उग्र हिंसक भीड़ के सामने जनतांत्रिक सत्ता और न्यायपालिका की क्षणभंगुर हैसियत

By कमलेश पांडे | Aug 12, 2024

जनतांत्रिक देश बंगलादेश में हाल के दिनों में जो कुछ हुआ, वह लोकतांत्रिक प्रशासन के लिए बेहद शर्मनाक स्थिति है। यह उसकी अविश्वसनीयता की एक बानगी है, जिससे किसी भी लोकतांत्रिक देश में अस्थिरता को बढ़ावा मिलेगा। सवाल है कि जनता यदि बगावत पर उतर जाए या उसके नाम पर हिंसक प्रवृति के लोग गोलबंद होकर सड़कों पर उतर जाएं तो संविधान और संविधान का शासन कुछ भी मायने नहीं रखता है। यह स्थिति विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस सबके लिए चिंता का विषय होना चाहिए।


यूँ तो किसी भी लोकतंत्र में पक्ष-विपक्ष जरूरी है, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि विदेशी ताकतों की सरपरस्ती में विपक्ष अपने ही देश और देशवासियों के खिलाफ हिंसक आंदोलन चलाए और फिर सत्ता तक पहुंच जाए। भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न आधा दर्जन से अधिक देशों में यह प्रचलन बढ़ा है, जो सर्वाधिक चिंता की बात है।


जानकार बताते हैं कि संभवतया इसी स्थिति से बचने के लिए विधायिका के बीच से कार्यपालिका के कद्दावर चेहरे से युक्त निष्पक्ष प्रशासन, स्वतंत्र न्यायपालिका और उन्मुक्त प्रेस की परिकल्पना की गई। लेकिन बंगलादेश में पांचवीं बार प्रधानमंत्री बनीं अवामी लीग नेत्री शेख हसीना की सरकार का जिस तरीके से तख्तापलट कराया गया, उससे निर्वाचित सरकारों और वैश्विक लोकतंत्र दोनों के सामने एक आसन्न खतरा मंडराने लगा है। वहीं, बदलती स्थिति से विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस की लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता की धूलधूसरित हुई है। वहीं बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय के खिलाफ जारी हिंसा के बीच संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस के प्रवक्ता ने भी कहा है कि वह नस्लीय आधार पर किसी भी हमले या हिंसा के खिलाफ हैं। उन्होंने हिंसा को खत्म करने की अपील भी की।

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कभी पूर्वी पाकिस्तान कहे जाने वाले बंगलादेश के लिये सैन्य तख्तापलट कोई नई बात नहीं है। हां, दुनिया के सबसे बड़े और सफल लोकतांत्रिक देश भारत की छत्रछाया में पले-बढ़े बंगलादेश के लिए यह गम्भीर चिंता का विषय जरूर है। मसलन, बंगलादेश की मुक्ति संघर्ष वाहिनी के अंग रहे लोगों के वंशजों को 30 प्रतिशत या उससे अधिक आरक्षण दिए जाने के सरकार के फैसले पर आए एक सकारात्मक न्यायादेश के बाद वहां भड़का छात्र आंदोलन कब इस्लामिक चरमपंथियों के जिहाद में तब्दील हो गया, किसी को कुछ पता नहीं चल सका।


हाँ, भारत समेत दुनिया के लोकतंत्र प्रेमियों की आंखें तब खुलीं, जब वहां के अल्पसंख्यक हिंदुओं को अवामी लीग पार्टी का समर्थक करार देकर उन्हें निशाना बनाया जाने लगा। जगह-जगह उनकी हत्या की जाने लगी और उनके घर-मंदिर में लूटपाट मचाने व तोड़फोड़ करने के बाद उसे फूंक दिए जाने की घटनाएं बढ़ने लगीं। इस बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख हसीना वहां से भागकर भारत आईं और यहां शरण लीं। फिर तो यह स्पष्ट होते देर न लगी कि उग्र छात्र आंदोलन की आड़ में इकट्ठा हुए इस्लामिक चरमपंथियों की हिंसक भीड़ के सामने लोकतांत्रिक सत्ता और न्यायपालिका समेत पुलिस, सेना व संविधान की औकात कितनी क्षणभंगुर है। 


गोया, इसके दृष्टिगत अपनाई गई सैन्य तटस्थता भी कोई शुभ संकेत नहीं है। यह सही है कि सेना ने शेख हसीना को सुरक्षित भारत जाने दिया। फिर संसद भंग करके एक नोबेल पुरस्कार विजेता के नेतृत्व में कार्यवाहक सरकार का गठन करवा दिया। फिर छात्र धमकियों के मद्देनजर बंगलादेश के सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ओबैदुल हसन को इस्तीफा देना पड़ा। अब वहां देर-सबेर चुनाव होंगे और फिर नवनिर्वाचित सरकार सैन्य प्रमुख के साथ क्या व्यवहार करेगी, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। लिहाजा, इस पूरे घटनाक्रम के पीछे के गूढ़ मायने को समझना होगा।


सवाल है कि क्या सेना, पुलिस, सरकार या न्यायालय आदि उग्र छात्र आंदोलनकारियों की खाल में छिपे उन अराजक तत्वों के इशारे पर थिरकेगी, जो सरिया कानून के हिमायती हैं, आतंकवादियों-उग्रवादियों और अंडरवर्ल्ड के पृष्ठपोषक हैं? या फिर विधि के शासन से चलेगी, जिसके लिए पुलिस, सेना, सिविल प्रशासन, न्यायालय के साथ-साथ पूरी सरकार जवाबदेह होनी चाहिए। लोकतांत्रिक सत्ता हमेशा चुनाव से बदलनी चाहिए, न कि सैन्य तख्ता पलट और सरिया कानून के हिमायती जमात के हिंसक आंदोलनों से! 


लेकिन जिस तरह से कभी अफगानिस्तान में, कभी पाकिस्तान में और अब बंगलादेश में लोकतांत्रिक सरकारें गिराई गईं और लोकतंत्र के पहरूए पश्चिमी देशों समेत भारत ने चरमपंथियों के खिलाफ नरमी दिखाई, वह इस बात का संकेत है कि लोकतंत्र अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है। न्यू वर्ल्ड आर्डर यानी नई विश्व व्यवस्था के पैरोकार पहले चरमपंथियों को हवा देकर लोकतांत्रिक विफलता का माहौल पैदा करेंगे और उनके दमन के नाम पर अपना पूंजीवादी फन फैलाएंगे और आम आदमी को डंसना शुरू कर देंगे।


आपको पता है कि आज पूरी दुनिया में लोकतंत्र का शोर मचा हुआ है। जहां भी और जो भी इसे चुनौती देता है, उसके खिलाफ पश्चिमी देश लामबंद हो जाते हैं। दुनिया के कई देशों में हुए सैन्य तख्तापलट के तुरन्त बाद नवनिर्वाचित सरकार का गठन करवाया गया। आज पूंजीवादी अमेरिका और उसके मित्र देश साम्यवादी रूस और चीन का विरोध इसलिए भी करते आये हैं कि वहां सीमित या नियंत्रित लोकतंत्र है। बावजूद इसके, अफगानिस्तान से लेकर बंगलादेश तक में चरमपंथियों के आगे घुटने टेकने का रहस्य यदि ये लोग ही समझा दें तो बेहतर रहेगा।


अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों के मुताबिक, हो सकता है कि बंगलादेश प्रकरण के पीछे भी नई विश्व व्यवस्था मतलब न्यू वर्ल्ड आर्डर के प्रतिपादक पूंजीवादी ताकतों का हाथ हो। क्योंकि जिस तरीके से अमेरिका, चीन और रूस के बीच दुनिया का थानेदार बनने की होड़ मची हुई है और इनके समानांतर एक मजबूत वैश्विक ताकत के रूप में भारत का अभ्युदय हो चुका है, उसके परिप्रेक्ष्य में भारत-रूस के ऐतिहासिक सम्बन्ध और वक्त की कसौटी पर खरी मित्रता से अमेरिका और चीन दोनों को चुभन हो रही है।


यही वजह है कि पिछले दस सालों में भारत-पाक संघर्ष, भारत-चीन झड़प, भारत-अफगानिस्तान मतभेद के अलावा मालदीव संकट, श्रीलंका संकट, नेपाल संकट, भूटान संकट, म्यांमार संकट और अब बंगलादेश संकट के बहाने भारत को हर तरह से कमजोर और पड़ोसियों से झंझट ग्रस्त देश बनाने की कसरतें जारी हैं। लेकिन भारतीय नेतृत्व कश्मीर विवाद, तिब्बत-चीन सीमा विवाद, आतंकवाद, नक्सलवाद, अंडरवर्ल्ड आदि को कुचलते हुए इस्लामिक और पश्चिमी देशों से प्रगाढ़ सम्बन्ध बनाये हुए है। 


भारत बाकी दुनिया के देशों को यह एहसास करवा चुका है कि चूहे-बिल्ली सरीखे अंतर्राष्ट्रीय राजनय में वह वैश्विक शीत युद्ध और मौजूदा गुटबंदी से परे रहकर तीसरी दुनिया के देशों सहित फ्रांस, इजरायल, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया आदि को साधकर अपनी अंतर्राष्ट्रीय मजबूती का एहसास अमेरिका और चीन को करवाता रहेगा। यही वजह है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए से लेकर चीनी खुफिया एजेंसी एमएसएस तक भारत विरोधी पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई को साधकर भारतीय उपमहाद्वीप में ही भारत को उलझाने में जुटी हुई हैं।


हालांकि भारत रूस-यूक्रेन युद्ध और इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध से सबक लेते हुए और चीन-ताइवान विवाद से सीख लेते हुए भारत-पाक विवाद और भारत-चीन सीमा विवाद के अलावा भारत-नेपाल विवाद और भारत-बंगलादेश विवाद को तूल देने के फेरे में न पड़कर खुद को आर्थिक और सामरिक रूप से मजबूती प्रदान कर रहा है, जो बदलते वक्त की मांग है। जबकि वैश्विक ताकतें बंगलादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, मालदीव आदि को अस्थिर करके भारत को कमजोर करने की ताक में लगी हुई हैं। 


सच कहूं तो बंगलादेश संकट के पीछे भी परस्पर गोलबंद पूंजीवादी ताकतों यानी चीन, पाकिस्तान व अमेरिका का हाथ है जो वहां भारत को कमजोर करके अपना सिक्का चलाना चाहती हैं। यह भारत के लिए चिंता की बात है। दरअसल, इनकी विस्तारवादी मनोवृत्ति भी इस स्थिति के लिए एक हद तक जिम्मेदार है। 


 जिस तरह से प्रधानमंत्री शेख हसीना के बाद बांग्लादेश में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का इस्तीफा हुआ, वह बेहद शर्मनाक है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट को घेर कर छात्रों ने दोपहर तक का अल्टीमेटम दिया और कहा कि अगर जजों ने इस्तीफे नहीं दिए तो हसीना की तरह उन्हें भी कुर्सी से खींचकर उतार देंगे।


भले ही इससे परेशान चीफ जस्टिस ओबैदुल हसन ने भी अपना इस्तीफा दे दिया। लेकिन क्या यह जायज स्थिति है। इससे जजों के मनोबल गिरेंगे। चर्चा है कि चीफ जस्टिस के इस्तीफे के बाद 5 और जज अपना पद छोड सकते हैं। क्योंकि प्रदर्शनकारियों ने कहा है कि जब तक सभी 6 जज इस्तीफा नहीं देते, वे सड़कें खाली नहीं करेंगे। प्रदर्शनकारी छात्रों ने आरोप लगाए कि सुप्रीम कोर्ट के जज हसीना से मिले हुए हैं। इन जजों ने अंतरिम सरकार से पूछे बिना ही शनिवार को पूरी कोर्ट की एक बैठक बुलाई। 


ज्वलंत सवाल है कि जब पीएम शेख हसीना ने देश छोड़ने से पहले आधिकारिक तौर पर प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा ही नहीं दिया है। तो फिर बंगलादेश के राष्ट्रपति ने सैन्य प्रमुखों और विपक्षी नेताओं से परामर्श के बाद संसद को भंग कैसे कर दिया? लगता है कि प्रधानमंत्री के औपचारिक रूप से इस्तीफा दिए बिना ही कार्यवाहक सरकार के गठन को अदालत में चुनौती दी जा सकती है, इसलिए आंदोलित छात्रों ने कोर्ट को भी निशाने पर लिया। 


सवाल है कि बंगलादेश में हसीना के इस्तीफे के बाद से जब हिंसा, लूटपाट और आगजनी की घटनाएं बढ़ गई, तो इनके खिलाफ गत शुक्रवार को हिंदू जागरण मंच ने ढाका में प्रदर्शन किया, जो उचित कदम है। इससे वैश्विक जनमत उनके पक्ष में बनेगा। बांग्ला अखबार ढाका ट्रिब्यून के मुताबिक शाहबाग चौक पर हजारों लोग जमा जमा हुए हुए और हिंसा के खिलाफ आवाज उठाई। प्रदर्शन के दौरान हिंदू समुदाय ने अल्पसंख्यक मंत्रालय की स्थापना, अल्पसंख्यक संरक्षण आयोग का गठन, अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमलों को रोकने के लिए सख्त कानून बनाने और संसद में अल्पसंख्यकों के लिए 10 फीसदी सीटें रखने की मांग की गई, जो जरूरी है। प्रदर्शनकारियों ने हिंसा से प्रभावित लोगों के लिए मुआवजा भी मांगा। इसके अलावा तोडे गए मंदिरों को फिर से बनाने की भी मांग की। 


हिन्दू प्रदर्शनकारियों ने कहा कि वे इस देश में पैदा हुए हैं। यह उनके पूर्वजों की जमीन है। यह देश उनका भी उतना ही है, जितना कि अत्याचारियों का। वे भले ही यहां मार दिए जाएं, फिर भी अपना जन्मस्थान बांग्लादेश नहीं छोड़ेंगे। अपना अधिकार पाने के लिए सड़कों पर रहेंगे। उधर, बांग्लादेश में हिंसा के बाद से ही हजारों बांग्लादेशी हिंदू भारत आने के लिए सीमा पर पहुंचे हुए हैं, जिनकी मदद करना भारत का मानव धर्म है। भविष्य में ऐसी स्थिति पैदा नहीं हो, इसलिए भारत को बंगलादेश प्रशासन की नकेल कसनी चाहिए।


- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार

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