मिस्त्री की जंग कैसे बनी भारत के कॉरपोरेट बोर्डरूम की सबसे बदतर लड़ाई

By अभिनय आकाश | Dec 20, 2019

नमक से लेकर सॉफ्टवेयर तक और चाय से लेकर स्टील तक बनाने वाली 100 अरब डॉलर की कंपनी टाटा ग्रुप को एक बड़ी कानूनी शिकस्त मिली है। वो भी कभी टाटा सन्स के चेयरमैन रहे साइरस मिस्त्री से। NCLAT यानी नेशनल कंपनी लॉ अपीलेट ट्राइब्यूनल ने कारपोरेट इतिहास का एक बड़ा फैसला सुनाया। साइरस मिस्त्री को फिर से टाटा सन्स के चेयरमैन पद पर बहाल कर दिया है। अपने सुनहरे करियर के अंतिम दौर में चल रहे रतन टाटा के लिए यह एक बड़ी शर्मिंदगी की बात है। 

 

साइरस मिस्त्री और टाटा के बीच की यह लड़ाई भारत के कॉरपोरेट बोर्डरूम की सबसे बदतर लड़ाइयों में से है। अक्टूबर का महीना था तारीख थी 10 और साल 2016 जब खुद रतन टाटा ने अपने अध्यक्ष सायरस मिस्त्री को बर्खास्त कर सभी को चौंका दिया। कंपनी के बोर्ड ने चार साल से अध्यक्ष का पद संभाल रहे 48 वर्षीय मिस्त्री की छुट्टी कर इसकी अंतरिम कमान एक बार फिर से रतन टाटा को सौंप दी थी। चार वर्ष पूर्व टाटा समूह की कमान संभालने वाले सायरस मिस्त्री को हटाया जाना जितना अप्रत्याशित कदम था, उतनी ही देश के डेढ़ सौ वर्ष पुराने औद्योगिक घराने में उत्तराधिकारी की लड़ाई का अदालत और कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल में पहुंच जाना है। जिसके बाद से ही ये लगने लगा कि टाटा सन्स के भीतर सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा। ये वो दौर था जब टाटा बोर्ड ने सायरस को बिना कोई नोटिस दिए एक झटके में पद से हटा दिया। 78 वर्षीय रतन टाटा ने अंतरिम तौर पर सायरस की जगह समूह की कमान दोबारा संभाल ली और फिर नटराजन चंद्रशेखरन को टाटा समूह की कमान सौंपी गई। 

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अगर बात साइरस मिस्त्री की करें तो उनके खाते में उपलब्धियां होने के बावजूद उनका तेजी से फैसले लेने और कोई बड़ी दृष्टि प्रदर्शित न कर पाने के कारण उन्हें 26 साल पहले ही महत्वपूर्ण जिम्मेदारी से हाथ धोना पड़ा। हालांकि मिस्त्री ने ई-कॉमर्स बढ़ाते हुए क्लिक नाम से डिजिटल प्लेटफार्म तैयार किया, टीसीएस का मुनाफा दोगुना किया और टाटा मोटर्स सवारी गाड़ियों की बिक्री में नए-नए मॉडल उतार कर इजाफा किया, लेकिन उनसे कई काम ऐसे हुए जो कंपनी के दूसरे प्रबंधकों को रास नहीं आए। मिस्त्री पर कंपनी के बढ़ते कर्ज को कम करने का दबाव था और इसी कारण उन्होंने कई तरह के बिजनेस समेटने का काम किया। उसे कंपनी हित में नहीं समझा गया। 103 अरब डॉलर के कंपनी समूह पर 24।5 अरब डॉलर का कर्ज काफी होता है और उसे कम करने के लिए सायरस ने ब्रिटेन के इस्पात व्यवसाय का जर्मन कंपनी “थाइसेनकुप” से सौदा करने के लिए वार्ताएं भी कर रहे थे। वे टाटा टेटली और टाटा जेगुआर में भी टाटा सन्स की हिस्सेदारी घटाना चाहते थे। जबकि उनके ठीक पहले चेयरमैन रहे रतन टाटा ने कोरस समूह के साथ इन तमाम कंपनियों का अधिग्रहण करते हुए टाटा के साम्राज्य को विस्तार दिया था। 

 

क्यों हटाए गए थे साइरस?

अपने चार साल के टेन्योर के दौरान साइरस वैसा परफॉर्म नहीं कर पाए जैसा रतन चाहते थे। साइरस के कार्यकाल में टाटा की ग्रोथ कम हुई। कंपनी पर काफी मुकदमे चल रहे हैं। ऐसे में रतन टाटा को ये लगना लाजिमी था कि बदलते हालातों में साइरस ग्लोबल बिजनेस को संभवत: न संभाल पाएं। साइरस ने टाटा की इनहाउस मैगजीन के इंटरव्यू में कहा था, 'सही कारणों के चलते वे कठिन फैसले लेने में पीछे नहीं हटेंगे'… इसे रतन की सोच के खिलाफ माना गया। 1991 में टाटा ग्रुप का बिजनेस 10 हजार करोड़ का था जो रतन के टेन्योर में बढ़कर करीब 4 लाख 75 हजार 721 करोड़ रु का हो गया।


नियुक्तियों पर सवाल: मिस्त्री ने जहां अहम सीनियर पदों को खाली रखा, वहीं ऐसे लोगों को भर्ती कर लिया जिनके टैलंट पर सवाल उठे।

 

वृद्धि हासिल करने के रास्ते पर सवाल: मिस्त्री ने और ज्यादा ग्रोथ पर फोकस करने के बजाय कर्ज घटाने के लिए ग्रुप की ऐसेट्स को बेचने का रास्ता चुना जो पुरानी पीढ़ी को रास नहीं आया।

 

कारोबारी नैतिकता से समझौता!: मिस्त्री के चेयरमैन बनने के बाद भी टाटा ग्रुप की कंपनियों और शापूरजी पालोनजी ग्रुप के कंस्ट्रक्शन और रियल एस्टेट बिजनस की बिजनस डीलिंग्स में हितों के टकराव की स्थिति बनी। शापूरजी पालोनजी ग्रुप का नियंत्रण मिस्त्री के परिवार के पास है। यह देश के सर्वाधिक सम्मानित बिजनस हाउस की आचार संहिता का उल्लंघन है।

 

शापूरजी पालोनजी ग्रुप का मामला: मिस्त्री ने खुद टाटा ग्रुप की कंपनियों को भेजे गए लेटर में कहा था कि शापूरजी पालोनजी ग्रुप को कोई नया कॉन्ट्रैक्ट न दिया जाए। हालांकि यह आरोप लगाया जा रहा है कि टीसीएस, टाटा मोटर्स या टाटा पावर जैसी फ्लैगशिप कंपनियों के साथ डीलिंग्स जारी रहीं।

 

इंपीरियल टावर्स से सीधे जमीन पर: एक अधिकारी ने इंपीरियल टावर्स के लग्जरी सुइट्स और रेस्ट्रॉन्ट्स को मैनेज करने का कॉन्ट्रैक्ट ताज को दिए जाने पर सवाल उठाया। इंपीरियल टावर्स साउथ मुंबई में है और इस पर एसपी ग्रुप का मालिकाना हक है। अधिकारी ने कहा कि ताज के तत्कालीन सीनियर मैनेजमेंट ने इस कॉन्ट्रैक्ट पर सवाल उठाए थे। आरोप लगाया जा रहा है कि जब इन प्रस्तावों को मंजूर किया गया तो मिस्त्री इंडियन होटल्स के बोर्ड में थे और टाटा ग्रुप के लिए चेयरमैन डेजिग्नेट थे।

 

शेयरहोल्डर्स से खराब व्यवहार: टाटा मोटर्स के शेयरधारकों ने अगस्त 2016 में शिकायत की थी कि उन्हें प्रति शेयर सिर्फ 20पैसे डिविडेंड दिया गया। तब मिस्त्री ने इस कदम को सही ठहराया था। उन्होंने कहा, आप सभी से जुटाई पूंजी नए प्रोडक्ट्स में लगा रहे हैं। इस लंबे सफर में कमजोर दिल वालों की जगह नहीं है।

 

ग्रोथ की ठोस योजना नहीं: साइरस मिस्त्री चाहते थे कि 2025 तक टाटा समूह मार्केट कैप के लिहाज से दुनिया के टॉप-25 में जाए और समूह की पहुंच दुनिया की 25 फीसदी आबादी तक हो जाए। लेकिन वे इसके संकेत ही दे सके। विस्तृत प्लान पेश नहीं कर पाए।

 

फैसले लेने में देरी: समूह के विभिन्न कारोबार की लीडरशिप में मिस्त्री जान नहीं फूंक पाए। 2014 में कार्ल स्लिम की मौत के बाद टाटा मोटर्स में सीईओ नियुक्त करने में देरी की। हालांकि, टीसीएस के लिए एन चंद्रशेखरन जैसा स्मार्ट लीडर खोजने में कामयाब रहे।

 

स्लोलर्नर, क्लास अटेंड करते रहे: मिस्त्री ने पहले तीन साल टाटा समूह के कारोबारी साम्राज्य और इसकी जटिलताओं को समझने में लगा दिए। भू-राजनैतिक, टेक्नोलॉजी और सामाजिक मसलों पर अपनी समझ ही बढ़ाते रहे। क्लास रूम और सेमिनार में नई-नई पॉलिसी ही सीखते रहे।

 

सिर्फ मुनाफा कमा रही कंपनियों पर कर रहे थे फोकस: कंपनी के बोर्ड ने कोई ठोस कारण नहीं बताया है, लेकिन माना जा रहा है कि टाटा सन्स अपने ग्रुप की नॉन-प्रॉफिट बिजनेस वाली कंपनियों से ध्यान हटाने की मिस्त्री की सोच से नाखुश थी। इसका एक उदाहरण यूरोप में टाटा स्टील का बिजनेस है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, रतन टाटा को लगता था कि साइरस का पूरा फोकस टाटा कंसल्टेंसी सर्विस यानी टीसीएस पर है। जबकि ये कंपनी पहले ही प्रॉफिट में है और सबसे ज्यादा मजबूत है लेकिन साइरस उन कंपनियां के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर रहे थे जो दिक्कतों का सामना कर रही थी।

 

'कैश काउज' पर ही फोकस: मिस्त्री परंपरागत कारोबार से ध्यान हटाकर 'कैश काउज' पर ही फोकस कर रहे थे। ये बोर्ड को नागवार गुजरा। हालांकि, मिस्त्री के लिए भी ये चैलेंज से भरा रहा, क्योंकि उन्हें घाटे के चलते यूके में टाटा स्टील को बेचने का फैसला करना पड़ा। सितंबर 2015 में पहली बार यूरोप में टाटा स्टील को घाटा झेलना पड़ा। 2016 के फर्स्ट क्वार्टर में टाटा स्टील को 3 हजार करोड़ रुपए का घाटा हुआ। ब्रिटेन जैसे ही यूरोपियन यूनियन से बाहर हुआ, टाटा स्टील पर संकट मंडराने लगा।

 

घट रहा था ग्रुप का परफॉर्मेंस: टाटा ग्रुप के ऑटोमोबाइल से लेकर रिटेल तक और पावर प्लान्ट से सॉफ्टवेयर तक, करीब 100 बिजनेस हैं। इनमें से कई कंपनियां मुश्किल दौर से गुजर रही हैं। फाइनेंशियल ईयर 2016 में ग्रुप की 27 लिस्टेड कंपनियों में से नौ कंपनियां नुकसान में चल रही हैं। सात कंपनियों की कमाई में भी कमी आई है। रतन टाटा से मिस्त्री को 108 बिलियन डालर का सालाना करोबार (2014-15) मिला था, जो 2015-16 में घटकर 103 बिलियन डालर रह गया। ग्रुप का कुल कर्ज/देनदारी मार्च 2015 में जहां 23.4 अरब डॉलर थी, वह मार्च 2016 में बढ़कर 24.5 अरब डॉलर हो गई। ग्रुप पर कर्ज करीब 1 बिलियन डॉलर बढ़ा।

 

कानूनी मुकदमें, बड़ा फाइन: मिस्त्री के कार्यकाल के दौरान एक साल में इंटरनेशनल कोर्ट खासकर यूएस में टाटा समूह की खूब फजीहत हुई। इनमें सबसे ज्यादा काबिल-ए-गौर है यूएस ग्रैंड ज्यूरी की तरफ से समूह की सबसे कमाऊ कंपनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेस और टाटा अमेरिका इंटरनेशनल कॉरपोरेशन पर लगा फाइन। दोनों कंपनियों पर ज्यूरी ने एक ट्रेड सीक्रेट मुकदमे के तहत 94 करोड़ डॉलर (करीब 6000 करोड़ रुपए) का फाइन लगाया था। टाटा ग्रुप जापान की डोकोमो से भी टेलिकॉम ज्वाइंटर वेंचर के बंटवारे को लेकर कानूनी लड़ाई लड़ रहा है। डोकोमो टाटा टेलि सर्विसेस से अलग हो चुकी है। डोकोमो ने टाटा से 1.2 बिलियन डॉलर का हर्जाना मांगा। ऐसा ना होने पर टाटा की ब्रिटिश प्रॉपर्टीज पर मालिकाना हक दिए जाने की मांग की।

 

साइरस के सनसनीखेज आरोप

टाटा ग्रुप के चेयरमैन पोस्ट से हटाए जाने के बाद साइरस मिस्त्री ने एक मेल लिख कर रतन टाटा समेत बोर्ड पर कई आरोप लगाए। मिस्त्री ने अपने मेल में कहा है कि वो वास्तविक हेड न होकर कागजी या नाम का चेयरमैन थे।

 

2011 में जब सर्च कमेटी चेयरमैन की खोज कर रही थी उसी दौरान मुझे रतन टाटा और लॉर्ड भट्टाचार्य ने अप्रोच किया लेकिन मैंने तब पोस्ट लेने से मना कर दिया। इसकी वजह ये थी कि मैं खुद अपना बिजनेस सैटल कर रहा था।

 

चूंकि कमेटी को चेयरमैन के लिए कोई दूसरा शख्स नहीं मिल रहा था। लिहाजा रिक्वेस्ट कर मुझसे ही पोस्ट लेने को कहा गया। मैंने अपनी फैमिली से बात की, टाटा ग्रुप के इंटरेस्ट के बारे में जानकारी हासिल की और अपने पूर्व फैसले को छोड़ते हुए टाटा ग्रुप का चेयरमैन बनना तय किया।

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अप्वाइंटमेंट्स से पहले ही मैंने कह दिया था कि उन्हें मुझे फ्री हैंड देना होगा। मुझसे पहले के चेयरमैन, पोस्ट छोड़ चुके थे। बताया गया कि जरूरत पड़ने पर सुझाव देने के लिए वे मौजूद रहेंगे। मेरा अप्वाइंटमेंट होने के बाद टाटा ट्रस्ट, टाटा संस बोर्ड, चेयरमैन और ऑपरेटिंग कंपनीज से जुड़े नियमों में बदलाव हुए।

 

मैं इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हूं कि किसी बोर्ड मेंबर और ट्रस्टीज ने मेरी बताई समस्याओं से चिंता जताई। हालांकि इसके लिए मैं उन्हें दोषी नहीं मान रहा। एक नॉन-एग्जीक्यूटिव डाइरेक्टर होने के नाते मैं इश्यूज की ग्रेविटी का सही आकलन नहीं कर पाया।

 

सभी का जानकारी के लिए बता दूं कि एक्वीजिशन स्ट्रैटजी में जीएलआर और टेटली को छोड़ दें तो बाकी में काफी कर्ज हो गया था। आईएचसीएल की कई फॉरेन प्रॉपर्टीज और ओरिएंट होटल की कई होल्डिंग्स घाटे में बेची गई थीं। टाटा केमिकल के यूके-केन्या ऑपरेशंस को लेकर भी कड़े फैसले लेने की जरूरत है।

 

टाटा के टेलिकॉम बिजनेस की हालत लगातार खराब हो रही है। अगर हम इसे बेचते या बंद कर देते तो भी इसकी कॉस्ट 4-5 बिलियन आती। डोकोमो का पेआउट एक बिलियन डॉलर से ज्यादा है।

 

टाटा पावर ने कम कीमत वाले इंडोनेशियाई कोयले के लिए मूंदड़ा प्रोजेक्ट के लिए बोली लगाई। नियम चेंज होने के चलते 2013-14 में 1500 करोड़ का नुकसान हुआ।

 

टाटा मोटर्स के सामने भी काफी चुनौतियां हैं। एनपीए 40 हजार करोड़ तक बढ़ चुका है। नैनो कार के एक लाख रुपए में बनाए जाने की बात कही गई थी लेकिन इसकी लागत हमेशा एक लाख से ज्यादा रही। इसमें भी करीब 1 हजार करोड़ का घाटा हुआ।

 

2011-15 के बीच आईएचसीएल, टाटा मोटर्स पीवी, टाटा स्टील यूरोप, टाटा पावर मूंदड़ा और टेलीसर्विसेज का कैपिटल (घाटे और इंटरेस्ट के बावजूद) 1 लाख 32 हजार करोड़ से 1 लाख 96 हजार तक बढ़ गया। इन चुनौतियों के बाद भी मैंने कई कड़े फैसले लिए।

 

तमाम बातों के बावजूद मेरे टेन्योर में ग्रुप का कैश फ्लो 31% सालाना की रेट से बढ़ा। टाटा संस की नेटवर्थ करीब 26 हजार करोड़ से 42 हजार करोड़ बढ़ गई। इससे हमारी बैलेंस शीट्स मजबूत होने के साथ झटके सहन करने की ताकत भी बढ़ी। मुझे यकीन नहीं होता कि मुझे नॉन-परफॉर्मर होने के चलते हटाया गया। अगर आपको पता हो कि नॉमिनेशन एंड रेम्युनरेशन कमेटी के विजय सिंह, फरीदा खंबाटा, रोनेन सेन, इंडिपेंडेंट डायरेक्टर्स (इनमें से दो ने मुझे हटाने के लिए वोट किया था) ने मेरे काम की तारीफ की थी।

 

हालांकि टाटा सन्स ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा था कि मिस्त्री को इन सब निर्णयों की पूरी जानकारी थी और वह टाटा सन्स से डायरेक्टर के रूप में 2011 से ही जुड़े थे।

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टाटा परिवार से ही चुने जाते रहे हैं चेयरमैन

टाटा ग्रुप की स्थापना 148 साल पहले (1868) में हुई थी।

2 बार को छोड़ दें तो तब से अब तक टाटा परिवार से ही चेयरमैन आते रहे हैं।

1932-38 तक सर नौरोजी सकलतवाला और 2012-16 तक साइरस मिस्त्री टाटा संस के चेयरमैन रहे। केवल ये दोनों ही नॉन-टाटा फैमिली से थे।

 

टाटा ग्रुप में परिवार से ही मुखिया चुनने की परंपरा है। चूंकि टाटा परिवार में ज्यादातर लोग शादी नहीं करते। वे गोद ले लेते हैं। रतन भी गोद ही लिए गए थे। लिहाजा उत्तराधिकारी चुनने में मुश्किल होती है।

एक दिलचस्प बात ये भी है कि पालोनजी मिस्त्री (साइरस के पिता) के पास टाटा के 18.4% शेयर्स हैं।

 

टाटा परिवार के बाहर पालोनजी अकेले ऐसे शख्स हैं जिनके पास इतनी शेयर होल्डिंग है। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने कभी टाटा संस की टॉप पोस्ट के लिए कोई दावा नहीं किया। इसके पीछे भी टाटा की परंपरा का ही होना है।

 

क्या है NCLAT

राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण (NCLAT) का गठन कंपनी अधिनियम 2013 की धारा 410 के तहत किया गया था। ये 1 जून 2016 से राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) के आदेशों के खिलाफ अपील की सुनवाई के लिए बनाया गया ट्रिब्यूनल है। बता दें कि सबसे पहले किसी कंपनी के दिवालिया होने पर मामला नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) के पास जाता है। यहां इसके लिए इनसॉल्वेंसी प्रोफेशनल नियुक्त किया जाता है, जिसे यह जिम्मा सौंपा जाता है कि वो 180 दिनों के भीतर कंपनी को रिवाइव करने का प्रयास करे। अगर कंपनी 180 दिनों के भीतर रिवाइव हो जाती है तो फिर से सामान्य कामकाज करने लग जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो उसे दिवालिया मानकर आगे की कार्रवाई की जाती है।

 

नमक से लेकर लोहा और सॉफ्टवेयर से लेकर भारी वाहन बनाने वाले टाटा समूह का झगड़ा पारिवारिक हितों से भी जुड़ा है। असल में सायरस मिस्त्री उस परिवार से ताल्लुक रखते हैं, जिसकी टाटा समूह में 20 प्रतिशत हिस्सेदारी है। लिहाजा वह इस लड़ाई को दूर तक ले जा सकते हैं। मगर आम भारतीयों के लिए इस विवाद का सिर्फ इतना मतलब है कि टाटा की साख बनी रहनी चाहिए, क्योंकि उसका लोहा दुनिया मानती आई है। ऐसे में अब सबकी नजरें इस दिलचस्प लड़ाई पर हैं।  क्या वह इस लड़ाई को अंतिम परिणति तक ले जाएंगे या अपनी प्रतिष्ठा वापस हासिल कर लेने के बाद अब कड़वाहट को दूर करते हुए कंपनी से दूर हो जाएंगे? हालांकि पिछले अनुभव को देखते हुए ऐसा लगता नहीं कि मिस्त्री इतनी आसानी से यह लड़ाई छोड़ने वाले हैं।

 

- अभिनय आकाश

 

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