स्वामी श्रद्धानंद ने किया था स्वामी दयानंद सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार

By अशोक मधुप | Dec 23, 2021

स्वामी श्रद्धानंद का नाम उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद से जोड़ा जाता रहा है। इतिहासकार बिजनौर जनपद के प्रसिद्ध व्यक्तियों का जिक्र करते स्वामी श्रद्धानंद का नाम लेते है किंतु बिजनौर से उनका क्या वास्ता थाॽ यह नहीं बता पाते। जबकि बिजनौर ने स्वामी श्रद्धानंद के सपने को पंख दिए। स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के सन्यासी थे। इन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया। गुरूकुल विश्वविद्यालय ज्वालापुर उन्ही की देन है।

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स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म 22 फ़रवरी सन् 1856 को पंजाब  के जालन्धर जिले के तलवान ग्राम में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता, लाला नानक चन्द, ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। उनके बचपन का नाम वृहस्पति और मुंशीराम था। किन्तु मुन्शीराम सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ।


पिता का ट्रान्सफर अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार नहीं हो सकी। एक बार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक-धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे। पुलिस अधिकारी नानकचन्द अपने पुत्र मुंशीराम को साथ लेकर स्वामी दयानन्द का प्रवचन सुनने पहुँचे। स्वामी दयानन्द जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया।


उनका विवाह शिवा देवी के साथ हुआ था। आपकी 35 वर्ष में शिवा देवी स्वर्ग सिधारीं। उस समय उनके दो पुत्र और दो पुत्रियां थीं। सन् 1917 में उन्होने संन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए।


महर्षि दयानंद (1824-1883 ई.) के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' में प्रतिपादित शिक्षा संबंधी विचारों से बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने 1897 में अपने पत्र 'सद्धर्म प्रचारक' द्वारा गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के पुनरुद्वार का प्रबल आन्दोलन आरम्भ किया। 30 अक्टूबर 1898 को उन्होंने इसकी विस्तृत योजना रखी। नवंबर, 1898 ई. में पंजाब के आर्य समाजों के केंद्रीय संगठन आर्य प्रतिनिधि सभा ने गुरुकुल खोलने का प्रस्ताव स्वीकार किया। महात्मा मुंशीराम ने यह प्रतिज्ञा की कि वे इस कार्य के लिए, जब तक 30 हजार रुपया एकत्र नहीं कर लेंगे, तब तक अपने घर में पैर नहीं रखेंगे। तत्कालीन परिस्थितियों में इस दुस्साध्य कार्य को अपने अनवरत उद्योग और  निष्ठा से उन्होंने आठ मास में पूरा कर लिया। 16 मई 1900 को पंजाब के गुजराँवाला स्थान पर एक वैदिक पाठशाला के साथ गुरुकुल की स्थापना कर दी गई। किन्तु महात्मा मुंशीराम को यह स्थान उपयुक्त प्रतीत नहीं हुआ। वे शुक्ल यजुर्वेद के एक मंत्र (26.15) उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां धिया विप्रो अजायत के अनुसार नदी और पर्वत के निकट कोई स्थान चाहते थे।


इसी समय बिजनौर के रईस मुंशी अमनसिंह जी ने इस कार्य के लिए महात्मा मुंशीराम जी को 1,200 बीघे का अपना कांगड़ी ग्राम और 11 हजार रुपये दान दिया। हिमालय की उपत्यका में गंगा के तट पर सघन रमणीक वनों से घिरी कांगड़ी की भूमि गुरुकुल के लिए आदर्श थी। अत: यहाँ घने जंगल साफ कर कुछ छप्पर बनाए गए। होली के दिन सोमवार, चार मार्च 1902 को गुरुकुल गुजराँवाला से कांगड़ी लाया गया। 


गुरुकुल का आरम्भ 34 विद्यार्थियों के साथ कुछ फूंस की झोपड़ियों में किया गया। पंजाब की आर्य जनता के उदार दान और सहयोग से इसका विकास तेजी से होने लगा। 1907 में महाविद्यालय विभाग आरंभ हुआ। 1912 में गुरुकुल कांगड़ी से शिक्षा समाप्त कर निकलने वाले स्नातकों का पहला दीक्षान्त समारोह हुआ। सन 1916 में गुरुकुल काँगड़ी फार्मेसी की स्थापना हुई। 1921 में आर्य प्रतिनिधि सभा ने इसका विस्तार करने के लिए वेद, आयुर्वेद, कृषि और साधारण (आर्ट्‌स) महाविद्यालय बनाने का निश्चय किया। 1923 में महाविद्यालय की शिक्षा और परीक्षा विषयक व्यवस्था के लिए एक शिक्षापटल बनाया गया।


24 सितंबर 1924 को गुरुकुल पर भीषण दैवी विपत्ति आई। गंगा की असाधारण बाढ़ ने गंगातट पर बनी इमारतों को भयंकर क्षति पहुँचाई। भविष्य में बाढ़ के प्रकोप से सुरक्षा के लिए एक मई 1930 को गुरुकुल गंगा के पूर्वी तट से हटाकर पश्चिमी तट पर गंगा की नहर पर हरिद्वार के समीप वर्तमान स्थान में लाया गया।

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गुरूकुल की स्थापना 1902 से लगातार  मुंशीराम उर्फ स्वामी श्रद्धानंद कांगडी में रहते थे। कांगडी आज हरिद्वार जनपद का भाग है पर उस समय बिजनौर में ही था। कांगडी में रहने के कारण स्वामी श्रंद्धानंद को बिजनौरवासी उन्हें बिजनौर का मानते हैं। 

 

राजनैतिक व सामाजिक जीवन:

उनका राजनैतिक जीवन रोलेट एक्ट का विरोध करते हुए एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में प्रारम्भ हुआ। अच्छी-खासी वकालत की कमाई छोड़कर स्वामीजी ने ”दैनिक विजय” नामक समाचार-पत्र में ”छाती पर पिस्तौल” नामक क्रान्तिकारी लेख लिखे। स्वामी जी महात्मा गांधी के सत्याग्रह से प्रभावित थे। जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड तथा रोलेट एक्ट का विरोध वे हिंसा से करने में कोई बुराई नहीं समझते थे। स्वामीजी ने 13 अप्रैल 1917 को संन्यास ग्रहण किया, तो वे स्वामी श्रद्धानन्द बन गये। आर्यसमाज के सिद्धान्तों का समर्थक होने के कारण उन्होंने इसका बड़ी तेजी से प्रचार-प्रसार किया। वे नरम दल के समर्थक होते हुए भी ब्रिटिश उदारता के समर्थक नहीं थे। उन्होने अछूतोद्धार और धर्म में वापसी ने लिए बड़ा योगदान किया। 23 दिसम्बर 1926 को चांदनी चौक, दिल्ली में उनके निवास पर एक व्यक्ति ने गोली मारकर हत्या कर दी। 

 

- अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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