भारतीय राजनीति में ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, जो आज भी नैतिकता के आदर्श हैं। लेकिन आज की राजनीति को देखकर ऐसा लगने लगा है कि नैतिकता की राजनीति दूसरा तो अवश्य करें, पर ज़ब स्वयं को नैतिकता की कसौटी पर परखने की बारी आए तब नैतिकता के मायनों को बदल दिया जाता है। भारतीय राजनीति में राजनेताओं पर आरोप लगने पर कई लोगों ने अपने पद को त्याग दिया था, दिल्ली के शराब घोटाले के मामले में मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने भारतीय राजनीति को अलग राह पर ले जाने का उदाहरण पेश किया है, हालांकि इस उदाहरण को आदर्श वादिता के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि केजरीवाल भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार किए गए हैं। यह एक मुख्यमंत्री पद पर रहने वाले व्यक्ति के लिए शोभनीय नहीं हैं। केजरीवाल स्वयं कहते थे कि वे राजनीति में भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए आए हैं, लेकिन अब ज़ब उन पर ही सवाल उठ रहे हैं, तब उनसे भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति की आशा करना बेमानी ही कही जाएगी। यहाँ सवाल यह भी उठ रहा है कि दिल्ली के शराब घोटाले में अभी तक जिन पर आरोप लग रहे हैं, उनको जमानत लेने का पर्याप्त आधार नहीं मिल रहा, इसका आशय यह भी है कि सरकार की ओर से कोई न कोई गलत आचरण किया गया होगा, अन्यथा एक मुख्यमंत्री को ऐसे ही गिरफ्तार नहीं किया जाता। प्रवर्तन निदेशालय की ओर से भी यही कहा जा रहा है, उसके पास इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि आम आदमी पार्टी के नेताओं के संकेत पर पैसों का लेनदेन हुआ।
दिल्ली में शराब घोटाले के मामले में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जिस प्रकार से प्रवर्तन निदेशालय ने गिरफ्तार किया है, उस पर विपक्ष की ओर से सत्ता पक्ष पर कई प्रकार के सवाल उठाए जा रहे हैं। सवाल उठाना विपक्ष की राजनीतिक मजबूरी हो सकती है, लेकिन इन सवालों की परिधि में प्रवर्तन निदेशालय की ओर से जो आरोप लगाए जा रहे हैं, उस पर विपक्ष कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। इससे इस बात को भी बल मिलता है कि दाल में कुछ काला अवश्य है। प्रवर्तन निदेशालय ने यह साफ तौर पर संकेत दिया है कि केजरीवाल शराब घोटाले का मुख्य आरोपी है। अब यह जांच के बाद ही पता चलेगा कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर लगाए जा रहे आरोप किस हद तक सही हैं या फिर केजरीवाल अपने आपको निर्दोष साबित कर पाते हैं या नहीं। अगर प्रवर्तन निदेशालय की ओर से लगाए गए आरोपी प्रमाणित होते हैं तो यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने एक संवैधानिक पद के प्रभाव का दुरुपयोग किया है।
हम यह भली भांति जानते हैं कि अरविंद केजरीवाल अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की उपज हैं। उस समय अरविंद केजरीवाल ने अपने आपको ऐसा प्रचारित किया कि एक वे ही भारतीय राजनीति के उच्चतम आदर्श हैं। लेकिन उनके आचरण पर स्वयं अण्णा हजारे ने सवाल उठाए थे, हालांकि अण्णा हजारे के सवालों को केजरीवाल ने दरकिनार कर दिया। इसका तात्पर्य यही है कि अन्ना हजारे राजनीति में जिस प्रकार का पारदर्शी व्यवहार चाहते थे, वैसा दिखाई नहीं दे रहा था। अब अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर भी समाजसेवी अण्णा हजारे की ओर से साफ सुथरी टिप्पणी आई है, जिसमें अण्णा हजारे ने शराब पर नीति बनाने से रोका था। अण्णा हजारे ने केजरीवाल की गिरफ्तारी को उनके कर्मों का परिणाम बताया। आज दिल्ली का शराब घोटाला यही चरितार्थ करते हुए लग रहा है कि शराब किसी भी संस्था या व्यक्ति को बर्बाद कर देती है। यह बात केजरीवाल पर लागू होती है या नहीं, यह तो समय बताएगा, लेकिन जब आग लगती है तब ही धुंआ उठता है और इस धुंए का कालिमा किस किस के शक्ल को बिगाड़ने का काम करेगी, यह समय के गर्भ में है।
केजरीवाल की सरकार पर सवाल उठना तो उसी समय प्रारंभ हो गए थे, जब उनका पहला मंत्री जेल में गया। उसके बाद तो जैसे लाइन ही लग गई। राजनीतिक शुचिता लाने का दम दिखाने वाले आम आदमी पार्टी के नेताओं पर इस प्रकार के आरोप लगने केवल राजनीतिक विद्वेष नहीं हो सकता। अगर यह कार्यवाही राजनीतिक होती तो स्वाभाविक रूप से इन सभी को जमानत भी मिल जाती। जमानत नहीं मिलने से यह आशंका प्रबल हो जाती है कि भ्रष्टाचार हुआ है। आम आदमी पार्टी के नेता भी केवल अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी का ही विरोध कर रहे हैं, कोई भी यह नहीं कह रहा कि दिल्ली में शराब घोटाला नहीं हुआ या फिर गोवा के चुनाव में आम आदमी पार्टी ने भ्रष्टाचार का पैसा नहीं लगाया। यह बात सही है कि राजनीतिक तौर पर तर्क तो कई दिए जा सकते हैं, लेकिन इन तर्कों का आधार क्या है? यह कोई नहीं बता पाता।
भारत की राजनीति में इसे विसंगति ही माना जाएगा कि कोई अपराधी और उसके समर्थक उसे ऐसे नायक के रूप में प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं, जैसे वह समाज के लिए आदर्श बन गया हो। ऐसे तमाम उदाहरण दिए जा सकते हैं जिसमें नेता जमानत पर बाहर आकर राजनीतिक वातावरण को स्वच्छ करने की बात करते हैं। क्या वास्तव में ऐसे राजनेता देश के राजनीतिक वातावरण को सकारात्मक दिशा देने का सामर्थ्य रखते हैं। कदाचित नहीं। क्योंकि आज के राजनीतिक माहौल में राजनेता जैसा अपने आपको दिखाने का प्रयास करते हैं, वैसा सिद्धांततः होता नहीं है। उनके क्रियाकलाप केवल और केवल भ्रमित करने वाली राजनीति करने की ही होती है। देश में एक समय यह आम धारणा बन चुकी थी कि राजनीतिक भ्रष्टाचार इस देश की नियति बन चुकी है, लेकिन पिछले दस साल में इस धारणा को बदलने की सुगबुगाहट भी सुनाई देने लगी है। यह सुगबुगाहट कई राजनीतिक दलों को पसंद नहीं आ रही। ऐसे कई राजनेता हैं जो भ्रष्टाचार के दोषी सिद्ध हो चुके हैं और देश की राजनीति को सुधारने की कवायद कर रहे हैं। अब सवाल यह भी आता है कि क्या बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने की बात करने का साहस दिखा सकते हैं। इसका उत्तर नहीं ही होगा, लेकिन वे फिर राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं। भारत में साफ सुथरी राजनीति के क्या यही मायने हैं? क्या ऐसे नेता राजनीति को सही दिशा दे सकते हैं, इसका उत्तर हमें स्वयं तलाश करना होगा? ऐसे ही दिल्ली सरकार के घोटाला में होता हुआ लग रहा है। क्योंकि यह स्पष्ट रूप से कहा जा रहा कि गोवा में 45 करोड़ रुपए हवाला के माध्यम से दिए गए। ऐसे में सवाल यही है कि क्या यही साफ सुथरी राजनीति के मायने हैं? तर्क कुछ भी हों, परन्तु अब ऐसी राजनीति से देश को अलग करने का समय आ गया है।
- सुरेश हिंदुस्तानी
वरिष्ठ पत्रकार