सावन का महीना उमंग, उत्साह एवं रोमांच से भरा होता है। आकाश में काले-काले बादलों की अठखेलियां, बदन में सिहरन पैदा करती ठण्डी-ठण्डी हवा, बूंदों की रिमझिम व झनझनाता सुरीला संगीत, खेतों की बल खाती हरियाली, झूमती बहारें, पींगों पर झूलती नवयौवनाओं की शोख चुहलबाजी, लोकगीतों की सुर-लहरियां, पानी में बच्चों की धमा-चैकड़ी, घरों से तेल से बने गुलगुले, सुहाली, पकौड़ों की भीनी-भीनी महक, नवेली दुल्हनों के घर पहुंच रहे कोथली-सिन्धारे मदमस्त सावन की खास पहचान हैं।
सावन की मस्ती हरियाणा के जन-जन और कण-कण में साफ झलकती है। लोकगीतों, लोकोक्तियों, राग-रागनियों, सांगों, फिल्मों और साहित्यिक रचनाओं में सावन की मस्ती बखूबी समाहित है। बानगी के तौर पर देखिए यह लोकगीत, जिसमें एक भाई बहन के लिए कोथली तैयार करने को अपनी माँ से इस प्रकार आग्रह करता है:
मीठी तो कर दे री माँ कोथली, सामण आया गूंजता।
जाऊंगा री बेबे के देस, सामण आया री गूंजता।।
एक अन्य लोकगीत में नववधु का मन झूला झूलने का कर रहा है। वह अपनी सास से कहती है:
आया री सासड़ सामण मास, बेड़ बटा दे री पीली पाट की।
आया री सासड़ सामण मास, पटड़ी घड़ा दे री चंदन रूख की।
आया री सासड़ सामण मास, हमने खंदा दे री म्हारे बाप कै।
श्रावण के गीतों में ‘बारहमासा’ भी गाया जाता है। एक बानगी प्रस्तुत है:-
साढ़ जै मास सुहावण जे सुआ रे। जै घर होता हर को लाल, मैं हाली खंदावती।
सामण जै मास सुहावण सुआ रे। जै घर होता हर को लाल, मैं हिन्दो घलावती।।
एक हरियाणवी लोकोक्ति प्रचलित है:-
‘‘तीजां बरगे कट रे सैं।’’
लोककवि ने अपनी रचना में सावन को कुछ इस प्रकार चित्रित किया है:
तीजां का त्योहार, रूत सै सामण की।
खड़ी झूल पै मटकै, छोरी बामण की।।
क्यूं तों ऊँची पींघ चढ़ावै,
कदे पड़ कै नायड़ तुड़ावै,
याह लरज-लरज कै जावै डाली जामण की।
तीजां का त्योहार, रूत सै सामण की।।
एक अन्य लोक रचना देखिए:
रै झूलण आली तेरी लिकड़ रही रमझोल
पहला झोट्टा आया फेर दूजा बी आया
ना तीजे म्है गया नै ठाल्यी कुद पन्दरा सिर का तोल
रै झूलण आली तेरी लिकड़ रही रमझोल
हरियाणा के लोक साहित्य में पति के सावन के महीने में घर न आने पर एक विरहणी के मनोभाव को कुछ इस प्रकार दर्शाया गया है:
क्यों जी, ये काले उड़द बुवाए के चले गए परदेस
क्यों जी, या उड़दी छाई मारू बेलड़ी तमनैं छाया परदेस
क्यों जी या काली घटा डरावणी धोली बरसणहार
क्यों जी, तग साँवण आँवण कह गए ला दिए बाराह मास
क्यों जी, तम नेडै तो करल्यो नौकरी साँझ पड़यें घर आए।
एक दूसरे विरह भावना से भरा लोकगीत देखिए:
सामण का महीना मेघा रिमझिम रिमझिम बरसै
मन नै समझाऊं तो बी बैरी जोबन तरसै
तीजां के दिनां की तो थी आस बड़ी भारी
ऐसे म्ह बी ना आए मैं पड़ी दुखां की मारी
सावन के मस्त महीने में यदि किसी नवयौवना का पति घर पर नहीं होता तो वह स्वयं तो विरह का दर्द झेलती ही है, साथ ही उसे तानों का सामना करने को भी विवश होना पड़ता है। इन्हीं सब परिस्थितियों को दर्शाता यह गीत देखिए:
तीजां का बड़ा त्यौहार सखी हे सब बदल रही बाणा
हे लिकड़ी बिजली गाल जेठाणी मार गई ताना
हे जिनके पति बसैं परदेस आच्छा जीणे तै मरज्याणा
हे बान्दी ल्याओ कलम दुआत पति पै गेरूँ परवाना
लिखी सबनै राम-राम गोरी के घर पै आ ज्यागा
चाहे लगियो डेढ़ हजार तनैं अपणा नाम कटाणा
सूर्य कवि पं. लखमीचन्द ने अपने साँग ‘पद्मावत’ में नायिका से कहलवाया है:-
लाख टके का हे माँ मेरी बीजणा हे री कोय धर्या पुराणा हो
खड़िए मैं भीजूं हे माँ मेरी बाग मं री।
काली घटा छाई हे माँ मेरी उगमणी री इन्द्र बरसै मूसलाधार
खड़िए मैं भीजू हे माँ मेरी बाग मं री।
एक अन्य रचना में सावन की मनोहारी झलक को कुछ इस प्रकार बयां किया गया है:
चोगरदे नै बाग हरा घनघोर घटा सामण की।
छोरी गावैं गीत सुरीले झूल घली कामण की।।
पं. माँगे राम द्वारा रचित ‘शकुन्तला-दुष्यन्त’ में भरत अपनी माँ से कहता है:-
चैत बैशाख और जेठ साढ़ म्हं धूप लागज्या लागण री।
सामण भादवा आसज के मांह पे्रम लागज्या जागण री।।
सावन अपने समय पर गूंजता हुआ मदमस्त होकर आता है और सावन के आते ही स्वर्ग का नजारा चारों तरफ छा जाता है। नववधूओं को तो सावन का इंतजार बेहद ही बेसब्री से होता है। सावन के आते ही नवयौवना बाग में झूलने जाने के लिए माँ से मनुहार करती हुई कहती है:
सावन की रूत आ गई हे माँ मेरी
हाँ जी कोय नन्ही नन्ही पड़ैं सैं फूहार
बाग झूलण हे री जाण दे...!
नवविवाहिताएं पहले सावन के लगने के पहले ही अपने भाई का इंतजार करने लगती हैं, ताकि वो शादी के बाद का पहला सावन अपने पीहर में बिता सकें। एक नवविवाहिता इसी इंतजार के चलते अपनी मन की बात कहती हुई सहज ही गाने लगती है:
आयी आयी सावन की तीज, हिंडोले पड़े बागां मं
मेरा पहला ही सावन री, अम्मा ना छोड़ो सांसरै री
बड़े भैया को जल्दी से भेज, पड़ी हूँ उसकै आसरै री
हल्की-हल्की पड़ैं री फूहार, फुरैरी उठैं तन मन मं।
नवविवाहिताओं का पहला सावन बड़ा ही मस्ती भरा होता है। सावन के मस्त महीने में नविवाहिताएं कुछ अधिक ही मस्त नजर आती हैं। एक अल्हड़ नवयौवना मस्त होकर गाती हैः
सावन का महीना मेघा रिमझिम रिमझिम बरसै
मन नैं समझाऊं तो बैरी जोबन तरसै।
अन्य वधुएं भी सावन में झूलने के लिए बेचैन हो उठती हैं। वे सावन के आते ही अपनी सास को बाग में झूल डालने के लिए मनाती हैं और कहती हैं:
आया री सासड़ सावन मास
बेड़ बटा दे री पीला पाट की।
सावन के महीने में हरियाणा की नवयौवनाएं द्वारा गाए जाने वाले प्रमुख गीत इस प्रकार हैं:
सात जणी का हे माँ मेरी झूलणा जी
पड़्या पिंजोला हरियल बाग मं जी।
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झूलण जांगी ऐ माँ मेरी बाग मं री
आं री कोए संग सुहेली चार।
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नान्ही-नान्ही बूंदिया मीयां बरसता हे जी
हां जी काहे चारूं दिसां पडै़गी फूहार।
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सामण आया हे माँ मेरी मैं सुआ जी।
हाँ जी कोय आई है नवेली तीज।।
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मोटी-मोटी बूंद झूले पै आई।
तो गाबरू नैं चादर ताणी हो मनैं तेरी सौंह।।
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हे री आई सैं रंगीली तीज।
झूलण जांगी हे माँ मेरी बाग मं जी।।
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आया-आया री सासड़ सामण मास डोर बटा दे री पीले पाट की।
आया तो बहुवड़ आवण दे जाय बटाइयो अपणे बाप कै।
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आई री सासड़ सामणिया री तीज, पीढ़ी घड़ा दे चन्दन रूख की।
म्हारे तो बहुआ चन्दन ना रूख, जाए घड़ाईए अपणे बाप कै।
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झूलण खात्तर घल्यां करैं सैं पींघ सामण मं।।
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मुड़-मुड़ के डालै झूलती सुनहरी ढ़ोला
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सात जणी के साथ
बड़ का डाहला टूटग्या
हे री मेरी सासड़ रानी।
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रे गगन गरजै झिमालै बिजली
पड़ैं बूंदिया भरैं न्यारी
समैं बिरखा लगै प्यारी
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सामण का महीना मेघा रिमझिम-रिमझिम बरसै
मन नं समझाऊं तो बैरी जोबन तरसै
तीजां के दिनां की तो थी आस बड़ी भारी
ऐसे मं नं आए मैं बड़ी दुखां की मारी
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झूक जा ए बादली बरस क्यूं ना जाए
उत क्यूं ना बरसो बादली, पित म्हारा पिया परदेस
तम्बू तो भीजै तम्बू की रेशम डोर
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हे री सखी सामण मास घिरण लाग्यो
नणदी ऐसा खत लिखवा दो, मेरे प्रीतम को बुलवा दो।
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हरी ए जरी की हे माँ मेरी चुन्दड़ी जी
हे जी कोई दे भेजी मेरी मांय
इन्द राजा नैं झड़ी ए लगा दई जी।
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कच्चे नीम्ब की निम्बोली सामण कद-कद आवै रे।
जीओ री मेरी माँ का जाया, काड़ी भर-भर ल्यावै रे।।
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मेरी पींघ तले री लांडा मोर
रे बीरा बारी-बारी जां।
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आया तीजां का त्योहार
आज मेरा बीरा आवैगा
सामण मं बादल छाए
सखियां नैं झूले पाए
मैं कर ल्यूं मौज बहार
आज मेरा बीरा आवैगा
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लाट्टू मेरा बाजणा, बजार तोड़ी जाइयो जी
माँ मेरी नैं भेजी कोथली, मेरा मां जाया आइयो जी।
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सामण आया हे सखी सामण के दिन चार
उनकै तै सामण के करै, जिनकै बुलद ना बीज
तड़कै तै जांगी सखी बाप कै ल्याऊंगी बुलद अर बींज
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आठ बुलदां का रे हालीड़ा नीरणा चार हालियां का छाक
बरसण लागी रे हालीड़ा
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