बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आखिरी चर्चित फिल्म 'छिछोरे' बीते साल आई थी। इस फिल्म में सुशांत सिंह का किरदार आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में विफल होने के बाद आत्महत्या की कोशिश कर चुके अपने बेटे को समझाता है कि सफलता या विफलता जीवन के बराबर नहीं हो सकते। सुशांत सिंह डायलॉग बोलते हैं- "हार या जीत, जीवन से हार नहीं मानना, बस ज़िंदगी के लिए शुक्रगुज़ार रहना"। लेकिन पर्दे पर बहुत शिद्दत से बोले गए इस संवाद का मर्म संभवत: सुशांत स्वयं नहीं समझ पाए और अपनी परेशानी के हल के रुप में उन्होंने आत्महत्या का रास्ता चुन लिया।
सुशांत सिंह राजपूत हिन्दी सिनेमा के उन चुनिंदा कलाकारों में एक थे, जो न केवल सफल थे बल्कि बहुत संभावनाशील अभिनेता थे। 'काय पो चे' से लेकर 'धोनी-अनटोल्ड स्टोरी' और 'छिछोरे' तक तक उन्होंने अपने अभिनय की व्यापक रेंज दिखायी थी, जो लगातार विस्तार ले रही थी। उनके पास अभी भी कई फिल्में थी, जिन्की शूटिंग लॉकडाउन की वजह से रुकी हुई थी। सुशांत सिर्फ 22 वर्ष की उम्र में टेलीविजन के जरिए घर-घर पहचाने जाने लगे थे। और 34 वर्ष की आयु तक तो उन्होंने चार बड़े धारावाहिकों और एक दर्जन से अधिक फिल्मों में काम कर लिया था। अर्थ यह कि उनके पास काम की कमी नहीं थी। तो इस वक्त पूरा देश यही सवाल पूछ रहा है कि एक आकर्षक, सफल और संभावनाशील अभिनेता के जीवन में ऐसी क्या परेशानी हो गई कि उनके पास खुदकुशी के अलावा कोई विकल्प ही नहीं रह गया ? निश्चित रुप से इस सवाल का जवाब पुलिस की जांच में मिलना चाहिए।
लेकिन, सुशांत के जीवन पर नजर डालें तो उन्हें सफलता की लत थी। वो स्कूल के दिनों में बेहतरीन छात्र थे, जिसने भौतिक विज्ञान में राष्ट्रीय ओलंपियाड जीता। 2003 में दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में दाखिला लिया और उसी साल कई दूसरे इंजीनियिंग कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा पास की। अभिनय में कॅरियर बनाने की चाह में सुशांत ने इंजीनियरिंग को अलविदा कहा तो टीवी में भी संघर्ष जैसी कोई बात नहीं रही। 2005 में मुंबई पहुंचने पर नादिरा बब्बर के नाटक 'एकजुट' के दौरान एकता कपूर की टीम ने उनसे टीवी सीरियल के लिए ऑडिशन देने को कहा और वो टीवी की दुनिया में पहुंच गए। टीवी में नाम और दाम कमाने के बाद 'काय पो चे' जैसी संवेदनशील विषय वाली फिल्म से उन्होंने बॉलीवुड में एंट्री ली। फिल्म की सफलता ने उनके लिए तमाम रास्ते खोल दिए।
यानी फिल्मी पर्दे पर एक नायक का संघर्ष जैसा दिखाया जाता है, वैसा सुशांत सिंह राजपूत का कभी नहीं रहा। उन्होंने अपनी मेहनत और भाग्य के भरोसे बहुत जल्दी सफलता पाई। लेकिन, कामयाबी के साथ आए एकाकीपन या तनाव को वो संभवत: सह नहीं सके। या कहें जिसे दुनिया कामयाबी समझती है, उसके पीछे के संसार में एक ऐसा अनंत अंधेरा होता है, जिसकी टोह लेने वाला कोई नहीं होता। टीवी रिपोर्ट्स के मुताबिक, सुशांत सिंह राजपूत बीते छह महीने से डिप्रेशन के शिकार थे और उनका इलाज चल रहा था। इस तथ्य से सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की खबर उस महत्वपूर्ण कोण से जुड़ जाती है, जिसमें भारतीय समाज में पैठ बनाती तनाव की समस्या पर गंभीरता से विचार की जरुरत जान पड़ती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के लिए नेशनल केयर ऑफ मेडिकल हेल्थ के एक अध्ययन के मुताबिक भारत की करीब 6.5 फीसदी आबादी किसी ना किसी गंभीर मानसिक बीमारी से जूझ रही है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, "हालांकि, डिप्रेशन से लेकर दूसरी तमाम बीमारियां का कारगर इलाज संभव है, लेकिन भारत में मानसिक स्वास्थ्य की जांच करने वाले मेंटल हेल्थ वर्कर्स यानी मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक और डॉक्टर की भारी कमी है। 2014 में एक लाख की आबादी पर ऐसे डॉक्टर्स महज एक था।" इसी कड़ी में यह जानना भी जरुरी है कि भारत में दुनिया में सबसे ज्यादा खुदकुशी होती हैं और यहां प्रति एक लाख आबादी पर आत्महत्या की दर करीब 10.9 फीसदी है। बड़ी बात ये कि आत्महत्या करने वाले अधिकांश लोगों की उम्र 44 वर्ष से कम होती है।
सुशांत सिंह राजपूत की उम्र तो अभी सिर्फ 34 वर्ष की थी। एक अभिनेता के रुप में उनमें अपार संभावनाएं थी। लेकिन, तनाव के दौरान उपजी परेशानियों के बीच उन्हें ऐसा लगा कि जीवन की सारी उम्मीदें खत्म हो चुकी हैं। लेकिन, सुशांत का जाना एक हीरो का जाना नहीं कहा जा सकता। क्या सुशांत ने लाखों युवाओं के सामने ऐसा उदाहरण पेश कर दिया कि पर्दे का हीरो निजी जिंदगी में बहुत बहुत कमजोर होता है? और अगर वो इतना ही कमजोर होता है तो उसे पर्दे पर बड़े बड़े आदर्श पेश करने का नैतिक अधिकार क्या है? 34 साल की उम्र तो चुनौतियों से लड़ने की होती है। संघर्ष की होती है। यह हारने की उम्र नहीं होती लेकिन सुशांत को एकाकीपन में जानें क्यों ऐसा लगा कि वो हार गए हैं। उनकी हार एक समाज के रुप में हम सबकी हार है, जो आदर्श पेश करने वाले नायकों में भी यह भरोसा नहीं जगा पाता कि जिंदगी से कीमती कुछ नहीं।
पीयूष पांडे