By अभिनय आकाश | Dec 26, 2019
झारखंड में बीजेपी की सत्ता जा चुकी है। जिन मुख्यमंत्री रघुवर दास को विकास पुरूष बताकर बीजेपी ने वोट मांगे थे वो खुद एक बागी निर्दलीय के हाथों शिकस्त खाते दिखे। न खुद अमित शाह की चालें काम आईं न पीएम नरेंद्र मोदी का चेहरा। एक साल के अंदर विपक्ष के हाथों बीजेपी ने पांचवा राज्य गंवा दिया है। नमस्कार मैं अभिनय आकाश और प्रभासाक्षी के इस खास कार्यक्रम MRI में आपका स्वागत है। एक बार फिर से हम आपके सामने मोस्ट रिलाइबल इंफॉर्मेशन यानी MRI के साथ मौजूद हैं। एमआरआई में आज हम बात करेंगे सबसे ज्यादा वोट लेकर भी सत्ता से दूर होती बीजेपी के बारे में और साथ ही आपको बताएंगे कि कैसे लगातार सिकुड़ रहा बीजेपी का सियासी नक्शा। तो आइए बीजेपी के उभरने और फिसलने के पहलुओं का MRI स्कैन शुरू करते हैं। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब 2014 में बीजेपी को केंद्र की सत्ता मिली तो उस वक्त बीजेपी महज सात राज्यों में सरकार चला रही थी। इनमें से 2 राज्यों में बीजेपी गठबंधन सरकार में थी। राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गोवा में बीजेपी की अपने दम पर सरकार चल रही थी, जबकि पंजाब और आंध्र प्रदेश में वह गठबंधन में थी। वहीं, कांग्रेस 13 राज्यों में थी। लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह की सियासी गाड़ी ऐसी दौड़ी कि दिल्ली का सपना दिखाकर महारष्ट्र, हरियाणा और झारखण्ड जैसे राज्यों को अपना बनाने के बाद कश्मीर में कमल खिलाने का भी करिश्मा कर दिखाया। देखते ही देखते साल 2017 तक बीजेपी हिंदुस्तान के 71 फीसदी हिस्से में छा गई। मार्च 2018 तक बीजेपी और उसकी गठबंधन सरकार वाले राज्यों की संख्या 21 तक पहुंच गई।
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लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, आंध्र प्रदेश और जम्मू कश्मीर में बीजेपी ने अपने दम पर या सहयोगियों के साथ मिलकर सरकार बनाई। सिक्किम में उसने अपनी मदद से सरकार बनवाई। 2016 में बीजेपी ने असम में इतिहास रचा और कांग्रेस के 15 साल के शासन को खत्म कर दिया। इसके बाद 2017 में 7 राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए तो बीजेपी ने यूपी, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में सरकार बनाई, जबकि कांग्रेस ने पंजाब में अपना खाता खोला। नॉर्थ ईस्ट के राज्यों में भी बीजेपी ने अपने सहयोग से कई सरकारें बनवाईं। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था और मोदी और शाह की जोड़ी अपराजय मानी जाने लगी थी। लेकिन साल बदलता है और 2018 की शुरुआत होती है। जो बीजेपी के लिए एक बार फिर खुशियां लेकर आती है। त्रिपुरा में बीजेपी ने सरकार बनाकर इतिहास रच दिया। इधर बीजेपी के सियासी नक्शे का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा था उधर कांग्रेस अपनी हार वाली बीमारी दूर करने का नुस्खा दूंढ़ रही थी। बुरे वक्त की एक खासियत होती है कि वो चला जाता है उसी प्रकार अच्छे वक्त की भी एक बुराई होती है कि वो भी चला जाता है। मई 2018 में कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होते हैं। बीजेपी ने सबसे ज्यादा सीटें जीतीं, लेकिन सरकार बनाने में सफल नहीं होती है। कांग्रेस ने जेडीएस को समर्थन देकर सरकार बनवा दिया। लेकिन ये तो एक शुरूआत थी आगे तो बीजेपी को और भी बड़े झटके लगने बाकी थे। 2018 के आखिर में बीजेपी को सबसे बड़े झटके लगे। हिंदी पट्टी के तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सत्ता खिसक गई और कांग्रेस सरकार बनाने में सफल रही। तेलंगाना में भी बीजेपी के हाथ कुछ नहीं लगा।
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लगने लगा कि मोदी मैजिक और अमित शाह की चाणक्य नीति फेल हो गई है। विपक्ष का उत्साह सातवें आसमान पर होता है। साल 2019 में लोकसभा चुनाव होते हैं। 303 सीटें जीतकर केंद्र में पीएम मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी। भाजपा को मिली इस विराट सफलता के मैन ऑफ द मैच नरेंद्र मोदी और कप्तान अमित शाह की जोड़ी पूरे देश में ऐसी दौड़ी की क्या भोपाल क्या जयपुर क्या बंगाल एक-एक कर सारे प्रदेश भाजपा की झोली में आकर गिरने लगे। गुजरती हुई सत्ता और आती हुई सत्ता के संधिस्थल पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सियासी सफलता के साम्राज्य हो गए। जिसके बाद कर्नाटक का सियासी घटनाक्रम भी बदला और वहां भी बीजेपी को सत्ता मिल गई। लेकिन उसके कुछ महीने बाद ही लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिले प्रचंड जनादेश के पांच महीने बाद महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव परिणाम आए। दोनों ही राज्यों में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी बीजेपी जहां बदले सियासी खेल से सत्ता से बाहर हो गई वहीं हरियाणा में सहयोगियों के सहारे सरकार बनाने में सफल रही। लेकिन महाराष्ट्र में लगभग 20 सीटों का घटना और हरियाणा में त्रिशंकु नतीजों का आना बीजेपी के लिए कहीं से सुखद संकेत नहीं माने गए। जिसके बाद झारखंड के परिणाम ने तो जैसे बीजेपी के पैरों तले जमीन ही खिसका दी। झारखंड मु्क्ति मोर्चा, आरजेडी और कांग्रेस के गठबंधन ने सूबे में बीजेपी के तमाम तिलस्मों की दुर्गती कर दी। शाम होते होते ये आलम हो गया कि पहले तो बीजेपी से पहली बार सबसे बड़े दल का तमगा एक नन्हीं सी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा ने छीना। उसके बाद मीडिया से मुखातिब होने आए रघुवर दास तो विधायक भी नहीं रहे। झारखंड में दुर्गति बीजेपी के लिए केवल एक राज्य में सत्ता से बाहर हो जाना नहीं है। उसकी खिसकती हुई जमीन, नरेंद्र मोदी के जादुई तिलिस्म की फीकी पड़ती चमक और अमित शाह जैसे चुनावी गणितज्ञ के निरंतर नाकामियों पर एक और मुहर है।
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बताते हैं कैसे
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उसका वोट प्रतिशत था 51 और 54 विधानसभा क्षेत्रों में उसे बढ़त मिली थी। 16 विधानसभ क्षेत्रों में तो ये बढ़त 90 हजार वोटों से अधिक थी। लोकसभा की 14 में से 11 सीटें बीजेपी ने जीती थी।लेकिन सात महीने में ही सत्ता के खेल बदल गए। बीजेपी ने साझेदारों को आंख तरेरना शुरू कर दिया। अकेले दम पर चुनाव में गई और अमित शाह की चालों और नरेंद्र मोदी के चेहरे पर एकल भरोसा किया। नतीजे बता रहे हैं कि वो भरोसा पार्टी की सेहत के लिए अच्छा साबित नहीं हो रहा हुआ है।वोट प्रतिशत से गिर कर 33 फीसदी रह गया और 8 फीसदी वोट कभी साझेदार रही आजसू ले उड़ी। अनुसूचित जनजाति की 28 में से 20 सीटें बीजेपी हार गई।दो नक्शे दिखाते हैं आपको जिसको देखकर आप आसानी से समझ जाएंगे कि बीजेपी कहां से कहां पहुंच गई। एक नक्शा है दिसंबर 2017 का और दूसरा है दिसंबर 2019 का। इन दो वर्षों में बीजेपी शासित राज्यों का क्षेत्रफल आधे से भी नीचे रह गया है। 71 फीसदी से फिसलकर सीधे 35 फीसदी और आबादी 68 फीसदी से गिरकर 43 फीसदी। मतलब देश की दो तिहाई हिस्से में बीजेपी की विरोधी सरकारे हैं। रांची से लेकर दिल्ली तक बीजेपी अपने जख्म सहला रही है। कांग्रेस मुक्त भारत के स्वप्न से शुरू हुए मोदी के सफर उनकी पार्टी के लिए स्वप्न में बदल चुका है। आखिर ऐसा क्या हो गया कि लोकसभा चुनाव के बाद अजेय माने जाने वाली बीजेपी की चुनावी मैनेजमेंट पर सवाल उठाने लगे हैं। दोनों राज्यों में आशा अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाना वो भी ऐसे वक्त में कि अगले महीने में दिल्ली में भी चुनाव होने हैं।सर्दियों का मौसम चल रहा है लेकिन आपको थोड़ा पीछे लिए चलते हैं। जून की तपती गरमी में पहली तारीख को राष्ट्रपति भवन की लाल कालीन से नरेंद्र मोदी के साथी, सहयोगी और सारथी अमित शाह ने सरकार पार्ट 2 में एक अहम जिम्मेदारी संभाली।
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शाह को गृह मंत्रालय का जिम्मा मिला तो बीजेपी के गृह यानी पार्टी की कमान कौन संभालेगा इसको लेकर तमाम अटकलें चलती रहीं। तमाम तैरते नामों के बीच जगत प्रकाश नड्डा को बीजेपी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया। साथ ही बीजेपी संसदीय बोर्ड की बैठक में अगले कुछ महीने तक अमित शाह के बीजेपी अध्यक्ष बने रहने को लेकर भी निर्णय किया गया। गृह मंत्री होने की वजह से अमित शाह को 24 घंटे का एक बड़ा भाग सरकारी कामकाज में देना पड़ता है। गृह मंत्रालय जैसे अहम विभाग संभालने के कारण अमित शाह पार्टी को उतना समय नहीं दे पाए जिसका असर चुनाव परिणामों पर भी दिखता प्रतीत हो रहा है। कहने को तो जेपी नड्डा कार्यकारी अध्यक्ष जरूर हैं, लेकिन बड़े फैसलों के वक्त अमित शाह की उपस्थिति और सक्रियता जरूर होती है। लेकिन लगता है कि ये डबल रोल बीजेपी को भारी पड़ने लगा है। इन पांच-छह महीनों में जैसे मौसम में बदलाव आ गया है और ठंड ने दस्तक दे दी है, ऐसे ही असर को परिणामों के आधार पर बीजेपी में भी महसूस कर सकते हैं। शाह और नड्डा की कार्यशैली में काफी फर्क है। अमित शाह खुद चुनावों से ऐन पहले पार्टी संगठन से जुड़े लोगों से कई दौर की बातचीत करते थे। बूथ लेवल कार्यकर्ताओं से संवाद करते रहे हैं। स्थानीय स्तर से लेकर हेडक्वार्टर लेवल तक रणनीति बनाकर उम्मीदवारों का चयन और उन्हें चुनावी मैदान में उतारते रहे हैं लेकिन इस बार नड्डा के नेतृत्व में ऐसी रणनीति की कमी दिखी। संभवत: इसका भी खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा है और स्वर्ण कमल राज्यों में क्षेत्रीय दलों के आगे मुरझाता जा रहा है।आज हमने बीजेपी के उभरने और फिसलने के पहलुओं का पूरा विशलेषण किया। कल फिर रिलाइबेल यानी विश्वसनीय जानकारी और तथ्यों के साथ किसी बड़ी खबर का MRI स्कैन करेंगे। आज के लिए दें इजाजत। और ऐसे ही रिपोर्ट्स को देखने के लिए प्रभासाक्षी के साथ लगातार बने रहे। वीडियो को देखने के लिए फेसबुक और ट्वीटर पर हमें फालो करें और यूट्यूब पर प्रभासाक्षी को सब्सक्राइब करे। नोटिफिकेशन के लिए नीचे दिए गए गई बेल आइकन को दबाएं।
-अभिनय आकाश