इस सप्ताह प्रदर्शित फिल्म 'मुक्ति भवन' वाराणसी के प्रसिद्ध मुक्ति भवन पर आधारित है जहां लोग अपने अंतिम समय में आते हैं और वाराणसी में देह त्यागने की इच्छा के साथ मुक्ति भवन में रहते हैं। वाराणसी के जीवन और यहां की संस्कृति को आधार बनाकर बॉलीवुड में कई फिल्में बनी हैं जिनमें कुछ विवादित भी रहीं। इस फिल्म में विवादित तो कुछ नहीं है लेकिन जरा इस फिल्म का और प्रचार किया जाता तो अच्छा रहता। फिल्म को जो हल्की ओपनिंग मिली है वह दर्शाती है कि आज भी लीक से हटकर बनी फिल्मों को दर्शकों के लिए तरसना पड़ता है। इस फिल्म को भी समीक्षकों की ओर से अच्छी रेटिंग मिली हैं और फिल्म अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में सराही भी गयी है लेकिन इससे निर्माताओं को आर्थिक लाभ नहीं होने वाला।
फिल्म की कहानी एक मध्यमवर्गीय परिवार की है जिसमें राजीव (आदिल हुसैन) अपने परिवार के साथ रहता है। उसके पिता दया (ललित बहल) को अब लगता है कि अंतिम समय निकट है और वह इस बात से परेशान रहते हैं कि घर के सभी सदस्य इतने व्यस्त हैं कि उनके पास बैठने और उनकी बातें सुनने का टाइम किसी के पास नहीं है। दया को लगता है कि उनके बेटे की पत्नी का व्यवहार भी अब उनके प्रति बदलने लगा है। इस सबसे परेशान होकर वह अपने बेटे को कहते हैं कि वह अपना अंतिम समय मुक्ति धाम में बिताना चाहते हैं। पिता को उनकी इच्छा पूरी करने के लिए बनारास ले जाने का समय तो राजीव के पास नहीं है लेकिन वह फिर भी राजी हो जाता है। मुक्ति धाम आकर राजीव को अपने पिता के पास 15 दिन रहना है। वह यहां अपने पिता की सेवा में तो लग जाता है लेकिन मन ही मन उस समय के इंतजार में रहता है जब उसे यहां से जाने को मिलेगा।
अभिनय के मामले में राजीव के रोल में आदिल हुसैन पूरी तरह से फिट रहे। राजीव के पिता दया के किरदार में ललित बहल ने अच्छा अभिनय किया है तो वहीं दया की पोती के किरदार में पालोमी घोष सीमित रोल के बावजूद छाप छोड़ने में सफल रहीं। निर्देशक की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने फिल्म में शुरू से लेकर अंत तक कहानी को भटकने नहीं दिया है और एक दमदार कहानी को शानदार तरीके से पेश किया है। निर्देशक यदि फिल्म की रफ्तार को भी और बढ़ा पाते तो अच्छा रहता। कुल मिलाकर अलग तरह की फिल्में देखने के शौकीन दर्शकों को यह फिल्म जरूर पसंद आएगी।
कलाकार- आदिल हुसैन, गीताजंलि कुलकर्णी, ललित बहल, पालोमी घोष और निर्देशक- संजय भूटीयानी।
प्रीटी