किसी भी देश को संपन्न बनाने में स्वदेशी भाव का होता है सबसे बड़ा योगदान

By सुरेश हिंदुस्थानी | May 16, 2020

चीनी वायरस से पैदा हुई परिस्थितियों ने विश्व के सभी देशों को यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि अब भविष्य की योजनाएं क्या होनी चाहिए। यह सोचना इसलिए भी अहम है, क्योंकि इस वायरस के कारण दुनिया के देश अपनी प्रगति की पटरी से बहुत नीचे उतर चुके हैं। फिर पटरी पर आने के लिए समस्त विश्व के देश मंथन की मुद्रा में हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। हालांकि कोरोना वायरस की अवधि के दौरान भारत की सरकार और भारत की जनता ने जिस अभूतपूर्व साहस का परिचय दिया है, उससे विश्व के कई देश भारत की प्रशंसा कर रहे हैं। 130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश भारत ने संपन्न देशों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया है। इसी कारण आज विश्व के अनेक देश भारत की राह का अनुसरण करने की भूमिका में आए हैं और कुछ आते जा रहे हैं।

 

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किसी भी देश को सुसंपन्न और सामर्थ्यवान बनाने में स्वदेशी भाव का बहुत बड़ा योगदान होता है। वर्तमान समय में इसकी प्रासंगिकता महसूस की जाने लगी है। अपने बाजार को दूसरे देशों के हवाले करने से उस देश का आर्थिक आधार मजबूत होता जाएगा, लेकिन अपना खुद का देश बहुत पीछे चला जाएगा। हम जानते हैं कि पुरातनकाल में भारत पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर था। गांव खुशहाल थे। सामाजिक व्यवस्था एक दूसरे पर अवलंबित थी। इसी अवलंबन के भाव के कारण ही हर परिवार की व्यवस्थाएं एक दूसरे से जुड़ी हुई थीं। इस कारण शहर ही नहीं गांव भी आत्मनिर्भर थे। आज देश को इसी भाव यानी स्वदेशी भाव की बेहद आवश्यकता है।


भारत की अर्थव्यवस्था का एक आधार यह भी था कि भारत के गांवों में कृषि एक ऐसा उद्योग था, जिस पर गांव ही नहीं शहरों की भी व्यवस्थाएं होती थीं। इसके अलावा लगभग हर घर में कुटीर उद्योग जैसी व्यवस्था संचालित होती थी। आज के समय में यह सारी व्यवस्थाएं चौपट हो गई हैं। जिन्हें फिर से स्थापित करने की आवश्यकता है। यही स्वदेशी का भाव है और यही भारत की आत्मनिर्भरता का एक मात्र रास्ता है। वर्तमान में एक धारणा प्रचलित है अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब और ज्यादा गरीब होता जा रहा है। इसके पीछे मात्र कारण यही है कि हम दूसरों पर आश्रित होते जा रहे हैं। दूसरों के सहयोग के बिना हम खाना भी नहीं खा सकते हैं। यह सब धन केंद्रित जीवन का ही परिणाम है। धन भी जरूरी है, लेकिन पैसा भूख नहीं मिटा सकता यानी पैसा भूख का पर्याय नहीं हो सकता।


महात्मा गांधी ने कहा था कि वे एक ऐसे भारत का निर्माण करना चाहते हैं जिसमें गरीब से गरीब व्यक्ति भी यह अनुभव करे कि भारत उनका अपना देश है। महात्मा गांधी के इस गंभीर चिंतन में स्वदेशी का ही भाव निहित है। उन्होंने अपने जीवन में हमेशा स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर बल दिया और इसके लिए देश को जगाया भी। गांधीजी गौमाता को ग्रामीण जीवन की समृद्धि का आधार भी मानते थे। लेकिन सवाल यह आता है कि जिस भारत की कल्पना महात्मा गांधी ने की थी, क्या भारत उस दिशा की ओर कदम बढ़ा रहा है, यकीनन नहीं। इसके पीछे का कारण यही है कि हमारी सरकारों ने लघु और कुटीर उद्योगों की तरफ बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया। जिसके कारण वे धीरे-धीरे नष्ट होते गए और इसीलिए गांव के लोग बाहर मजदूरी करने के लिए पलायन करने लगे। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता के दिलों में एक नवीन आशा का सूत्रपात किया है। उन्होंने लघु और कुटीर उद्योगों की स्थापना करने की ओर देशवासियों का ध्यान केंद्रित किया है। इसका यही निहितार्थ निकाला जा सकता है कि ग्रामीण व्यक्ति अब अपने गांव में ही रोजगार स्थापित करे। यह भी भारत की आत्मनिर्भरता के लिए एक मजबूत कदम है।

 

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स्वदेशी के विचार को जीवन में धारण करने से जहां हम स्वयं मजबूत होंगे, वहीं गांव, शहर और देश भी स्वावलंबन की दिशा में कदम बढ़ाएगा। और यही समृद्धि का रास्ता है। प्रधानमंत्री नरेंद मोदी ने अपने प्रबोधन में देश की आत्मनिर्भरता पर बहुत ज्यादा जोर दिया। 72 साल ही सही, लेकिन अब लगने लगा है कि हम वास्तविक स्वतंत्रता की तरफ कदम बढ़ाने की ओर प्रवृत्त हुए हैं। अगर स्वदेशी के भाव पर यही जोर आजादी मिलने के बाद ही दिया जाता तो आज देश की तस्वीर कुछ और ही होती। वास्तव में महात्मा गांधी के सपनों का भारत ही होता। खैर... कहते हैं कि जब जागो तभी सवेरा। आज हमारी सरकार जाग चुकी है, हम भी जागरूक नागरिक का व्यवहार करें और अपने जीवन में स्वदेशी के विचार को आत्मसात करें।


-सुरेश हिंदुस्थानी


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