समतामूलक समाज का कारक और भविष्य की नई कल्पना का स्रोत है शिक्षक

By डॉ. शंकर सुवन सिंह | Sep 05, 2022

शिक्षक समाज का दर्पण होता है। समाज में व्याप्त बुराइयों को कुचलने में शिक्षक की अहम् भूमिका होती है। एक आदर्श शिक्षक अपनी लेखनी द्वारा समाज को जाग्रत करता है। एक शिक्षक को भिन्न भिन्न नामो से जाना जाता है। जैसे- टीचर, अध्यापक, गुरु, आचार्य,आदि। भविष्य की नई राह दिखाने वाले को शिक्षक कहते हैं। शिक्षक संकटों से उबारता है। शिक्षक के अंदर क्षमा करने का गुण होता है। गुरु शिष्य परंपरा में गुरु विद्यार्थियों की कमजोरियों को दूर कर उनको सफलता के चरम शिखर पर पहुँचाता है। तभी तो  कृष्ण और अर्जुन जैसी गुरु शिष्य परम्परा को जीवंत रखने वाला भारत विश्व गुरु कहलाया। त्रेतायुग में राक्षसों का नाश करने के लिए श्री हरि विष्णु ने श्रीराम के रूप में जन्म लिया था। श्रीराम के कार्य में हाथ बंटाने के लिए भगवान शिव ने वानर रूप में अवतार लिया। जिसे सारी दुनिया हनुमान (बजरंगबली) के नाम से जानती है। हनुमान जी माता अंजनी और केसरी के पुत्र हैं। बजरंगबली को पवन पुत्र भी कहते हैं। बजरंगबली वायु के समान गतिशील हैं। हनुमान जी में आध्यात्मिकता के सारे गुण मौजूद हैं उनका एक विशेष आध्यात्मिक गुण था सेवा। सेवा ही उनकी साधना थी। कहने का तात्पर्य गुरु सेवा से ही सफलता के चरम शिखर पर पहुंचा जा सकता है। 


हिन्दुओं के पवित्र ग्रन्थ रामायण में एक कथा है जब हनुमान जी लंका को जाने वाले थे तब वह जामवंत जी की सलाह लेकर गए थे। हनुमान जी को जामवंत ने उनका बल याद दिलाया और कहा कि राम काज लगि तब अवतारा, सुनतहि भयउ पर्वताकारा। जामवंत द्वारा बल याद दिलाए  जाने के बाद हनुमान जी  ने लंका में प्रवेश किया और भगवान के दिए कार्य को सफल किया। कहने का तापर्य एक आदर्श गुरु आपके अंदर निहित शक्तियों को जाग्रत करने का कार्य करता है। भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत गुरु (शिक्षक) अपने शिष्य को शिक्षा देता है या कोई विद्या सिखाता है। बाद में वही शिष्य गुरु के रूप में दूसरों को शिक्षा देता है। यही क्रम चलता जाता है। गुरु-शिष्य की यह परम्परा ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में हो सकती है, जैसे- अध्यात्म, संगीत, कला, वेदाध्ययन, वास्तु आदि। भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत महत्व है। कहीं गुरु को 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' कहा गया है तो कहीं 'गोविन्द'। गु और रु दो अक्षरों से मिलकर गुरु शब्द का निर्माण हुआ। 'गु' का शाब्दिक अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु'  का अर्थ है प्रकाश (ज्ञान)। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो प्रकाश है, वह गुरु है। आश्रमों में गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता रहा है। भारतीय संस्कृति में गुरु को अत्यधिक सम्मानित स्थान प्राप्त है। भारतीय इतिहास में गुरु की भूमिका समाज को सुधार की ओर ले जाने वाले मार्गदर्शक के रूप में होने के साथ क्रान्ति को दिशा दिखाने वाली भी रही है।

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भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है। हिन्दुओं के पवित्र ग्रन्थ बृहदारण्यक उपनिषद में विद्यमान एक मन्त्र है। यह मन्त्र मूलतः सोम यज्ञ की स्तुति में यजमान द्वारा गाया जाता था। मंत्र इस प्रकार है 


असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय।मृत्योर्मामृतं गमय ॥ -बृहदारण्यकोपनिषद्। 


इस मंत्र का हिंदी में भावार्थ इस प्रकार है - मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो। मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥ प्राचीन काल में गुरु और शिष्य के संबंधों का आधार था गुरु का ज्ञान, मौलिकता और नैतिक बल। उनका शिष्यों के प्रति स्नेह भाव, तथा ज्ञान बांटने का निःस्वार्थ भाव शिक्षक में होता था। गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा, गुरु की क्षमता में पूर्ण विश्वास तथा गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण एवं आज्ञाकारिता भी शामिल था। अनुशासन, शिष्य का सबसे महत्वपूर्ण गुण है। 


तभी तो कहा गया है “गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर:। गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः”। 


इस श्लोक में गुरु के महत्त्व को दिखाने के लिए गुरु की तुलना ब्रह्मा विष्ण तथा महेश के साथ की गई है। गुरु में अप्रतिम शक्ति होती है। गुरु ईश्वर की छाया है। संत कबीर दास का एक दोहा है- गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय। बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।। अर्थ – कबीर दास जी ने इस दोहे में गुरु की महिमा का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि जीवन में कभी ऐसी परिस्थिति आ जाये की जब गुरु और गोविन्द (ईश्वर) एक साथ खड़े मिलें तब पहले किन्हें प्रणाम करना चाहिए। गुरु ने ही गोविन्द से हमारा परिचय कराया है इसलिए गुरु का स्थान गोविन्द से भी ऊँचा है। आज-कल के गुरु अधिकांशतः धन कमाने में लगे हुए हैं। गुरु ज्ञान का प्रतीक होता है। आज-कल गुरु धन के प्रतीक बनते जा रहे हैं। जो गुरु धन कमाने पर ध्यान केंद्रित करेगा वो न तो कभी क्लास लेगा,न ही कभी ज्ञान की बातें करेगा। ऐसे गुरु लोग,सतत कार्य करने वाले गुरुओं पर छींटाकशी करते हैं। परिणामतः सतत कार्य करने वाले गुरुओं का मनोबल गिरता है। विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक कार्य करने वाले गुरु लोग अपनी प्राइवेट लैब चला रहे हैं। प्राइवेट कोचिंग चला रहे हैं। ऐसे शिक्षक छात्रों पर दवाब बनाकर अपनी लैब,अपनी कोचिंग में बुलाकर धन उगाही का काम करते हैं। जबकि सभी विश्वविद्यालयों में लैब की व्यवस्था होती है तो कैसे एक टीचर अपनी प्राइवेट लैब खोलकर छात्रों पर दवाब बना सकता है? कुछ शिक्षक तो शिक्षण कार्य के साथ साथ बिज़नेस भी कर रहे हैं। 


विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को चाहिए कि वह ऐसे अकर्मण्य, लालची टीचरों को चिन्हित कर उनके खिलाफ कार्यवाही करें। एक शिक्षक का धन कमाने के उद्देश्य से प्राइवेट लैब खोलना, कोचिंग खोलना,अन्य प्रकार के बिज़नेस करना और अपने धंधे को बढ़ाने के लिए छात्रों पर दवाब बनाना आदि विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक स्तर को गिराती हैं। महान संत कबीर ने कहा था – कबीरा ते नर अँध है,गुरु को कहते और। हरि रूठे गुरु ठौर है,गुरु रूठे नहीं ठौर।। अर्थ–वे लोग अंधे हैं जो गुरु को ईश्वर से अलग समझते हैं। अगर भगवान रूठ जाएँ तो गुरु का आश्रय है पर अगर गुरु रूठ गए तो कहीं शरण नहीं मिलेगा। आजकल तो अधिकांशतः गुरु लोग इस दोहे का गलत प्रयोग कर रहे हैं। ऐसे शिक्षक,गुरु होने की आड़ में अपराध कर रहे हैं।

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ऐसे शिक्षक मानवता को कलंकित करते हैं। यदि विश्वविद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षक ही भक्षक बन जाएंगे तो समाज में समता नहीं विषमता पैदा होगी। ऐसे ही शिक्षकों द्वारा पढ़ाए गए बच्चे अपराध को जन्म देते हैं। इस प्रकार की शिक्षा से मानवता पर कुठाराघात हो रहा है। शिक्षा (एजुकेशन) बालक की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक,समन्वित व प्रगतिशील विकास है। शिक्षा व्यक्ति का ऐसा पूर्ण विकास है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी पूरी क्षमता से मानव जीवन के लिये अपनी मौलिक भूमिका प्रदान करते है। शिक्षा किसी राष्ट्र अथवा समाज की प्रगति का मापदंड है। जो राष्ट्र, शिक्षा को जितना अधिक प्रोत्साहन देता है वह उतना ही विकसित होता है। किसी भी राष्ट्र की शिक्षा नीति इस पर निर्भर करती है कि वह राष्ट्र अपने नागरिकों में किस प्रकार की मानसिक अथवा बौद्धिक जागृति लाना चाहता है। जिस दिन से शिक्षक सुधरेंगे उसी दिन से शिक्षा का स्तर सुधर जाएगा। शिक्षा और शिक्षक एक दूसरे के पूरक हैं। शिक्षकों के प्रशिक्षण व शिक्षा सम्बन्धी विभिन्न समस्याओं पर विजय पाना ही शिक्षक दिवस की उपलब्धि है। कर्मठ शिक्षकों का प्रोत्साहन ही इस दिवस को महत्वपूर्ण बनाता है। शिक्षक समतामूलक समाज का कारक है। अतएव हम कह सकते हैं कि शिक्षक ही भविष्य की नई कल्पना का स्रोत है।


- डॉ. शंकर सुवन सिंह

वरिष्ठ स्तम्भकार एवं विचारक

असिस्टेंट प्रोफेसर

शुएट्स,नैनी,प्रयागराज (यू पी)

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