कई राज्यों के चुनाव सिर पर हैं और बेरोजगारी की समस्या बड़ा मुद्दा बनती जा रही है

By अजय कुमार | Sep 28, 2020

एक तरफ केन्द्र की मोदी सरकार निजीकरण की ओर बढ़ रही है तो दूसरी ओर उस पर इस बात का दबाव है कि वह युवाओं के लिए अधिक से अधिक सरकारी नौकरियों की व्यवस्था करे। देश का करीब 75 प्रतिशत पढ़ा-लिखा युवा अपने पैरों पर खड़े होने का मतलब येनकेन प्रकारेण सरकारी नौकरी हासिल कर लेना ही समझता है। आश्चर्य होता है कि समाज का बड़ा तबका अपने बच्चों को शिक्षा तो निजी स्कूलों में दिलाता है, लेकिन उनको नौकरी सरकारी कराना चाहता है। ऐसा क्यों है यह समझना मुश्किल नहीं है। अपने देश में सरकारी नौकरी को ‘स्टेट्स सिंबल’ माना जाता है। सरकारी नौकरी हासिल करने के लिए लोग पानी की तरह पैसा बहाने में भी गुरेज नहीं करते हैं। सरकारी नौकरी का मतलब जीवन में सब कुछ ‘हरा ही हरा’ होना है। पूरी जिंदगी को ‘सरकारी गारंटी’ मिल जाती है। इसीलिए हमारे युवा वर्षों तक (जब तक सरकारी नौकरी के लिए तय उम्र की सीमा पार नहीं कर लेते हैं) एक अदद सरकारी नौकरी के लिए इधर-उधर भटकते रहते हैं।

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दरअसल, प्राइवेट जॉब, स्वतः रोजगार या निजी व्यवसाय के मुकाबले सरकारी नौकरी के लिए योग्यता का पैमाना बहुत सीमित होता है, एक बार सरकारी नौकरी का ठप्पा लग जाने के बाद पूरी सरकारी सेवा के दौरान न तो कोई छँटनी होती है, न काम की समीक्षा। अगर होती भी है तो औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं होता है, लेकिन वेतन और अन्य सुविधाएं भरपूर और समय पर मिलता है। सरकारी नौकरी की यही खूबी उसे आम से खास बना देती है। हर युवा सरकारी नौकरी की तरफ भागता है। यह सच है कि समय के साथ नई पीढ़ी का सरकारी नौकरियों की तरफ से रूझान थोड़ा कम हुआ है, लेकिन अभी भी सरकारी नौकरी चाहने वालों का हुजूम ज्यादा कम नहीं हुआ, 21वीं सदी में जिन युवाओं-युवतियों का सरकारी नौकरी की तरफ से मोह भंग हुआ है, उन्हें अपनी योग्यता और मेहनत पर ज्यादा भरोसा रहता है, इसीलिए वह अपना भविष्य संवारने के लिए प्राइवेट सेक्टर में जॉब करना ज्यादा पसंद करते हैं। जहां मेहनती और ईमानदार कर्मचारियों को बड़ी-बड़ी कम्पनियां मोटे वेतन पर रखने से गुरेज नहीं करती हैं। इसी तरह तमाम युवक सरकारी नौकरी की बजाए अपना व्यवसाय करना ज्यादा सही समझते हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि अपने व्यवसाय में वह जितनी मेहनत करेंगे उतना करोबार बढ़ेगा, लेकिन जिनके मन में सरकारी नौकरी की चाहत होती है, वह न जाने कब नौकरी तलाशते-तलाशते सियासत का मोहरा बन जाते हैं। यह वह भी नहीं समझ पाते हैं। सरकारी नौकरी की चाहत में बेरोजगार घूमने वाले युवाओं के अपने जीवन में तो कठिनाई बनी रहती है, लेकिन तमाम दलों और नेताओं के लिए यह बेरोजगार वोट बैंक बन जाते हैं। नेतागण इन्हीं के कंधे पर रखकर निशाना दागते हैं। यहां तक कि यह बेरोजगार सत्ता परिवर्तन तक कराने में सक्षम हो जाते हैं। हर चुनाव में बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा रहता है। बेरोजगारी का मुद्दा आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में भी यह उछलेगा और उत्तर प्रदेश या अन्य राज्य भी चुनाव के समय इससे अछूते नहीं रहेंगे।

 

आजादी के बाद से कोई भी ऐसा लोकसभा या विधानसभा का चुनाव नहीं हुआ होगा जिसमें देश में व्याप्त बेरोजगारी को विपक्ष द्वारा नहीं भुनाया गया होगा। इस समय कोरोना के चलते लगे लॉकडाउन से तो हालात और भी खराब हो गए हैं। देशभर में बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ी है। अर्थव्यवस्था सुधरने का नाम नहीं ले रही है। व्यापार ठप्प हो गया है। बेरोजगारी की गति को धीमा करने के लिए केन्द्र की मोदी और तमाम राज्य सरकारों द्वारा हरसंभव कदम उठाया जा रहा है। मोदी सरकार ने बैंकों को सख्त आदेश दे रखे हैं कि वह बेरोजगारों को आसानी से कर्ज दें ताकि बेरोजगार युवा अपना काम-धंधा शुरू कर सकें। सरकार के प्रयासों से स्थिति में थोड़ा-बहुत सुधार आया है, लेकिन अभी बहुत किया जाना बाकी है। हो सकता है देर-सबेर सब कुछ ठीकठाक हो जाए। बात जहां तक सरकारी नौकरियों की है, तो यह मान कर चलना चाहिए कि समय के साथ सरकारी नौकरियों का दायरा सिकुड़ता ही जाएगा। जब सरकार निजीकरण को बढ़ावा देगी तो सरकारी नौकरियों में भी तो कमी आएंगी। अच्छी बात यह है कि कोरोना का असर धीमा होने के बाद निजी क्षेत्रों की कंपनियों में फिर से भर्तियों का दौर शुरू हो गया है, केन्द्र की मोदी सरकार जिस तरह से मेड इन इंडिया पर जोर दे रही है, उससे निश्चित ही बेरोजगारी में काफी हद तक कमी आएगी।

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बहरहाल, बात निजी क्षेत्रों में काम करने वालों की लोगों की नौकरी की गारंटी की है तो अभी इसमें बहुत कुछ किया जाना बाकी है। अभी तक कोई ऐसा ठोस फार्मूला तैयार नहीं तय हुआ है जिसके आधार पर प्राइवेट सेक्टर में काम करने वालों का शोषण रोका जा सके और उन्हें काम के अनुसार उचित पारिश्रमिक भी मिले। प्राइवेट सेक्टर में कार्यरत कर्मचारी की सेवा की शर्ते तय करते समय बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मालिक मनमानी करते हैं। काम के घंटे और कितना काम कर्मचारी से लिया जा सकता है, इस पर गंभीरता से कभी मंथन नहीं होता है। सरकार ने प्राइवेट सेक्टर में काम करने वालों  के लिए जो गाइड लाइन तय की भी हैं उसका शायद ही कहीं पालन होता होगा। इसीलिए निजी क्षेत्र में रोजगार तलाशना जितना आसान लगता है, उतना ही जोखिम भरा भी रहता है और सरकारें इन्हीं की बदौलत लाखों लोगों को रोजगार और नौकरी देने के दावे करती हैं।


खैर, सरकारी दावों से अलग हिन्दुस्तान में बेरोजगारी के ताजा आंकड़ों पर नजर दौड़ाई जाए तो कोरोना काल में शहरी क्षेत्र में हर दस में से एक व्यक्ति इस समय बेरोजगारी झेल रहा है। देशभर में जून के महीने में लॉकडाउन में ढील मिलने के बाद जुलाई 2020 में रोजगार के बेहतर आंकड़े सामने आए थे। उम्मीद की जा रही थी कि अनलॉक के बाद धीरे-धीरे रोजगार के आंकड़े और बेहतर होंगे, लेकिन अगस्त 2020 के आंकड़ों ने एक बार फिर निराश कर दिया। जुलाई के मुकाबले अगस्त 2020 में रोजगार के अवसर काफी कम हो गए। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी (सीएमआईई) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में बीते महीने अगस्त में बेरोजगारी दर 8.35 फीसदी दर्ज की गई, जबकि जुलाई 2020 में यह 7.43 फीसदी थी। अर्थव्यवस्था के जानकारों से जब बढ़ती बेरोजगारी के बारे में पूछा गया तो उनका इस संबंध में कहना था कि देश में आर्थिक गतिविधियां शुरू हो चुकी हैं, उसके बाद भी जॉब की स्थिति चिंताजनक होना वास्तव में सरकार के लिए मुश्किल का सबब बन सकती है। सीएमआईई की रिपोर्ट के मुताबिक अगस्त में शहरी इलाके में बेरोजगारी दर 9.83 फीसदी दर्ज की गई है, जबकि ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी दर का आंकड़ा 7.65 फीसदी रहा। जुलाई 2020 में शहरी इलाके में बेरोजगारी दर 9.15 फीसदी थी और ग्रामीण बेरोजगारी दर 6.6 फीसदी थी। पहले यह अनुमान लगाया जा रहा था कि जैसे-जैसे देश अनलॉक की तरफ बढ़ेगा, रोजगार की स्थिति और बेहतर होगी।


वैसे हालात हिन्दुस्तान में ही नहीं खराब हैं। कोरोना के चलते पूरी दुनिया में स्थिति बिगड़ी है। वर्ल्ड इंप्लॉयमेंट एंड सोशल आउटलुक (डब्ल्यूईएसओ) की इसी वर्ष जारी ताजा रिपोर्ट के अनुसार, कोरोना काल में दुनियाभर में करोड़ों लोगों की नौकरी चली गई। लगभग आधा अरब लोगों के पास अपेक्षित वैतनिक काम नहीं हैं, या कह सकते हैं उन्हें पर्याप्त रूप से वैतनिक काम नहीं मिल पा रहे हैं। रोजगार और सामाजिक रुझान पर आईएलओ की रिपोर्ट बताती है कि बढ़ती बेरोजगारी और असमानता के जारी रहने के साथ सही काम की कमी के कारण लोगों को अपने काम के माध्यम से बेहतर जीवन जीना और मुश्किल हो गया है। दुनियाभर में बेरोजगार माने गए 18.8 करोड़ लोगों में 16.5 करोड़ लोगों के पास अपर्याप्त वैतनिक कार्य हैं और 12 करोड़ लोगों ने या तो सक्रियता से काम ढूंढ़ना छोड़ दिया है या श्रम बाजार तक उनकी पहुंच नहीं है।


उधर, देश में बेरोजगारी को लेकर युवा लगातार सोशल मीडिया पर अपनी आवाज उठा रहे हैं, लेकिन पिछले कई समय से उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं मिला। हालांकि अब कुछ विपक्षी दलों ने इसे मुद्दा बनाया है और युवाओं के साथ इस लड़ाई को लड़ने की बात कही है। कई विपक्षी नेताओं ने इसके लिए गत दिनों रात 9 बजे 9 मिनट कैंपेन चलाया, जिसमें लोगों से 9 मिनट के लिए अपने घरों की लाइट बंद करने की अपील की गई। ट्विटर पर हजारों लोगों और युवाओं ने इस कैंपेन का समर्थन किया और काफी देर तक ये टॉप ट्रेंडिंग में रहा। कुल मिलाकर देश में बेरोजगारों का ग्राफ किसी भी वजह से बढ़ रहा हो, लेकिन अंततः इसका खामियाजा तो केन्द्र सरकार को ही भुगतना पड़ेगा। भले ही लोकसभा चुनाव में अभी लम्बा समय बाकी है, लेकिन राज्यों के विधानसभा चुनाव में तो विपक्ष बीजेपी के खिलाफ बेरोजगारी को मुद्दा बना ही रहा है।


-अजय कुमार

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