स्वामी विवेकानंद भारत की आध्यात्मिक चेतना के एक ऐसे उज्ज्वल नक्षत्र है, जिन्होंनेे परंपराओं और आधुनिक विचारों को मथकर ऐसे मोती चुने, जिनसे भारत का गौरव दुनिया में बढ़ा है। उनकी कीर्ति युग-युगों तक जीवंत रहेगी, क्योंकि उनका मानवहितकारी चिन्तन एवं कर्म कालजयी हैं, वे एक प्रकाश-स्तंभ हैं, भारतीय संस्कृति एवं भारतीयता के प्रखर प्रवक्ता, युगीन समस्याओं के समाधायक, अध्यात्म और विज्ञान के समन्वयक एवं आध्यात्मिक सोच के साथ पूरी दुनिया को वेदों और शास्त्रों का ज्ञान देने वाले एक महामनीषी युगपुरुष थे। उन्होंने भारत को अध्यात्म के साथ विज्ञानमय बनाया, वे अध्यात्म एवं विज्ञान के समन्वयक थे।
स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में हुआ था। संन्यास से पहले उनके नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। 1881 में नरेंद्र की मुलाकात रामकृष्ण परमहंस से हुई। इसके बाद गुरु रामकृष्ण से प्रभावित होकर 25 साल की उम्र में नरेंद्र ने संन्यास ले लिया। संन्यासी बनने के बाद उनका नाम स्वामी विवेकानंद पड़ा। उनके लिये संन्यास एवं संतता संसार की चिन्ताओं से मुक्ति का मार्ग था। उन्होंने पुरुषार्थ से भाग्य रचा-अपना, हिन्दू समाज का और उन सभी का जिनके भीतर थोड़ी भी आस्था एवं आत्मविश्वास था कि हमारा जीवन बदल सकता है। जो अपनी माटी एवं संस्कृति के प्रति समर्पित थे। वे साहसी एवं अभय बनने की प्रेरणा देते हुए कहते थे कि अभय हो! अपने अस्तित्व के कारक तत्व को समझो, उस पर विश्वास करो। भारत की चेतना उसकी संस्कृति है। अभय होकर इस संस्कृति का प्रचार करो।’
स्वामी विवेकानन्द के इन्हीं सुलझे हुए विचारों के कारण वे तत्कालीन युवापीढ़ी के आकर्षण का केन्द्र बने, इसमें कोई शक नहीं कि वे आज भी अधिकांश युवाओं के आदर्श हैं। यही कारण है कि उनका जन्म दिन युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। उनकी हमेशा यही शिक्षा रही कि आज के युवक को शारीरिक प्रगति से ज्यादा आंतरिक प्रगति की जरूरत है। वे युवकों में जोश भरते हुए कहा करते थे कि उठो मेरे शेरांे! इस भ्रम को मिटा दो कि तुम निर्बल हो। वे एक बात और कहते थे कि जो तुम सोचते हो वह हो जाओगे। ऐसी ही कुछ प्रेरणाएं हैं जो आज भी युवकों को आन्दोेलित करती है, पथ दिखाती है और जीने का दर्शन प्रदत्त करती है। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नया भारत निर्मित करने की बात कर रहे हैं, उसका आधार स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाएं एवं प्रेरणाएं ही हैं।
स्वामी विवेकानन्द अच्छे दार्शनिक, अध्येता, विचारक, समाज-सुधारक एवं प्राचीन परम्परा के भाष्यकार थे। काल के भाल पर कुंकुम उकेरने वाले वे सिद्धपुरुष हैं। वे नैतिक मूल्यों के विकास एवं युवा चेतना के जागरण हेतु कटिबद्ध, मानवीय मूल्यों के पुनरुत्थान के सजग प्रहरी, अध्यात्म दर्शन और संस्कृति को जीवंतता देने वाली संजीवनी बंूटी, वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु हैं। वे अनावश्यक कर्मकांडों के विरुद्ध थे और हिन्दू उपासना को व्यर्थ के अनेक कृत्यों से मुक्त कराना चाहते थे। उन्होंने समाज की कपट वृत्ति, दंभ, क्रूरता, आडम्बर और अनाचार की भर्त्सना करने में संकोच नहीं किया।
पश्चिमी संस्कृति में योग एवं वेदांत के विषय में जागृति लाने का श्रेय भी स्वामी विवेकानंद को ही जाता है। जिन्होंने 19वीं शताब्दी में विश्व भ्रमण कर धर्म, ज्ञान और योग की शिक्षा को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया था। आज हर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का विकास चाहता है। इसके लिए सहना और तपना जरूरी है। अधिकतर लोग साधना और तपस्या से बचने के लिए ‘शोर्टकट’ रास्ते की खोज करते हैं। इससे क्षणिक सफलता मिल सकती है, पर इसके दूरगामी परिणाम हानिकारक होते हैं। स्वामीजी ने पुरुषार्थ के बल पर हर परिस्थिति को झेलते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। उन्होंने कहा कि यह कभी मत कहो कि ‘मैं नहीं कर सकता’, क्योंकि आप अनंत हैं। आप कुछ भी कर सकते हैं। उन्होंने चिन्ता नहीं, चिन्तन करने पर बल देते हुए नए विचारों को जन्म देने पर बल दिया।
स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का आध्यात्मिकता से परिपूर्ण वेदान्त दर्शन अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में उनके प्रयासों एवं प्रस्तुति के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी भारतीय संस्कृति एवं आध्यात्मिक मूल्यों को सुदृढ़ कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। कलकत्ता के एक कुलीन बंगाली परिवार में जन्मे विवेकानंद आध्यात्मिकता की ओर झुके हुए थे। वे अपने गुरु रामकृष्ण देव से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीव स्वयं परमात्मा का ही एक अवतार हैं। इसलिए मानव जाति की सेवा द्वारा परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है।
स्वामी विवेकानंद बहुत कठोर शिक्षक थे। उन्हें भारत से, भारत के लोगों से अगाध प्रेम था। वह भारत को एक बार फिर से महानता के शिखर पर ले जाना चाहते थे। यही वजह थी कि वह कमियों को नजरंदाज नहीं करते थे। चाहे वे कमियां उनके शिष्यों में हों या भारत के आम लोगों में। भारत से और इसकी आध्यात्मिक परंपरा से स्वामीजी का प्रेम अंधा नहीं था। स्वामीजी अपने शिष्यों से आंख मूंदकर यह मानने को नहीं कह रहे थे कि हमारी सभ्यता प्राचीन है, इसलिए इसे महान मान लो। उनका जोर तर्क की कसौटी का सहारा लेने पर था। स्वामीजी संन्यासी थे, संत थे, लेकिन उनके लिए धर्म का मतलब केवल मंदिर और कर्मकांड नहीं था। उन्होंने बहुत साफ शब्दों में धार्मिक कट्टरता और हिंसा पर प्रहार किया था।
भारत में विवेकानंद को एक देशभक्त संत एवं भारतीय पुनर्जागरण के पुरोधा पुरुष के रूप में माना जाता हैं। वे प्रज्ञा के पारगामी थे तो विनम्रता की बेमिशाल नजीर भी थे। वे करुणा के सागर थे तो प्रखर समाज सुधारक भी थे। उनमें वक्तृता थी तो शालीनता भी। कृशता थी तो तेजस्विता भी। आभिजात्य मुस्कानों के निधान, अतीन्द्रिय चेतना के धनी, प्रकृति में निहित गूढ़ रहस्यों को अनावृत्त करने में सतत् संलग्न, समर्पण और पुरुषार्थ की मशाल, सादगी और सरलता से ओतप्रोत, स्वामी विवेकानन्द का समग्र जीवन स्वयं एक प्रयोगशाला था, एक मिशन था, भारतीय संस्कृति के अभ्युदय का अनुष्ठान था।
स्वामी विवेकानन्द अतुलनीय संपदाओं के धनी थे। उनकी मेघा के दर्पण से वेदान्त, दर्शन, न्याय, तर्कशास्त्र, समाजशास्त्र, योग, विज्ञान, मनोविज्ञान आदि बहुआयामी पावन एवं उज्ज्वल बिम्ब उभरते रहे। वे दर्शन, धर्म, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, कला और साहित्य के एक उत्साही पाठक थे। इनकी वेद, उपनिषद, भगवद् गीता, रामायण, महाभारत और पुराणों के अतिरिक्त अनेक हिन्दू शास्त्रों में गहन रूचि थी। उनको बचपन में भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित किया गया था और ये नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम में व खेलों में भाग लिया करते थे। उन्होंने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी दर्शन और यूरोपीय इतिहास का अध्ययन किया। 1881 में इन्होंने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण की, और 1884 में कला स्नातक की डिग्री पूरी कर ली।
स्वामी विवेकानन्द हर इंसान को शक्तिसम्पन्न मानते थे, विश्व का हर कण शक्ति का अक्षय भंडार है और असीम स्रोत है। विश्व का दीप वह बनता है जो इस सत्य को अभिव्यक्ति देता है और दूसरों में अनुभूति की क्षमता जागृत करता है। हर युग हजारों संभावनाओं को लिए हुए हमारे सामने प्रस्तुत होता है। युग का नेतृत्व वह करता है जो उन संभावनाओं को वर्तमान का परिधान दे पाता है। वर्तमान युग संघर्षों का युग है। आज का प्रबुद्ध मनुष्य प्राचीन मूल्यों के प्रति आस्थावान होकर नए मूल्यों की स्थापना के लिए कृत-संकल्प है। युग का प्रधान वही हो सकता है जो इस संकल्प की पूर्ति में योग दे सकता है। स्वामी विवेकानन्द विश्वदीप थे, युग नेतृत्व के सक्षम आधार थे एवं नये धर्म के प्रवर्त्तक थे। विलक्षण जीवन और विलक्षण कार्यों के माध्यम से उन्होंने अध्यात्म को एक नई पहचान दी। स्वामी विवेकानन्द जन्म जयन्ती पर उनको हार्दिक नमन! श्रद्धासुमन समर्पित!!
- ललित गर्ग