालभद्र जी का रथ 44 फुट ऊंचा, 12 पहियों वाला तथा सुभद्रा जी का रथ 43 फुट ऊंचा होता है। इनके रथ में भी 12 पहिये होते हैं। प्रतिवर्ष नए रथों का निर्माण किया जाता है। भगवान मंदिर के सिंहद्वार पर बैठकर जनकपुरी की ओर रथयात्रा करते हैं। जनकपुरी में तीन दिन का विश्राम होता है जहां उनकी भेंट श्री लक्ष्मीजी से होती है। इसके बाद भगवान पुनः श्री जगन्नाथ पुरी लौटकर आसनरुढ़ हो जाते हैं।
भारत के मुख्य पर्वों में दस दिवसीय रथयात्रा महत्वपूर्ण स्थान रखती है। भगवान श्रीकृष्ण के अवतार 'जगन्नाथ' की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। जगन्नाथ जी का रथ 'गरुड़ध्वज' या 'कपिलध्वज' कहलाता है। रथ पर जो ध्वज है, उसे 'त्रैलोक्यमोहिनी' या ‘नंदीघोष’ रथ कहते हैं। बलराम जी का रथ 'तलध्वज' के नाम से पहचाना जाता है। रथ के ध्वज को 'उनानी' कहते हैं। जिस रस्सी से रथ खींचा जाता है वह 'वासुकी' कहलाता है। सुभद्रा का रथ 'पद्मध्वज' कहलाता है। रथ ध्वज 'नदंबिक' कहलाता है। इसे खींचने वाली रस्सी को 'स्वर्णचूडा' कहते हैं।
भगवान की रथयात्रा में सभी वर्गों के लोग शामिल होते हैं। रथयात्रा आरंभ होने से पहले पुराने राजाओं के वंशज पारंपरिक ढंग से सोने के हत्थे वाली झाडू से ठाकुर जी के प्रस्थान मार्ग को साफ करते हैं। इसके बाद मंत्रोच्चार एवं जयघोष के साथ रथयात्रा शुरू होती है। सर्वप्रथम बलभद्र का रथ तालध्वज प्रस्थान करता है। थोड़ी देर बाद सुभद्रा की यात्रा शुरू होती है। अंत में लोग जगन्नाथ जी के रथ को बड़े ही श्रद्धापूर्वक खींचते हैं। मान्यता है कि रथयात्रा में सहयोग से मोक्ष मिलता है, अत: सभी श्रद्धालु कुछ पल के लिए रथ खींचने को आतुर रहते हैं। जगन्नाथ जी की यह रथयात्रा गुंडीचा मंदिर पहुंचकर संपन्न होती है। 'गुंडीचा मंदिर' वहीं पर स्थित है जहां विश्वकर्मा जी ने तीनों देव प्रतिमाओं का निर्माण किया था। यह भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। यहां भगवान एक सप्ताह प्रवास करते हैं और इस दौरान यहीं पर उनकी पूजा की जाती है। आषाढ़ शुक्ल दशमी को जगन्नाथ जी की वापसी यात्रा शुरू होती है। शाम तक रथ जगन्नाथ मंदिर पहुंच जाते हैं लेकिन प्रतिमाओं को अगले दिन ही मंत्रोच्चार के साथ मंदिर के गर्भगृह में फिर से स्थापित किया जाता है।
- शुभा दुबे