राष्ट्रीय राजनीति की अपनी चिंताएं हैं, जबकि सूबाई राजनीति की अपनी दुश्चिंताएं! लोकतांत्रिक सियासत में इनमें तालमेल बिठाना वाकई दुष्कर कार्य है, क्योंकि राष्ट्रीय हितों के ऊपर कहीं साम्प्रदायिक, कहीं जातीय और कहीं क्षेत्रीय हितों को हावी किया जाता रहा है और ऊटपटांग वकालत की जाती रही है। ऐसे में हरेक सिक्के के दो पहलु की तरह ही इन्हें भी लिए जाने की जरूरत है और हमारे समग्र राष्ट्रीय हित कैसे सध सकें, इसके लिए प्राथमिकता तय किये जाने की जरूरत है।
देखा जाए तो भारत में अप्रत्याशित रूप से मुस्लिमों की बढ़ती जनसंख्या जहां कुछ राजनीतिक दलों व सामाजिक संस्थाओं के लिए चिंता की बात है और इन्हें नियंत्रित किये जाने की वकालत हिन्दू समुदाय के नेता व समाजसेवी खुलेआम कर रहे हैं और तत्सम्बन्धी डेटा भी सार्वजनिक कर रहे हैं। वहीं, इस बात की वकालत भी की जा रही है कि हिंदुओं को भी बंध्याकरण व नसबंदी की नीति का परित्याग करके ज्यादा बच्चे पैदा करना चाहिए, ताकि मुस्लिमों के मुकाबले हिंदुओं की जनसंख्या ज्यादा बनी रहे। कमोबेश यही वैश्विक डिमांड भी है। हमारे पास अकूत प्राकृतिक संसाधन हैं, पास-पड़ोस में जनसंख्या के समुचित समायोजन की संभावनाएं हैं और शेष विश्व में बहुत सारे भूभाग आबादी विहीन हैं, जहां रणनीतिक रूप से हिंदुओं को बसाने में कोई दिक्कत भी नहीं आएगी, क्योंकि हमारे वीर-बांकुडों और समझदार लोगों की मांग यत्र-तत्र-सर्वत्र है। हां, इसके लिए स्पष्ट वैश्विक, राष्ट्रीय और सूबाई सोच होनी चाहिए और सबमें बेहतर तालमेल की गुंजाइश बनी रहनी चाहिए।
ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है कि दुनिया में सबसे ज्यादा आबादी ईसाइयों की है, फिर दूसरी बड़ी आबादी इस्लाम मतावलंबियों की है। जबकि हिन्दू आबादी संसार की तीसरी बड़ी आबादी है। व्यापार में भी इसी तरह से संख्या बल में हिंदू कारोबारी तीसरे पायदान पर हैं। यही वजह है कि हिंदुओं को भी अपनी आबादी मुस्लिमों की तरह बेतहाशा बढ़ानी चाहिए और ईसाई व इस्लाम मतावलंबियों की तरह वैश्विक मतांतरण अभियान दुनिया के हरेक देशों में छेड़ना चाहिए। चूंकि अधिकांश धर्म सनातन मतावलंबियों से ही टूटकर बने हैं, इसलिए घरवापसी अभियान भी चलाया जा सकता है। इसके लिए हिन्दू धर्म को सरल बनाना होगा, ताकि अल्प आय वर्ग के लोग भी इसमें फिट बैठ सकें और मौजूदा आडंबरों की मार उनपर नहीं पड़े। कहना न होगा कि यदि ऐसी रणनीति नहीं अपनाई गई तो निकट भविष्य में अस्तित्व रक्षा के भी लाले पड़ जाएंगे।
इतिहास साक्षी है कि ईसाई व यहूदी धर्म की उत्पत्ति भी इस्लाम धर्म से ही हुई है, इसलिए जब दोनों जुड़वां धार्मिक ताकतें एक हो जाएंगी तो हिंदुओं की वैश्विक परेशानी ज्यादा बढ़ जाएगी। ऐसे में हिंदुओं की जनसंख्या वृद्धि का विचार दूरदर्शिता भरा दृष्टिकोण है, यदि सही मायने में देखा जाए तो। इसलिए अब जो दक्षिण भारत से जनसंख्या वृद्धि के सुर सुनाई देने लगे हैं, उससे उत्तर भारत के लोगों को भी सबक लेनी चाहिए और पारस्परिक तालमेल बिठाकर अपने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक व लोकतांत्रिक हितों की रक्षा करनी चाहिए।
बता दें कि संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज (आईआईपीएस) द्वारा तैयार इंडिया एजिंग रिपोर्ट 2023 के अनुसार, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना में बुजुर्गों की आबादी अधिक है। इसे संतुलित करने के लिए ही टीडीपी नेता और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने पिछले हफ्ते कहा था कि लोगों को अधिक बच्चे पैदा करने चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था कि उनकी सरकार इसे प्रोत्साहित करने के लिए कानून लाने की योजना भी बना रही है। राज्य की बुजुर्ग होती आबादी को देखते हुए यह एक नेक कदम है।
इसके बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने एक पुराने आशीर्वाद का जिक्र करते हुए लोगों को 16 बच्चे पैदा करने की सलाह और शुभकामना दे डाली। इससे भी कोई दिक्कत नहीं है। समुद्र में फ्लोटिंग हाउस बनाने और ऐसे ही प्राकृतिक जमीन विकसित करने की पूरी गुंजाइश है। बहरहाल, दोनों मुख्यमंत्री यह सलाह इसलिए दे रहे हैं क्योंकि जल्द ही देश में संसदीय सीटों का नये सिरे से परिसीमन होना है। इस परिसीमन के मुताबिक दस लाख लोगों की आबादी पर एक सांसद होगा।
चूंकि दक्षिणी राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण के मामले में तो बेहतरीन प्रदर्शन कर किया है, जिसकी वजह से वहां प्रजनन दर कम हो गयी है। इसलिए उन्हें अब यह डर सता रहा है कि यदि आबादी के लिहाज से संसदीय सीटों का निर्धारण हुआ तो देश की राष्ट्रीय राजनीति पूरी तरह उत्तर भारत केंद्रित हो जायेगी। लेकिन यदि हिंदुत्व की अंतर्राष्ट्रीय उपस्थिति के नजरिए से देखा जाए तो दक्षिण भारत के मुख्यमंत्रियों का ताजा आह्वान भारत और हिंदुत्व दोनों के लिए बरदान साबित हो सकता है। इसलिए यह कहना कि देश में एक ओर उत्तर भारत में जनसंख्या नियंत्रण कानून लाये जाने की मांग हो रही है तो दूसरी ओर दक्षिण भारत के दो प्रमुख राज्यों के मुख्यमंत्री अपनी जनता को ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने की सलाह दे रहे हैं, में कोई दिक्कत नहीं है। बस, उत्तर भारत के नेताओं को अपना नजरिया बदलना होगा और हिंदुओं की जनसंख्या में अधिकाधिक वृद्धि की रणनीति बनानी होगी। वहीं, मोदी सरकार को भी बदलते नजरिए के मुताबिक विदेश नीति बनानी होगी।
बता दें कि संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज (आईआईपीएस) द्वारा तैयार इंडिया एजिंग रिपोर्ट 2023 के अनुसार, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना में बुजुर्गों की आबादी अधिक है। रिपोर्ट कहती है कि 2021 और 2036 के बीच इन राज्यों में बुजुर्गों की दर में बहुत अधिक तेजी से वृद्धि होगी। माना जा रहा है कि केरल की जनसंख्या में बुजुर्गों की हिस्सेदारी 2021 की 16.5% से बढ़कर 2036 में 22.8% हो जाएगी। वहीं, तमिलनाडु में 13.7% से बढ़कर 2036 में 20.8% हो जाएगी। उधर, आंध्र प्रदेश में 2021 के 12.3% से बढ़कर 2036 में 19% हो जाएगी, जबकि कर्नाटक में बुजुर्गों की आबादी 11.5% से बढ़कर 2036 में 17.2% हो जाएगी और तेलंगाना में 2021 के 11% से बढ़कर 2036 में 17.1% हो जाएगी।
इसप्रकार मोटे तौर पर यदि देखें तो 15 साल की इस अवधि में जनसंख्या में बुजुर्गों का अनुपात दक्षिण में 6-7% बढ़ जाएगा जबकि उत्तर में यह लगभग 3-4% होगा। वैसे एक बात गौर करने लायक है कि अधिकांश दक्षिण भारतीय राज्य दुनिया के विकसित देशों की प्रजनन स्तर तक पहुंच गए हैं। इसके अलावा, भारत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा 2016-19 के लिए एकत्र किए गए उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, आंध्र प्रदेश में जीवन प्रत्याशा 69.1 वर्ष, केरल में 71.9 वर्ष और तमिलनाडु में 71.4 वर्ष थी। केवल कर्नाटक की जीवन प्रत्याशा दर राष्ट्रीय औसत से थोड़ी कम यानि 67.9 थी।
वहीं, एक समस्या यह है कि भारत ने अपनी प्रजनन दर बहुत तेजी से कम की है। जहां प्रति महिला छह बच्चों से घटकर दो या एक बच्चे पर आने में फ्रांस को 285 साल लगे, इंग्लैंड को 225 साल लगे, किंतु भारत को इस काम में महज 45 साल लगे। हालांकि, चीन ने इससे भी कम समय में जनसंख्या को नियंत्रित किया, लेकिन वहां ऐसा अत्यंत कठोर और दंडात्मक प्रावधानों के चलते संभव हो सका।
इसके अलावा, दक्षिणी राज्यों की चिंता का बड़ा कारण जल्द ही होने वाला लोकसभा सीटों का परिसीमन भी है। यह कार्य जनगणना के तुरंत बाद होगा। बता दें कि देश में वर्तमान में निर्वाचन क्षेत्र की सीमाएँ जनसंख्या के अनुसार तय की जाती हैं। यदि जन्म दर स्थिर रहती है तो आंध्र प्रदेश में संसद सीटों की संख्या 25 से घटकर 20, कर्नाटक में 28 से 26, केरल में 20 से 14, तमिलनाडु में 39 से 30 और तेलंगाना में 17 से 15 तक हो जाने की उम्मीद है।
वहीं दूसरी ओर, उत्तर के राज्यों की जनसंख्या अधिक होने से उनके निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या में वृद्धि होगी, जिससे उन्हें संसद में बड़ी आवाज मिलेगी। इसके अलावा यदि संसद की सीटें बढ़ाने का फैसला होता है तो भी उत्तरी राज्यों को ही ज्यादा फायदा होगा, क्योंकि दक्षिण में जनसंख्या अनुपात के हिसाब से कम सीटें आएंगी। इसलिए भले ही उत्तर-दक्षिण की सियासी प्रतिस्पर्धा में जनसंख्या वृद्धि जैसा नेक विचार सामने आया है। वहीं, जब जनसंख्या में ज्यादा वृद्धि हो जाएगी, तब सीमा विस्तार का विचार भी नेताओं के मन में देर-सबेर आएगा ही। यह स्थिति वैश्विक हिंदुत्व के अनुकूल होगी।
जहां तक मुख्यमंत्रियों के बयान की बात है तो आपको बता दें कि चंद्रबाबू नायडू ने तो यहां तक कह दिया है कि दो से ज्यादा बच्चे वाला व्यक्ति ही स्थानीय निकाय चुनाव लड़ पायेगा। वहीं, पड़ोसी राज्य तेलंगाना में भी ऐसा कानून लाने की मांग हो रही है ताकि लोग ज्यादा बच्चे पैदा करें। वहीं, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने कहा है कि लोकसभा परिसीमन प्रक्रिया से कई दंपतियों के ‘‘16 (तरह की संपत्ति) बच्चों’’ की तमिल कहावत की ओर वापस लौटने की उम्मीदें बढ़ सकती हैं। मुख्यमंत्री ने जनगणना और लोसकभा परिसीमन प्रक्रिया का जिक्र करते हुए कहा कि नवविवाहित जोड़े अब कम बच्चे पैदा करने का विचार त्याग सकते हैं। उन्होंने कहा कि अतीत में बुजुर्ग नवविवाहित जोड़ों को 16 बच्चों का नहीं बल्कि 16 तरह की संपत्ति अर्जित करने और खुशहाल जीवन जीने का आशीर्वाद देते थे, जिसमें प्रसिद्धि, शिक्षा, वंश, धन आदि शामिल हैं। उन्होंने कहा कि लोगों को लगता है कि अब उन्हें सचमुच 16 बच्चे पैदा करने चाहिए, न कि एक छोटा और खुशहाल परिवार रखना चाहिए।
इस दिशा में हमारे बड़े-बड़े मंदिरों को भी सामने आना चाहिए और छोटे-छोटे मंदिरों की अकूत आय को साधकर पूरी दुनिया में मंदिरों का जाल बिछाने और वहां हिंदुओं की आबादी बढ़ाने की निजी पंचवर्षीय योजना बनानी चाहिए। इसमें एनआरआई, भारत सरकार, विभिन्न राज्य सरकारों, विभिन्न सामाजिक संगठनों का भी सहयोग लेना चाहिए। इससे हिंदुओं की आबादी और कारोबार दोनों में इजाफा होगा, यदि नेक मन से इसपर विचार किया जाए तो। इस नजरिए से भी उत्तर भारत के नेताओं को सोचना होगा। कहा भी गया है कि अग्र सोची, सदा सुखी।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक