भारतीय विज्ञान के विकास में महिला वैज्ञानिकों का योगदान

By इंडिया साइंस वायर | Nov 03, 2020

आज जीवन के हर उत्पादक क्षेत्र में महिलाओं की सशक्त भागीदारी है। विज्ञान के क्षेत्र में भी। आज अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर रसायन, भौतिकी, जैव प्रौद्योगिकी, जीव विज्ञान, चिकित्सा, नैनो तकनीक, परमाणु अनुसंधान, पृथ्वी एवं पर्यावरण विज्ञान, गणित, इंजीनियरिंग और कृषि विज्ञान जैसे चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों में भारतीय महिला वैज्ञानिक अपनी छाप छोड़ रही हैं। हालांकि, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग एवं गणित (STEM) के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या समानुपातिक नहीं है। अपनी सामाजिक एवं पारीवारिक जिम्मेदारियों के चलते महिलाओं के लिए विज्ञान की दुनिया में मुकाम हासिल करना कभी आसान नहीं रहा है।


कुछ दशक पहले महिलाओं के लिए यह स्थिति आज के मुकाबले कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण थी। लेकिन, बीसवीं सदी के उस दौर में भी कुछ महिलाओं ने चुनौतियों को पीछे छोड़कर विज्ञान का दामन थामा और ऐसी लकीर खींच दी, जिसे आज भी दुनिया याद करती है। ऐसे में, उन महिला वैज्ञानिकों का स्मरण आवश्यक है, जिनका कृतित्व और व्यक्तित्व भावी पीढ़ियों के लिए एक मिसाल है, प्रेरणा है।

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अन्ना मणि (23 अगस्त 1918 – 16 अगस्त 2001)

8 साल की उम्र में एक बच्ची ने उपहार में कान के हीरे के बुंदे ठुकराकर अपने लिए एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका मांग लिया था। त्रावणकोर के एक संपन्न परिवार में जन्मीं यही बच्ची आगे चलकर बनी - अन्ना मोदयिल मणि (अन्ना मणि), जो वास्तव में विज्ञान की दुनिया में किसी मणि से कम नहीं थीं। यह एक विडंबना है कि भारत में आम लोग उनके विषय में बहुत अधिक नहीं जानते। वर्ष 1930 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त वाले भारतीय वैज्ञानिक सी.वी. रामन के विषय में तो लोग बखूबी जानते हैं, लेकिन, अन्ना मणि को नहीं, जिन्होंने रामन के साथ मिलकर काम किया। मूल रूप से भौतिकशास्त्री अन्ना मणि एक मौसम वैज्ञानिक थीं। वह भारत के मौसम विभाग के उप-निदेशक के पद पर रहीं और उन्होंने मौसम विज्ञान उपकरणों के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। सौर विकिरण, ओज़ोन और पवन ऊर्जा माप के विषय में उनके अनुसंधान कार्य महत्वपूर्ण हैं। इन विषयों पर उन्होंने कई शोध पत्र प्रकाशित किए हैं। अन्ना मणि के मार्गदर्शन में ही, उस कार्यक्रम का निर्माण संभव हुआ, जिसके चलते भारत मौसम विज्ञान के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सका। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में, जहां मानसून को भारत का 'वित्त मंत्री' कहा जाता है, वहां फसलों के लिए मौसमी पूर्वानुमान कितना महत्वपूर्ण है, यह अलग से बताने की आवश्यकता नहीं है। विज्ञान के प्रति लगाव या जिज्ञासु प्रवृत्ति का परिचय अन्ना मणि ने अपने बचपन में ही प्रदर्शित कर दिया था। शुरू में वह चिकित्सा और भौतिकी में से एक विकल्प को चुनने को लेकर दुविधा में थीं, लेकिन अंततः उन्होंने भौतिकी को चुना। वर्ष 1940 उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण पड़ाव आया, जब भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) ने उन्हें शोध छात्रवृत्ति प्रदान की और वह रामन की टीम के साथ काम करने लगीं। उन्हें जीवन में कई पुरस्कार मिले।


असीमा चैटर्जी (23 सितम्बर 1917- 22 नवंबर 2006)

यदि अन्ना मणि उच्च कोटि की भौतिकशास्त्री थीं, तो यही उपाधि रसायनशास्त्र के क्षेत्र में असीमा चैटर्जी को निर्विवाद रूप से दी जा सकती है। वर्ष 1917 में कलकत्ता के एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मीं असीमा चैटर्जी ने विन्का एल्कोलाइड्स पर उल्लेखनीय काम किया, जिसका उपयोग मौजूदा दौर में कैंसर की दवाएं बनाने में किया जाता है। उनकी तमाम खोजों से वनस्पतियों को भी बहुत लाभ पहुँचा। उन्होंने कार्बनिक रसायन यानी ऑर्गेनिक केमिस्ट्री और फाइटोमेडिसिन के क्षेत्र में शानदार उपलब्धियां हासिल कीं। अपने शोधों के जरिये उन्होंने मिर्गी और मलेरिया जैसी बीमारियों के लिए कारगर नुस्खे विकसित किए, जिन्हें आज भी दवा कंपनियां बेच रही हैं। विज्ञान के क्षेत्र में उनके इस योगदान को उनके जीवनकाल में ही खूब सम्मान भी मिले। वर्ष 1962 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने उन्हें सी.वी. रामन पुरस्कार से नवाजा। वहीं, वर्ष 1975 में उन्हें पद्म भूषण से अलंकृत किया गया। वर्ष 1982 से 1990 तक उन्हें राज्य सभा के लिए नामित किया गया था। वर्ष 2006 में 22 नवंबर को उनका निधन हो गया। मिर्गी से लेकर मलेरिया जैसी बीमारियों में उनके फॉर्मूले पर बनी दवाएं आज भी लोगों को राहत पहुंचा रही हैं।

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कमल रणदिवे (15 दिसंबर 1905 – 11 अगस्त 1970)

जीव वैज्ञानिक कमल रणदिवे को विज्ञान के प्रति लगाव पुणे के विख्यात फर्ग्युसन कॉलेज में अपने प्रोफेसर पिता से विरासत में मिला था। देश में कैंसर के उपचार की व्यवस्था को शुरू करने में उनका अहम योगदान माना जाता है। अमेरिका के प्रतिष्ठित जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद वह भारतीय कैंसर शोध केंद्र से जुड़ गईं, जहां उन्होंने कोशिका कल्चर का अध्ययन किया। चूहों पर प्रयोग से उन्होंने उनकी एक ऐसी कैंसर प्रतिरोधी किस्म विकसित की। इससे उन्हें कुष्ठ रोग का टीका विकसित करने की दिशा में कुछ अहम सुराग मिले। कुष्ठ रोग निवारण के क्षेत्र में काम के लिए ही उन्हें देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। कमल रणदिवे का मूल नाम कमल समर्थ था और उनका योगदान केवल शोध और अनुसंधान तक ही सीमित नहीं था। उन्होंने भारतीय महिला वैज्ञानिक संघ की स्थापना भी की, जिसने आने वाली पीढ़ी की महिलाओं में वैज्ञानिक चेतना का प्रसार कर उन्हें इस क्षेत्र से जुड़ने के लिए अभिप्रेरित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। कमल रणदिवे ने कोशिका संवर्द्धन के क्षेत्र में अहम योगदान के साथ ही कुष्ठ जैसे रोग के उपचार की दिशा में भी महत्वपूर्ण कार्य किया। 


ई.के. जानकी अम्माल (4 नवंबर 1897 – 7 फरवरी 1984)

वर्ष 1897 में केरल के तेल्लिचेरी में जन्मीं एदवालेथ कक्काट जानकी अम्माल एक उच्च कोटि की पादप विज्ञानी थीं। उन्होंने गन्ने की एक विशेष रूप से मीठी किस्म को विकसित किया। उन्होंने साथी वैज्ञानिकों संग गन्ने की ऐसी किस्म भी विकसित की, जो कई तरह की बीमारियों और सूखे की स्थिति में भी पनप सके। उन्होंने हिमालय क्षेत्र में पेड़-पौधों के संकरण का गहन अध्ययन किया। वास्तव में, जंगली अवस्था में पौधों में संकरण की प्रकिया को समझने में उनके शोध-अध्ययन ने अहम भूमिका निभायी। वर्ष 1945 में उन्होंने सीडी डार्लिंगटन के साथ मिलकर ‘द क्रोमोजोम एटलस ऑफ कल्चर्ड प्लांट्स’ नामक पुस्तक लिखी, जिसमें पौध पोलिप्लाइडी पर अपने अनुभवों और संकरण की प्रक्रिया में उसके गहरे निहितार्थों को बहुत व्यापक रूप में समझाया है। उनका योगदान केवल शोध-अध्ययन तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि आजादी के तुरंत बाद देश से पलायन कर रही वैज्ञानिक प्रतिभाओं को देश में रोकने और स्थानीय प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवारहलाल नेहरू के आग्रह पर उन्होंने भारतीय बोटैनिकल सोसायटी का पुनर्गठन किया। उन्हें 1957 में पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया। यह सम्मान पाने वालीं वह देश की पहली महिला वैज्ञानिक थीं। उन्हें सम्मान देते हुए मैगनोलिया नाम के पौधे की एक प्रजाति-मैगनोलिया कोबस जानकी अम्माल का नामकरण उनके नाम पर किया गया। वह बोटानिकल सर्वे ऑफ इंडिया की निदेशक भी रहीं। वर्ष 1984 में, 87 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। वनस्पति शास्त्र की फाइटोबायोलॉजी, एथनोबॉटनी, फाइटोजियोग्राफी और क्रम विकास अध्ययन में उनके योगदान को याद किया जाता है, जो आज भी शोधार्थियों का मार्गदर्शन कर रहा है।

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कमला सोहोनी (18 जून 1911 - 28 जून 1998)

कमला सोहोनी दिग्गज वैज्ञानिक प्रोफेसर सी.वी. रामन की पहली महिला छात्र थीं। हालांकि, उनके लिए यह आसान नहीं रहा, जिसका उन्होंने अपने संस्मरणों में उल्लेख भी किया। कमला सोहोनी पहली भारतीय महिला वैज्ञानिक भी थीं, जिन्होंने पीएचडी की डिग्री हासिल की थी। कमला सोहोनी को उनकी उस खोज के लिए याद किया जाता है, जिसमें उन्होंने प्रत्येक प्लांट टिशू में साइटोक्रोम-सी नाम के एंजाइम का पता लगाया था। उन्होंने नोबेल विजेता फ्रेडरिक हॉपकिंस के साथ भी काम किया।


आनंदीबाई गोपालराव जोशी (31 मार्च 1865 - 26 फरवरी 1887) 

आनंदीबाई गोपालराव जोशी भारत की पहली महिला फिजीशयन थीं। उस जमाने में उनकी शादी महज 9 साल की उम्र में हो गई थी। वह 14 साल की उम्र में मां भी बन गई थीं, लेकिन, उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षाओं को दम तोड़ने नहीं दिया। किसी दवाई की कमी के कारण उनके बेटे की कम उम्र में ही मृत्यु हो गई। इस घटना ने उनके जीवन को बदलकर रख दिया और उन्हें दवाओं पर शोध करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने वुमंस मेडिकल कॉलेज, पेंसिलवेनिया से पढ़ाई की थी। जीवन में तमाम मुश्किलों के बावजूद उनका हौसला कभी डिगा नहीं और उन्होंने अपने संघर्ष से सफलता की एक नई गाथा लिखी।


डॉ. दर्शन रंगनाथन (4 जून 1941 - 4 जून, 2001)

वर्ष 1941 में जन्मीं दर्शन रंगनाथन ने जैव रसायन यानी बायो-केमिस्ट्री क्षेत्र में अहम योगदान दिया। वह दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस कॉलेज में व्याख्याता रहीं और रॉयल कमीशन फॉर द एक्जिबिशन से छात्रवृत्ति मिलने के बाद शोध के लिए अमेरिका गईं। भारत लौटकर उन्होंने सुब्रमण्या रंगनाथन से विवाह किया, जो आईआईटी, कानपुर में पढ़ाते थे। उन्होंने आईआईटी, कानपुर में ही अपने शोधकार्य को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। लेकिन, तमाम गतिरोधों के कारण सफल नहीं हो सकीं। फिर भी, ये गतिरोध उन्हें प्रोटीन फोल्डिंग जैसे महत्वपूर्ण विषय में शोध करने से नहीं रोक सके। वह 'करंट हाईलाइट्स इन ऑर्गेनिक केमिस्ट्री' नामक शोध पत्रिका के संपादन कार्य से भी जुड़ी रहीं। वह राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी की फेलो भी रहीं। साथ ही, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल टेक्नोलॉजी, हैदराबाद की निदेशक भी रहीं। वर्ष 2001 में उनका निधन हो गया। 


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