Gyan Ganga: दैत्यों को जब होश आया तो उन्होंने अमृतपान करने वाले देवताओं के बारे में क्या कहा

By आरएन तिवारी | Jun 10, 2022

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे !

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयंनुम:॥ 


प्रभासाक्षी के श्रद्धेय पाठकों ! आइए, भागवत-कथा ज्ञान-गंगा में फिर से डुबकी लगाएँ। आज-कल हम परम पवित्र श्रीमदभागवत महापुराण के अंतर्गत समुद्र मंथन की कथा का श्रवण कर रहे हैं। पिछले अंक में हमने पढ़ा था कि, भगवान ने मोहिनी रूप धारण करके देवताओं को अमृत पान करा दिया और राक्षस अमृत पान करने से वंचित रह गए थे।

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आंखिर ऐसा क्यों हुआ ? श्री शुकदेव जी महाराज परीक्षित को समझाते हुए कहते हैं–


परीक्षित ! देवता और दानव दोनों ने एक ही एक ही समय, एक ही स्थान पर, एक ही प्रयोजन और एक ही वस्तु के लिए एक ही कर्म किया था, परंतु फल प्राप्ति में भेद हो गया। देवताओं ने बड़ी ही सुगमता से फल प्राप्ति अर्थात अमृत प्राप्त कर लिया था, क्योंकि उन्होंने भगवान के चरण कमलों का आश्रय लिया था। किन्तु भगवान से विमुख होने के कारण परिश्रम करने पर भी असुरगण अमृत से वंचित रह गए। भागवत का एक सुंदर संदेश---- परिश्रम, लगन और निष्ठा पूर्वक हम काम जरूर करें लेकिन साथ में ही भगवान के चरणकमल का आश्रय अवश्य लें, सफलता अवश्य मिलेगी। आइए ! चलते हैं कथा के अगले प्रवाह में---


देवताओं को अमृत पिलाकर भगवान अंतर्ध्यान हो गए। अब दैत्यों को होश आया। अरे! देवी जी कहाँ चलीं गईं। देवताओं से पूछा— देवता तो अमृत पीकर डकार ले रहे थे। अब दैत्य समझ गए कि हमारे साथ धोखा हुआ। पता लगाओ हम सबको धोखा देने वाली वह कौन थी। एक ने कहा मुझे तो लगता है वो थी नहीं, था। क्या मतलब? निश्चित रूप से वह बहुरूपिया विष्णु ही होगा। उसी ने हमें ठगा है। हम इन धोखेबाज देवताओं को छोड़ेंगे नहीं। सभी दैत्य देवताओं पर टूट पड़े। और 


तत्र दैवासुरो नाम रण: परम दारुण : । 

रोधस्युदन्वतो राजन् तुमुलो रोमहर्षण:।।        

     

शुकदेव जी कहते हैं— हे परीक्षित! भयंकर देवासुर संग्राम छिड़ गया। परंतु देवता अमृत पान करके अमर हो गए थे इसलिए सारे दैत्यों को मार गिराया और तो और दैत्यराज बलि भी मारे गए। अब स्वर्ग पर देवताओं का आधिपत्य हो गया। परंतु दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य महाराज ने मृत संजीवनी विद्या के चमत्कार से सभी राक्षसों को पुन; जिंदा कर दिया। राजा बलि ने शुक्राचार्य के चरण पकड़ लिए। भगवान आपने हमे बचा लिया, अब ऐसी कृपा-दृष्टि करो कि देवताओं को मजा चखाया जाय। घबड़ाओ मत शिष्य! उनके पक्ष में नारायण हैं तो तुम्हारे साथ तुम्हारे गुरु जी हैं। चिंता मत करो, यदि मेरी बात ठीक से मानते रहे तो अभी मैं तुम्हें स्वर्ग के सिंहासन पर बैठा दूंगा। बलि ने कहा बताइए गुरुदेव क्या करना होगा। शुक्राचार्य बोले- ब्राह्मणों का चरण पकड़ना होगा। उससे क्या होगा? भाई ! मेरे पास सबकी काट है किन्तु इस नारायण की कोई काट नहीं है। इसका एक ही समाधान है, नारायण ब्रह्मण्य हैं उनकी आत्मा ब्राह्मणों में निवास करती है। यदि तुमने ब्राह्मणों की भक्ति स्वीकार कर ली तो नारायण कुछ नहीं बिगाड़ सकते। राजा बलि ने कहा-- ठीक है महाराज! अब तो ब्राह्मणों की बड़ी-बड़ी दंडवत होने लगी। भोले-भाले ब्राह्मण प्रसन्न हो गए। ब्राह्मणों ने पूछा- बोलो बलि क्या चाहते हो? महाराज आपका आशीर्वाद। ब्राह्मणों ने अपने-अपने तपोबल के प्रभाव से एक तेजोमय रथ का निर्माण किया और आशीर्वाद में बलि को दे दिया।

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अथारुहय रथम दिव्यम भृगुदत्तम महरथ;। 


अब बलि रथ पर सवार होकर इन्द्र की राजधानी पर बड़े ज़ोर-शोर से आक्रमण कर दिया। बलि की सजी-धजी सेना देखकर इन्द्र घबड़ाकर देव गुरु बृहस्पति के पास आए। बृहस्पति ने कहा- इन्द्र मैं तुम्हारे शत्रु बलि की उन्नति का कारण बताता हूँ। 


एष विप्र बलोदर्क; संप्रति ऊर्जित विक्रम;, 

तेषामेवापमानेन सानुबंधों विनष्यति ॥ 


इस समय ब्राह्मणों के आशीर्वाद से यह सर्व शक्तिमान हो गया है। जब यह उन्हीं ब्राह्मणों का तिरस्कार करेगा तब स्वत; सपरिवार नष्ट हो जाएगा। इसलिए मेरी सलाह मानो तो अपने रूप बदलकर स्वर्ग छोड़कर अन्यत्र चले जाओ। देवताओं ने आज्ञा शिरोधार्य की और भेष बदलकर इधर-उधर भटकने लगे। अपने पुत्रों को इधर-उधर भटकते हुए और दैत्यों को स्वर्ग के सिंहासन पर विराजमान देखकर देव माता अदिति को बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने अपने पति कश्यप ऋषि से प्रार्थना की,-- 


हे आर्यपुत्र! 

यथा तानि पुन; साधो प्रपद्येरन ममात्मजा; 

तथा विधेहि कल्याणम् धिया कल्याण कृत्तम॥  


हे स्वामी, अपने संकल्प से सोचकर कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे मेरे पुत्रों का कल्याण हो। उनको स्वर्ग की समृद्धि पुन; प्राप्त हो जाय। महात्मा कश्यप ने अदिति को पयोव्रत करने का उपदेश दिया। अमोघा भगवत भक्ति यह शास्त्र की उक्ति है। भगवान की भक्ति कभी भी व्यर्थ नहीं होती। जाओ तुम्हारा मनोरथ अवश्य पूर्ण होगा। उत्तम संतान की इच्छा रखने वाली स्त्रियों को यह व्रत अवश्य करना चाहिए। अदिति ने बड़ी निष्ठा से पयोव्रत अनुष्ठान पूरा किया और अंत में बड़े गद्-गद् स्वर में भगवान नारायण की स्तुति की। 


प्रीत्या शनैर्गद्गदया गिरा हरिं तुष्टाव सा देव्यदिति कुरुद्वह । 

उद्विक्षति सा पिवतीव चक्षु सा रमापतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम्।। 


अदिति ने भगवान की स्तुति करते हुए कहा--- हे प्रभो ! आप सभी यज्ञों के स्वामी हैं और आप ही स्वयं यज्ञ भी हैं। आपके चरण कमलों का आश्रय लेकर लोग इस संसार सागर को पार कर जाते हैं। आपका कीर्तन भी भवसागर से पार लगा देता है। जो आपकी शरण में आ जाता है, उसकी सारी विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। हे भगवन ! आप दीनों के स्वामी हैं, आप हमारा कल्याण कीजिए। 


जय श्री कृष्ण -----                                              

क्रमश: अगले अंक में --------------

श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । 


- आरएन तिवारी

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