इन दिनों प्रायः सभी मंदिरों में सूचना पट द्वारा भारतीय परिधान में आने की अपील की जा रही है। ये एक अच्छी शुरुआत है। असल में कई लोग काम पर जाने से पहले या काम से लौटकर मंदिर जाते हैं। ऐसे में वे ठीक कपड़े पहन लेते हैंय पर कुछ लोग यह ध्यान नहीं रखते। वे मंदिर को भी सिनेमा हॉल, मॉल, बाजार या चिडि़याघर जैसा मनोरंजन का स्थान समझते हैं।
कपड़ों की यह मर्यादा केवल धर्मस्थल पर ही नहीं, बाकी जगह भी है। कुश्ती और क्रिकेट के खिलाडि़यों के कपड़े एक जैसे नहीं हो सकते। विवाह या जन्मदिन की पार्टी में जो रंग−बिरंगे कपड़े पहनते हैं, वह शमशान या शोक सभा में नहीं पहन सकते। कॉलिज की दैनिक वेशभूषा और डिग्री समारोह की वेशभूषा में अंतर होगा ही। कपड़ों में परिवर्तन मौसम के अनुसार भी होता है।
पिछले दिनों केदारनाथ मंदिर का एक वीडियो बहुचर्चित हुआ, जिसमें एक युवती घुटनों के बल बैठकर अपने साथी युवक को अंगूठी पहना रही है। यह विवाह के लिए आग्रह (प्रपोज) करने की विदेशी शैली है, जो अब भारत में भी चल निकली है। इसके बाद दोनों परस्पर लिपट भी गये। यद्यपि युवक ने धोती−कुर्ता और लड़की ने साड़ी पहनी थी। देखने से साफ पता लगता है कि यह वीडियो योजनाबद्ध रूप से बना है। एक व्यक्ति तो अपने कुत्ते के साथ मंदिर में पहुंच गया और उससे नंदी के पैर भी छुआए। इस पर भी काफी आपत्ति की गयी।
मंदिर के गर्भगृह में केवल पुजारी ही जा सकता हैय पर कई लोग वहां भी सेल्फी, फोटो और वीडियो बनाते हैं। केदारनाथ में ही शिवपिंडी पर नोट बरसाती महिला का वीडियो भी पिछलेे दिनों बहुचर्चित हुआ है। कुछ लोग द्वार पर भीड़ में घुसकर सेल्फी लेते हैं, जिसमें गर्भगृह का दृश्य आ सके। कुछ लोग मंदिर की परिक्रमा करते हुए वीडियो बनवाते हैं। इससे शेष दर्शनार्थियों को बहुत असुविधा होती है।
ये सच है कि इन दिनों जहां एक ओर आधुनिकता बढ़ रही है, वहां धर्म के प्रति आकर्षण भी खूब है। इसीलिए श्रद्धालु बहुत बड़ी संख्या में धर्मस्थलों में आ रहे हैं और व्यवस्थाएं ध्वस्त हो रही हैं। देश के सभी मंदिरों का प्रायरू यही हाल है। इसलिए कई जगह मोबाइल और फोटोग्राफी प्रतिबंधित करने की मांग हो रही हैय पर कुछ लोग आजादी के नाम पर इसका विरोध कर रहे हैं।
असल में हम मंदिर, तीर्थ, धाम आदि को धर्मयात्रा की बजाय पर्यटन के दृष्टिकोण से देखने लगे हैं। यहां के पुजारी और प्रबंधक भी चाहते हैंं कि खूब लोग आएं, जिससे भरपूर दान और चढ़ावा उन्हें मिले। स्थानीय व्यापारी भी अधिक संख्या से खुश रहते हैं। इस यात्रा से ही उनका घर चलता है। शासन−प्रशासन कभी संख्या या अन्य किसी नियमन की बात कहता है, तो विरोध होता है। उत्तराखंड की चार धाम यात्रा में श्रद्धालुओं की संख्या पचास लाख तक पहुंचने लगी है। इस बार सावन की कांवड़ यात्रा में दस दिन में ही चार करोड़ लोग हरिद्वार आये। इनमें 90 प्रतिशत युवा थे। इससे अरबों रु. का कारोबार हुआ।
लोग इस संख्या से खुश तो हैंय पर इससे मंदिर और हिन्दू धर्म की मर्यादा के उल्लंघन की चिंता उन्हें नहीं है। धर्मस्थल की मर्यादा सब जगह है। गुरुद्वारे में सिर ढकना और जूते−चप्पल बाहर छोड़ना जरूरी है। मस्जिद में नमाज से पहले हाथ−पैर धोते हैं। सिर ढकने के लिए गोल टोपी या रूमाल प्रयोग करते हैं। हिन्दू और जैन मंदिरों में जूते−चप्पल पहन कर नहीं जा सकते। इसके लिए मंदिरों में चप्पल स्टैंड रहते हैं। त्योहारों में श्रद्धालु अधिक संख्या में आते हैं। ऐसे में स्टैंड पर कुछ कार्यकर्ता और सेवादार भी रहते हैं। वे परची देकर सुव्यवस्था बना देते हैं, जिससे किसी के जूते−चप्पल खो न जाएं। मंदिर में मूर्ति की ओर पैर करना भी खराब माना जाता है।
कई मंदिरों में मोबाइल फोन, खानपान सामग्री या चमड़े का सामान प्रतिबंधित है। वहां भी इन्हें बाहर रखने की व्यवस्था होती है। कहीं यह निरूशुल्क होती है, तो कहीं सशुल्क। चर्च में जूते−चप्पल का प्रतिबंध नहीं है। वहां बेंचों पर बैठकर लोग प्रार्थना करते हैं। अर्थात हर धर्म में पूजा और प्रार्थना स्थल पर अपनी परम्परा के अनुसार कुछ मर्यादाएं बनायी गयी हैं, जो जरूरी भी हैं।
इसलिए मंदिर में शालीन परिधान को पूजा के संस्कार और धार्मिक व्यवस्था का हिस्सा मानना चाहिए, वस्त्रों की आजादी पर प्रतिबंध नहीं। जरूरत बस इस बात की है कि इसके लिए घर के बड़े लोग, साधु−संत और मंदिर के पुजारी भी शालीनता से युवाओं को समझाए।
− विजय कुमार
देहरादून